रविवार, 9 अक्टूबर 2022

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही का गीत ...अन्याय नहीं मन सह पाता, विद्रोही गीत सुनाता हूं

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न्याय 

 कैसे पुरवाई के झौंके!

और कैसी सावन की फुहार।

न भाये मुझको आलिंगन,

न मन  चाहे सोलह  श्रृंगार ।

जन जन के मन की पीड़ा को 

मैं अपने गीत बनाता हूं।

अन्याय नहीं मन सह पाता

विद्रोही गीत सुनाता हूं।


जो थाम तिरंगा गलन भरे,

हिम शिखरों के ऊपर चलते।

सीना ताने सीमा पर जो,

पल-पल निशदिन तिल तिल गलते।

उन सब के घोर पराक्रम को ,

दर्पन बन कर दिखलाता हूं। 

अन्याय नहीं मन सह पाता

विद्रोही गीत सुनाता हूं।


भारत माता का आर्तनाद !

जब सहन नहीं कर पाता हूं!  

मन आक्रोशित हो जाता है, 

शब्दों के बाण चलाता हूं ।

वीणापाणी से मिला प्यार मैं ,

कागज कलम उठाता हूं।

अन्याय नहीं मन सह पाता

विद्रोही गीत सुनाता हूं।


कितने ही बिषधर आस्तीन,

में सदा सदा यहां पलते हैं!

अन्न जल खाकर भारत मां का,

नित इससे ही छल करते हैं।

उनके चेहरों पर फ़ैल रही,

स्याही का रंग दिखाता हूं!

अन्याय नहीं मन सह पाता,

विद्रोही गीत सुनाता हूं! 


जाति, भाषा और वर्ग भेद,

में जो समाज को बांट रहे।

हम एक बनें और नेक बनें,

के मूल मंत्र को काट रहे।

"भारत मां के बेटों जागो !"

की घर घर अलख जगाता हूं।

अन्याय नहीं मन सह पाता,

विद्रोही गीत सुनाता हूं! 


दीवाने थे भारत मां के ,

कुछ अलवेले मस्ताने थे।

फांसी के फंदे चूम चूम ,

गूंजे जो अमर तराने थे। 

उन अमर शहीदों की गाथा,

के केसरिया लहराता हूं !

अन्याय नहीं मन सह पाता,

विद्रोही गीत सुनाता हूं! 


इस सोने की चिड़िया के पर,

आक्रांताओं ने नौचे थे।

सारी दुनिया अब जान चुकी,

वे चोर लुटेरे ओछे थे!

छू न पाये फिर इसे कोई ,

नित अंगारे दहकाता हूं। 

अन्याय नहीं मन सह पाता,

विद्रोही गीत सुनाता हूं! 

✍️ अशोक  विद्रोही

 

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