मेरे अन्तर की पीड़ा को,
तुमने कभी नहीं पहचाना,
सौगंधे तक खायी मैंने,
पर विश्वास न तुमको आया,
घाव हृदय के जब दिखलाये,
तुमने मरहम नहीं लगाया,
यह सब है, विधि की बिडम्बना,
और उसी का ताना बाना,
मेरे अन्तर की..............।।
जिसको सब कुछ किया समर्पित,
किन्तु न वह बन पाया अपना,
तब क्या यह संसार नहीं है,
झूठ मूठ का सुन्दर सपना,
जब दुनिया है मृग - मरीचिका,
कैसा इससे नेह लगाना,
मेरे अन्तर की...........।।
मैं जिस मोह जाल में अब तक,
फंसा हुआ था, अज्ञानी था ;
मेरा ये सब नेह - मोह बस,
धरती पर बहता पानी था,
अन्धकार मिट गया हृदय का,
सच्चाई को जब से जाना,
मेरे अन्तर की पीड़ा को ..…।।
फिर भी जब तुमको कुछ बीते,
सुखद समय की याद सताये,
पल - क्षण तुम्हें सोचते बीते,
आंखों से निद्रा उड़ जाये,
ऐसी संतापी घड़ियों में,
निःसंकोच यहाँ आ जाना,
मेरे अन्तर की पीड़ा को,
तुमने कभी नहीं पहचाना।।
::::::::::प्रस्तुति::::::::
डॉ मनोज रस्तोगी
8,जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9456687822
सरल सरस भाषा में अति उत्तम गीत।
जवाब देंहटाएंगीत न उपजे दर्द बिना,दर्द तो गीत का उद्गम है।
सरल सरस भाषा में अति उत्तम गीत।
जवाब देंहटाएंगीत न उपजे दर्द बिना,दर्द तो गीत का उदगम है।
हरी सिंह जिज्ञासु।