रविवार, 21 अगस्त 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में काशीपुर निवासी) अम्बरीष गर्ग की आठ कविताएं । ये सभी कविताएं अखिल भारतीय साहित्य कला मंच मुरादाबाद द्वारा वर्ष 2003 में प्रकाशित विशद भक्ति काव्य संकलन 'क्या कह कर पुकारूँ' से ली गई हैं। इस कृति का सम्पादन डॉ महेश दिवाकर, मोहन राम मोहन और जसपाल सिंह संप्राण ने किया है।


 (1) प्रभु की थाह

प्रभु तेरी थाह पाने

कितनी नदियाँ उतर पड़ी हैं पर्वतों से 

मैं भी तेरी खोज में

द्रुत वेग से चल दिया था 

अब समतल पर आ पहुंचा हूँ।

तीव्रता तो भावना में ही निहित थी

मिट चुकी।

प्रभु

तुम तक आते-आते बहुत देर हो जाएगी।

और मेरा प्रेम भी

भावनाओं से रहित, बस, प्रेम होगा।

तू भावनाओं के लिए कुछ भी मत कहना। 

प्रभु तेरी थाह पाने

कितनी नदियाँ उतर पड़ी हैं।


(2) प्रभु की प्रतीक्षा

आज मैंने

घर के सब लोगों से कह दिया है

कि तू आएगा।

मुझे तेरा विश्वास है

इसीलिए तो कह दिया है।

प्रभु!

अब तेरी प्रतीक्षा

मैं ही अकेला नहीं करूंगा।

तू मेरा विश्वास बचाने

आ जा !!


(3) प्रभु का स्वागत

तू मेरे घर आएगा

इसीलिए तो घर का सब सामान 

क्रमशः लगा दिया है।

प्रभु!

यह सारी व्यवस्था बनी रहे

बस, इसीलिए

तू जरुर आना।

मैं जानता हूँ तू व्यवस्थाओं को बिखरने नहीं देगा 

हाँ, तू अभी आता होगा

मैं स्वागत में खड़ा हो जाऊँ!


(4) प्रभु का प्रेम

तेरे प्रेम का लोभ देकर 

प्रभु ! किसी ने

आसमान से

वसुधा के अन्जान क्षितिज पर 

मुझे बुलाया था। 

मैं आया तो, पर 

अब अपना घर भूल गया हूँ।

अब मेरा अस्तित्व सर्वदा 

इन सीमाहीन दिशाओं पर

तेरे प्रेम की एक दृष्टि को खोजेगा

तू नये क्षितिज निर्माण कर !


(5) प्रभु के लिए

प्रभु !

मैं अब भी अकेला 

बाट तेरी जोहता हूँ।

सिर्फ तेरे ही लिए 

मैंने घर को बुहार लिया है 

और सब सामान को भी

व्यवस्थाओं में सजा दिया है।

तू देखने तो आ!


(6) प्रभु को समर्पण

अभिलाषाओं की नगरी में

जीवन के हर मोड़ पर 

खिला जहाँ भी पुष्प

तुझको देता गया मैं तोड़कर ।

प्रभु!

तेरा हार गूंथने

अब और सुमन कहाँ से लाऊँ? 

तुझे हार पहनाने को

आज मेरी वेदनाएँ दहक रही हैं।

तू इनको मत हाथ लगाना

इनमें मुझको ही जलने दे

तू तो पहले ही नीलकण्ठ है !!


(7) मन्दिर की रोशनी

जंगल के उस पार से

हम इसे देखा करते थे। 

वह टिमटिमाती रोशनी भी

इसी मन्दिर से आती होगी। 

इच्छाओं के सार्थ यहाँ

श्रद्धा चढ़ाने आते हैं। 

एक गहरी धुन्ध से यह ढक गया है

धुन्ध नहीं,

यह भक्तजनों की श्रद्धा है।

यहाँ का पुजारी

इसमें घुटकर मर गया है।

बहुत दिन हुए

वह और मैं

जंगल के उस पार से हम इसे

देखा करते थे ।।


(8) प्रभु की प्रतिमा 

प्रभु! तेरे मन्दिरों में

पाषाण किसने रख दिए हैं? 

आज मेरी सुधियाँ

अपनी भूमिका निभाऐंगी

तू देखना !

तुझे पकड़ने मेरी सुधियाँ 

अन्तिम सीढ़ी तक चढ़ आयी थीं 

वहाँ तेरी पाषाण-प्रतिमा की

छाया ही खड़ी हुई थी

मैं छला गया!

प्रभु! वह पाषाण प्रतिमा

क्या सचमुच तेरी ही थी? 

बेसुध-सी मेरी सुधियों ने 

शीष उसी को झुका दिया था। 

मैंने सुधियों को जगा लिया प्रभु! 

आज मेरी सुधियाँ 

अपनी भूमिका निभाऐंगी

तू देखना !


✍️ अम्बरीष गर्ग

काशीपुर 

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