गुरुवार, 12 जनवरी 2023

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष शिव अवतार रस्तोगी "सरस" के अप्रकाशित खंडकाव्य "गुदड़ी के लाल" का प्रथम सर्ग - "शैशव"


शिशु-सा रख कर रूप, अवतरित हुआ 'तथागत' । 

बना हुआ था केन्द्र, क्रान्ति का सारा भारत ।। 

किन्तु नहीं वह किसी, 'राजकुल' से आया था । 

निर्धन के घर दया, प्रेम, श्रम, बल लाया था ।। 1 ।।


'दो - अक्तूबर' जन्म लिया, बन छोटा 'बापू' 

आजादी के लिये हुआ, भारत, बे-काबू ।। 

सन् उन्निस सौ चार क्रान्ति, की फैली ज्वाला । 

देश-प्रेम के लिये बना, जन-जन मतवाला ।। 2 ।।


'मुगलों' का था नगर नहीं, मुगलों-सा मानी 

हिन्दू-मुस्लिम, सिक्ख सभी थे, ज्ञानी-ध्यानी ।।

 उसी नगर में एक वंश कायस्थों का था । 

 पूर्ण निरामिष और धर्म-चर्चा में लय था ।। 3 ।।


उसी वंश में श्री शारदा जी शिक्षक थे ।

नीति रीति पद परम्परा के संरक्षक थे ।।

कायस्थों में सदा कहा यह ही है जाता ।

'पढ़ा भला या मरा भला', जग में कहलाता ।। 4 ।। 


उसी वंश का अंश हमारा लाल बहादुर ।

रख कर 'बौना' रूप बजाता आया नूपुर ।।

देख 'लाल' को मुदित हुई माँ रामदुलारी ।

महक उठी थी पूज्य शारदा की फुलवारी ।। 5 ।। 


नन्हा सा था लाल, अतः 'ननकू' कहलाया ।

बाल- 'कृष्ण' सम प्यार, नगर घर भर से पाया ।। 

गंगा तट के निकट लाल की कुटिया न्यारी ।

बनी 'देवकी' और 'यशोदा' स्वयं दुलारी ।। 6 ।।


कल-कल करता गंगा का जल था अति उज्ज्वल ।

जल का कर स्पर्श गंधवह, बहती शीतल ।।

गंगा-यमुना एक रूप हो गई वहाँ पर ।

श्वेत-श्याम जल हुआ एक था, आलिंगन कर ।। 7 ।।


मीन-मकर जल ब्याल, 'लाल' का मन हरते थे। 

खग कपोत कारण्डव, मनरंजन करते थे । 

चहक चहक कर चटक उड़ा करते थे चंचल | 

पकड़ 'चंग' की डोर, शोर करता था युव-दल ।। 8 ।। 


दिन थे स्वर्णिम और निशाएं थीं रत्नारी ।

कलियों के कल-कुंज, कुमुदनी की थीं क्यारी ।।

गंगा तट गुंजायमान था गुंजा रव से

सभी ओर थे 'अर्क' और 'गुंजा' के पौधे ।। 9 ।। 


'अर्क' उगा था एक, पूर्व में ले उजियाला । 

इधर 'अर्क' के पौधों ने थी की ज्वाला ।।

 प्रबल ताप में निर्जल रहकर जो लहलहाता ।

 वही 'अर्क' सम विषम क्षेत्र में शोभा पाता ।। 10 ।।


अर्क क्षेत्र में उसी उगा हो जैसे 'शतदल' ।

हाथ-पैर थे लाल, लाल ही था मुख-मंडल ||

देख 'लाल' को 'लाल' 'लाल' था गया पुकारा ।

'लालबहादुर' लगा नाम तब सबको प्यारा ॥ 11 ॥


संग, मात के, गंग नहाने अक्सर जाता ।

करने को कल्लोल, उछल कर आगे आता ।। 

चंचल था अत्यधिक गोद से निकला पड़ता 

न्हाते न्हाते ही अक्सर, गंगा में गिरता ।। 12 ।। 


एक बार की बात मकर संक्रान्ति पर्व था ।

'माघ मास था गंगा तट पर बड़ा हर्ष था ।। 

साथ 'नाथ' के रामदुलारी तट पर आयी ।

भीड़ अत्यधिक, बच्चा छोटा, थी पबरायी ।। 13 ।। 


घूँघट में थी वधू, गोद में, शिशु था प्यारा । 

चिकनी मिट्टी, फिसलन भारी, घिरा किनारा || 

दुविधा में थी वधू, 'हाय मैं किसे सम्हालूँ । 

'लाल' 'लाज' में टनी, आज मैं किसको पालू ? ।। 14 ।।


कन्धे से था लगा हुआ जो छोटा 'छोना' । 

छिटका गंगा बीच, टोकरी बनी बिछौना ।। 

लेकर सूनी गोद, लौट कर तट तक आयी । 

हिरनी-सी गिर पड़ी, मूर्च्छा उसने खायी ।। 15 ।।


इसी बीच में वहां भीड़ का 'रेला' आया । 

'भागो भागो' तभी भीड़ ने शोर मचाया || 

