हे! मानव तुम धरा बचाओ
कुछ तो इसका कर्ज चुकाओ
बूंद-बूंद जल संचित करती
अपने स्वेद से प्यास बुझाती
फिर भी न कोई कीमत पाती
ऐसे न इसको व्यर्थ बहाओ
सुबह सबेरे सूरज उग आता
फिर सारे जग को चमकाता
नही किसी से ये विल पाता
ध्यान रखो! इसके गुण गाओ
धरा से कितने ही वृक्ष भी पाए
प्राण वायु और फल भी पाए
कितने ही काटे कितने जलाए
अब कटने से भी इन्हें बचाओ
नदियां धरा की आभूषण हैं
रत्नगर्भा और कृषि भूषण है
समृद्धि की परिचायक भी है
प्रदूषण से तुम इन्हें बचाओ
हे! मानव तुम धरा बचाओ
कुछ तो इसका कर्ज चुकाओ
✍️दुष्यंत बाबा, पुलिस लाइन, मुरादाबाद
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