छरहरा शरीर, लम्बा बदन, गौर वर्ण, सरस नेत्र, सिर पर गाँधी टोपी, आँखों पर बिना फैशन का चश्मा, पूरी बाँहों की कमीज, सादा सा पाजामा, पैरों में स्वर न करने वाले चप्पल, एक हाथ में छड़ी दूसरे हाथ में किताब, कापियों तथा कविताओं की नोटबुकों से आधा भरा थैला, धीमी धीमी चाल से चलता हुआ ऐसा व्यक्ति यदि आप को सड़क पर दिखाई दे जाए तो आप समझ लें कि यही हैं कविवर श्रीयुत बहोरन सिंह जी वर्मा 'प्रवासी'।
साहित्यिक संस्था 'अन्तरा' तथा अन्य कवि गोष्ठियों में प्रवासी जी से कवितायें सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। 'तरन्नुम' के साथ तथा डूबकर कविता पढ़ते हैं। सुनने में अच्छा लगता है। सरल शब्दों में गहरी बात कहने में श्री प्रवासी जी सिद्धहस्त हैं। डा. अजय कुमार अग्रवाल 'अनुपम' प्रबन्धक, हिन्दी साहित्य सदन, मुरादाबाद, प्रायः मेरे पास रहते हैं। अभी कुछ दिन पूर्व उन्होंने श्रीयुत प्रवासी जी के गजल संग्रह 'सीपज के विषय में दो शब्द लिखने को कहा। उनके इस प्रस्ताव से मैं द्विविधा में पड़ गया। वास्तव में में इस गुरुतर कार्य के लिये अपने को अयोग्य मानता हूं। मैंने यह बात श्रीयुत अनुपम जी से कई बार कही। उन्होंने मेरी एक नहीं सुनी। विवश होकर उनके अनुरोध को स्वीकार करना पड़ा, क्योंकि श्रीयुत अनुपम जी से सम्बन्ध ही इस प्रकार का है। 'दो शब्द' जैसे हैं प्रस्तुत हैं।
प्रस्तुत ग़ज़ल संग्रह 'सीपज' को आद्योपान्त पढ़ा। अच्छा लगा। अस्सी ग़ज़ल रूपी मोतियों को पिरोकर एक ऐसी सुघड़ माला बनायी गयी है जिसका प्रत्येक मोती अपनी अलग ही छवि बिखेर रहा है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि गीत एक ऐसा गुलदस्ता होता है जिसका प्रत्येक फूल अलग अलग रंग का होते हुए भी उसके सभी फूलों की गंध एक सी होती है जबकि ग़जल के सभी फूलों के रंग और गंध अलग भी हो सकते हैं। पूरे गीत का मूल भाव एक ही रहता है जबकि गजल के प्रत्येक शेर का भाव अलग होता है।
श्रीयुत प्रवासी जी भावुक तथा गहरी परख वाले कवि हैं। उन्होंने समाज को गहराई से देखा है और उसकी अच्छाई बुराई को भली भाँति भोगा है। समाज की विसंगतियों को ध्यान पूर्वक देखा है। उनके सीपज का कथ्य उनके द्वारा भोगा हुआ सत्य है। प्रत्येक क्षेत्र में अन्याय को देखकर कवि के हृदय में एक टीस उठती है:
'भव्यता कैसे रहेगी विश्व की,
हर तरफ दुर्गन्ध ही दुर्गन्ध है। (गजल१)
चारों ओर अशान्ति का साम्राज्य देखकर कवि ने कहा है:
'शान्ति, जन को अब कहाँ से प्राप्त हो,
शान्ति मंदिर ही हुआ जब ध्वस्त है
भय प्रवासी को न शूलों का रहा होगा,
यह हुआ उनका बहुत रहा, अभ्यस्त है। (गजल ९)
इसी भाव को अपनी ५६वीं ग़ज़ल में इस प्रकार कहा है..