गंगा तट पर रामदुलारी, बिना 'लाल' के ।

देख रही थी दृश्य अनोखे, महाकाल के ।। 16


उधर छिपा कर 'लाल', टोकरी वाला धाया ।

सोचा, मैंने 'लाल', आज गंगा से पाया ।।

 था वह निःसंतान, दूध का व्यवसायी था । 

 परम भक्त था और धर्म का अनुयायी था ।। 17


सर्दी थी अत्यधिक, कंपकंपी भी थी भारी । 

वात्सल्य -वश विवश, मिर्जई तुरत उतारी ।। 

ढका 'लाल' को फिर, फाहे से दूध पिलाया । 

सोच रहा था, आज पर्व का, 'फल' है पाया ।। 18 ।।


कभी कृष्ण को छिपा 'छाज' में लाये नृपवर । 

बड़ा किया था पाल-पोस, अपना सुत कहकर ।।

पार पहुँच कर सोच रहा था, मन में ग्वाला 

इसी इरादे से उसने था शिशु को पाला ।। 19 ।।


इधर 'दुलारी' बिना लाल के, बुरे हाल थी ।

रो-रोकर निन्दा करती, उस बुरे काल की ।। 

हुई पुलिस में रपट, झपट दौड़े भगदड़ में ।।

मिला 'लाल' था छिपा, एक ग्वाले के घर में ।। 20 


कुछ मुद्रायें देकर, शिशु को वापिस पाया । 

लेकर सुख की साँस, मुदित थी सबकी काया ।। 

पाकर शिशु को हुआ प्रफुल्लित, सारा घर था । 

पहुँचूँ 'गंगा-पार' लक्ष्य था, जीवन भर का ।। 21 ।।


रहे वर्ष भर ठीक, मगर कब तक रह पाते । 

क्रूर-काल कब देख सका सबको मुदमाते ।।

रखा गया था 'लाल', डाल पलकों की छाया । 

टाल सका पर कौन ? भाग्य, जो जिसने पाया ।। 22 ।।


इसी बीच 'दुष्काल' 'लाल' के घर तक आया । 

रखकर भैरव-रूप, भीम आतंक मचाया ।। 

खींच प्राण ले गया, 'काल' था, साथ पिता को । 

डेढ़ साल का 'लाल', देखता रहा चिता को ।। 23 ।।


हुआ 'लाल' यूँ शैशव में ही, हाय! अभागा । 

पड़ीं मुसीबत बहुत, आयीं बाधा पर बाधा ।। 

दो पुत्री के साथ पुत्र था एक अकेला । 

रखकर उर पर वज्र, कष्ट माता ने झेला ।। 24 ।।


घर-भर में सर्वत्र शोक - विक्षोभ मचा था । 

हा । धिक् धिक् दुर्भाग्य, खेल क्यों गया रचा था ।। 

किसलय पर गिर पड़ी गाज, कलियों पर पाला । 

'यौवन में वैधव्य 'दुलारी' को दे डाला ।। 25 ।।


वज्रपात-सा हुआ, मूर्च्छित हुई 'दुलारी' । 

असमय में ही उजड़ गयी उसकी फुलवारी ।। 

कुल इक्किस की उम्र, जुड़ा 'नेहर' से नाता । 

डेढ़ साल का 'लाल', हाय दुर्भाग्य विधाता ।। 26 ।। 


इस प्रकार यह 'लाल' पढ़ा फिर, नाना के घर । 

नाना ने भी प्यार किया था इसको भुज-भर ।।

'पूज्य हजारी लाल' नियम पालन के पक्के । 

अनुशासन प्रिय और बहुत ही कट्टर मति के ।। 27 ।।


एक बार की बात, बाढ़ गंगा में आयी ।

डूब रहे शिशु की, 'ननकू' ने जान बचायी ।।

'जय हो ननकू', 'जय ननकू' का था नारा ।

मेरा 'लाल' बहादुर है, तब गया पुकारा ।। 28 ।।


उसी दिवस से लाल बना था, 'लाल बहादुर' । 

सब करते थे प्रेम, ब्राह्मण, बनिये, ठाकुर || 

'गंगा का वरदान' मानते थे सब इसको ।

'तैराकी' था, खेल नहीं थे 'डिस्थ्रो डिस्को' ।। 29 ।। 


शैशव के दस वर्ष बिताकर, नाना के घर । 

भला-बुरा सब जान चुका था 'ननकू' सत्वर ।। 

'छठवीं' कर उत्तीर्ण समस्या आगे आई । 

कैसे होवे पूर्ण गाँव में अब शेष पढ़ाई ।। 30 ।।


तभी आ गया पत्र, भाग्य से, मौसा जी का । 

नगर 'बनारस' केन्द्र ज्ञानदा सरस्वती का ।। 

मीसा श्री 'रघुनाथ' पालिका में मुंशी थे । 

विस्तृत था परिवार, मगर वे संतुष्टी थे ।। 31 ।।


✍️ शिव अवतार रस्तोगी "सरस"

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