'नुकीले बिछे पगपग डगर में,
नहीं ज्ञात कैसे पथिक चल रहा है।
जगत में सुख शान्ति लाने के जितने प्रयास हो रहे है, उतनी ही अशान्ति बढ़ रही है। 'मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों ज्यों दवा की इसको देखकर कवि निराशा भरे स्वर में कह उठता है:
मचा विश्व में आर्त्त क्रन्दन 'प्रवासी',
हुआ है व्यथा का शमन अब असंभव (गजल ४६)
निरीह भोली भाली जनता की दुर्दशा तथा उसको ठगकर ऐश्वर्य का जीवन जीने वाले नेताओं को देखकर कवि अत्यधिक दुःखी स्वर में कहता है:
कुछ समझ में नहीं आ रही है,
इस नियति चक्र की गति तनिक भी,
नीर को जो तरसते कभी थे,
क्षीर को पी रहे हैं जगों से,
स्वप्न में भी यह आशा नहीं थी
जो मनुज की दशा हो गई अब,
लाज हिम के सदृश गल रही है,
नीर सा ढल गया है दृगों से। (गजल ७१)
वे आगे कहते हैं:
आज जन का विषमयी स्वर पान कर,
साँस घुटती जा रही है क्या करें ।' (ग़ज़ल७३)
हर ओर आज स्वार्थ की लहरा रही ध्वजा,
निःस्वार्थ कौन कर रहा उपकार आज कल
शुचि स्नेह, मान, नम्रता कब के विदा हुए
विद्रूप हो गया बहुत व्यवहार आजकल (गजल ७६)
साहित्य शब्द में हित निहित है अतः जो साहित्य
समाज के हित हेतु न लिखा गया हो वह चाहे जो हो साहित्य नाम को सार्थक नहीं करता। श्रीयुत प्रवासी जी की मान्यता भी यही है। साथ ही वे काव्य में यति, गति छन्द तथा गेयता के पोषक हैं। वे कहते हैं:
हो न कल्याण-भावना जिसमें काव्य ऐसा असार होता है ।
न कल्याण हो जिस गिरा से किसी का
कहो शब्द विन्यास वाणी नहीं है। (गजल २८)
काव्य कहलाता छन्द, यति, वही जो गेय है।
छंद, यति, गति हीन रचना हेय है। (गजल ३९) ।
श्री प्रवासी जी धन, विद्या, काव्य तथा भक्ति के साधको को सिद्धि का मूल मंत्र बताते हुए कहते हैं:
लगन के बिना साधना है अधूरी,
सतत साधना सिद्धि मन्दाकिनी है।
पसीने की कमाई की प्रशंसा तथा कफन खसोट कर एवं दूसरों को सताकर कमाए धन को विष के समान बताते हुए कवि ने कहा है:
मिले जो सहज, श्रेष्ठ जानो उसे ही,
अलभ वस्तु पर दृष्टि अपनी धरो मत।
गरल बूँद, मधुक्षीर को विष बनाती,
कुधन से कभी कोष अपना भरो मत।
सुपथ से मिला अल्प धन ही बहुत है,
कुपथ से कभी द्रव्य अर्जन न करना।
श्री प्रवासी जी ने श्रृंगार रस के बहुत से गीत तथा दोहे लिखे हैं। सीपज में भी श्रृंगार रस अछूता नहीं रहा है। कुछ शेरों को उदधृत करना पर्याप्त होगा:
हो गया दूर बालपन उनका,
अब बदलने लगा चलन उनका। गजल २
सृष्टि उस काल हो गई बेसुध
जिस समय वे सहज सँवर बैठे
प्राण की रूप माधुरी लखकर
क्या करें बातचीत भूल गए।
उर्दू ग़ज़ल के अन्दाज में श्री प्रवासी जी कहते हैं: हटाओ नहीं चन्द्र मुख से अलक घन
मचल जायेंगे लख हटीले रसिक मन ।(गजल १२)
परहित सरिस धरम नहिं भाई परपीड़ा सम नहिं अधमाई। गोस्वामी तुलसी दास जी के इसी भाव को श्री प्रवासी जी ने इस प्रकार व्यक्त किया है:
मनुजता की विमल व्याख्या यही है,
नयन गीले सुखाते जाइएगा । (ग़ज़ल २१)
मातृभूमि की सेवा करने की प्रेरणा देते हुए श्री प्रवासी जी कहते हैं:
एक दिन हर वस्तु होनी है विलय,
श्रेष्ठ कर्मों हो नहीं का सुयश अविलेय है।
सकता मनुज कोई उऋण
मातृभू का ऋण सभी पर देय है ।
मनुज की अशान्ति का कारण उसका लोभ और मोह है। कभी पूरी न होने वाली लालसाओं के चक्कर में पड़कर उसका सुख चैन गूलर का फूल हो गया है सन्तोष तथा त्याग ही शान्ति का आधार है, श्री प्रवासी जी कहते हैं:
लालसाएँ हैं कॅटीले जाल सी,
सर्व सुखदाता विषय का त्याग है।
कविवर रहीम जी ने एक दोहा लिखा है:
रहिमन अपने पेट सौं, बहुत कह्यों समझाय।
जो तू अन खायो रहै, तो सौ को अनखाय
इसी भाव को श्री प्रवासी जी ने अपने शब्दों में इस प्रकार कहा है:
सभी व्यक्ति होते सुजन इस धरा के,
व्यथित यदि न करती क्षुधानल उदर की।
दुःखालय संसार से संताप पाकर तथा विवश होकर प्राणी करुणालय एवं दीनबन्धु भगवान की शरण में जाता है। उन्हों की शरण में वह सुख शान्ति का अमृतपान करता है। श्री प्रवासी जी का कथन है:
तुम्हारे दर्श का प्यासा, तुम्हारे द्वार आया है।
कृपा की दृष्टि हो जाए बहुत जग ने सताया है ।।
कृपा जिस ओर हो जाए तुम्हारी,
सुधा उसके लिए होता गरल है ।
अन्त में कहा जा सकता है कि कविवर भाई श्रीयुत प्रवासी जी ने सीधी सादी सरल भाषा रुपी धागे में मधुर भावों के रंग बिरंगे सीपजों को यत्नपूर्वक पिरोकर जो माला प्रस्तुत की है वह श्रोता तथा पाठकों के मन को मोहित किये बिना नहीं रह सकती। कला तथा भाव दोनों ही दृष्टियों से सीपज' एक अच्छी रचना है। श्रीयुत प्रवासी जी ने जनता की समस्याओं को तथा सुहृदयों के भावों को सीपज का कथ्य बनाया है। इसीलिये सीपज सभी पाठकों का मनोरंजन करते हुए आदर प्राप्त करेगी ऐसा विश्वास है। इस सुप्रयास के लिए भाई प्रवासी जी प्रशंसा के पात्र हैं। और इस संस्कृति को आप तक पहुंचाने के लिए हिन्दी साहित्य सदन मुरादाबाद तथा उसके प्रबन्धक डा. अजय अनुपम साधुवाद के अधिकारी हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें