बुधवार, 9 जून 2021

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल (वर्तमान में मेरठ निवासी ) के साहित्यकार सूर्यकांत द्विवेदी का गीत ------झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ


झुर्रियां झुर्रियां, झुर्रियां झुर्रियां 

मुख पे छाई हुई रश्मियां रश्मियां


डोलता है गगन, बोलती यह धरा

संभलो-संभलो कि कांपती यह जरा

क्या पता तुमको,हमने पढ़ी सुर्खियां 

झुर्रियां झुर्रियां झुर्रियां झुर्रियां।।


यदा कदा दमकता, तपता, खनकता

भोर संग उतरता, झिलमिल चमकता

रातभर चाँद तक, चढ़ते थे सीढियां

झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ।। 


दौड़ते- भागते, हाँफते- खाँसते

दूर थी मंजिलें, जांचते- वाचते

देखी कब हमने, अपनी कुंडलियाँ

झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ।।


मोर है न पँख किन्तु, अंक में अंक है

घोष है समर का, कृष्ण सा शंख है

 लोरियाँ, झपकियाँ, थपकियाँ, थपकियाँ

झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ झुर्रियाँ।


अश्वमेघ यज्ञ सा, सूरज के रथ सा

बोल रहा तपस्वी, नक्षत्र यह छत्र का

सामने वेदियां,  भाल पर पोथियां

झुर्रियां झुर्रियां, झुर्रियां झुर्रियां।।


गीत अवसान का, अनुभवी तान का

ठहर जा ठहर जा,  भाव ये मान का

हाथ से आंख तक , तैर गई पीढ़ियां

झुर्रियां, झुर्रियां, झुर्रियां, झुर्रियां।।


✍️ सूर्यकान्त द्विवेदी

मंगलवार, 8 जून 2021

वाट्स एप पर संचालित समूह 'साहित्यिक मुरादाबाद ' में प्रत्येक मंगलवार को बाल साहित्य गोष्ठी का आयोजन किया जाता है । मंगलवार एक जून 2021 को आयोजित गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों प्रीति चौधरी, दीपक गोस्वामी चिराग, रवि प्रकाश, रेखा रानी, वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी",अशोक विद्रोही, कमाल ज़ैदी 'वफ़ा', धर्मेंद्र सिंह राजौरा,डॉ. रीता सिंह,इन्दु रानी,चन्द्रकला भागीरथी, सुदेश आर्य , कंचन खन्ना और राजीव प्रखर की कविताएं ------


सैर इस आसमाँ की कराओ परी 

चाँद के पास जाकर सुलाओ परी ।।1।।


 है वहीं माँ , बतायें मुझे सब यही

 अब चलो आज माँ से मिलाओ परी ।।2।।


  तुम सुनाकर कहानी मुझे गोद में 

  नींद भी नैन में अब बुलाओ परी  ।।3।।

   

  झिलमिलाते सितारे कहें  हैं  मुझे

  ज़िंदगी में नया गीत गाओ परी ।।4।।


 सीख अब मैं गयी बात यह काम की

 फूल से तुम सदा मुस्कुराओ परी ।। 5।।

                                     

✍️ प्रीति चौधरी, गजरौला, अमरोहा

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ऐनक लगा कर पुस्तक खोली ।

फिर गुड़िया मम्मी से बोली।

पढ़ना माँ मुझको सिखलाओ,

मेरी प्यारी हिंदी बोली।

है यह सबसे प्यारी भाषा।

सारे जग से न्यारी भाषा। 

'अ'अनार से आरंभ होकर, 

'ज्ञ' ज्ञानी बनने की आशा। 

क्या है 'स्वर-व्यंजन' समझाओ।

 सारे अक्षर मुझे पढाओ 

इन अक्षर  को कैसे लिखते ,

मुझको बारंबार सिखाओ।


 ✍️ दीपक गोस्वामी चिराग, बहजोई,  संभल

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मोबाइल पर पढ़ते बच्चे 

ऐसे   आगे   बढ़ते  बच्चे 

              

बिना परीक्षा अगली कक्षा 

घर   बैठे   ही  चढ़ते  बच्चे

              

बिना दोस्त के सँग में खेले 

नई   जिंदगी   गढ़ते   बच्चे 

              

खोया बचपन ,दोष समूचा

कोरोना   पर   मढ़ते  बच्चे


✍️ रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश)

मोबाइल 99976 15451

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जंगल भर में शोर मचा है,

भालू को कोरोना है।

 डरे हुए हैं वन्य जीव सब,

सहमा कोना - कोना है।

  भनक लगी  बंदर मामा को,

गहन सोच में डूब गए। 

 बहन लोमड़ी  भी चिंता में,

भालू भईया सूख गए।

जगह - जगह पर खड़े हुए,

बात यही सारे कहते।

 इंसानों वाली बीमारी 

भालू को हो गई कैसे।

 नन्हा सा खरगोश यह बोला,

इस सब का यह समय नहीं है।

 भालू जी की जान बचालो,

उनकी हालत सही नहीं है।

  बनी सहमति तब बोले सब 

  जाओ वैद्य जी को ले आओ।

 रुको- रुको नंबर है उनका,

उनको फौरन फ़ोन लगाओ।

बंदर मामा ने तब झट से ,

हाथी जी को फ़ोन लगाया। 

  बीमारी का सारा हवाला,

  फ़ोन पे ही उनको समझाया।

  हाथी राजा काढ़ा पुड़िया,

साथ में लेकर दौड़े आए।

 सबने देखा पीपीई किट में

 हाथी राजा नहीं समाए।

    नब्ज़ टटोली भालू जी की,

  खांसी बहुत ही उन्हें सताए।

 बहन लोमड़ी को पुड़िया,काढ़ा,

  देने की विधि भी समझाए।

 भाप भी देना बार बार तुम

उसके सारे महत्व बताए।

 काढ़ा पीकर ,पुड़िया लेकर ,

भालू जी अब स्वस्थ हुए।

 जीवों की एकता के आगे 

कोरोना जी पस्त हुए।

कान पकड़ कर भालू जी ने

 दृढ़ निश्चय इस बार किया।

 सर्कस में जाना नहीं मुझको,

 संग में सबके रहकर रेखा

फिर से स्वप्न संजोना है।

जंगल भर में  शोर मचा है

भालू को कोरोना है।


✍️रेखा रानी, गजरौला

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एक  सपेरा   साँप   पकड़ने,

अपने    घर    पर      आया,

सब बच्चों को हाथ जोड़कर,

उसने        यह     समझाया,


बोला   जहरीली  नागिन  में,

गुस्सा      बहुत    भरा     है,

मेरा  दिल भी  इसके   आगे,

सच    में     डरा-डरा      है।


बीन बजाकर  हाथ  नचाकर,

घंटों         उसे         रिझाया,

कैसे  पकडूं  इस  नागिन को,

समझ    न    उसके    आया।


स्वयं   सपेरे   ने   बच्चों   को,

आकर        यह      बतलाया,

पास  नहीं  जाना  मैं   जाकर,

अंकुश       लेकर        आया।


तभी   सपेरे    ने  अंकुश   में,

उसका        गला      फसाया,

डिब्बे   में कर  बंद  उसे  सब,

बच्चों        को     दिखलाया।


बच्चों  ने  अंकल  को  सबसे,

बलशाली              बतलाया,

कोई   छोटा  भीम, किसी  ने,

साबू          उसे       बताया।


बच्चों   की   सुंदर   बातों  ने,

सबका       मन      बहलाया,

हाव-भाव को देख  सभी  को,

मज़ा      बहुत    ही    आया।

       

 ✍️ वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी", मुरादाबाद/उ,प्र,

 मोबाइल 971927545

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नानी का घर हमको प्यारा

खुशियों का संसार हमारा

           छुट्टी में जब हम हैं जाते 

           नाना नानी खुश हो जाते

           अपनी बहुत प्रतीक्षा करते

           दोनों प्यार बहुत हैं करते 

           मैं नानी की राजदुलारी

          और भैया है राज दुलारा

नानी का घर हमको प्यारा

खुशियों का संसार हमारा

           नानी के घर दो गैया हैं

           एक बहना और एक भैया है

           मामा रोज जलेबी लाते

           सब मिल दही जलेबी खाते

           उधम मचाते कभी झगड़ते 

           खाते कसम ना आएं दोबारा

नानी का घर हमको प्यारा

खुशियों का संसार हमारा

           नहर किनारे बसा गांव है

           शुद्ध हवा और धूप छांव है

           नाना संग खेत पर जाते

           नलकूप के पानी में नहाते 

           फिर बागिया से अमियां लाते

          अजब खेत और ग़ज़ब नज़ारा

नानी का घर हमको प्यारा

खुशियों का संसार हमारा नाना

         पर इस बार नहीं जा पाए

         कोरोना ने होश उड़ाए

         बहुत भयंकर बीमारी है

         घोषित हुई महामारी है

         अखिल विश्व इससे है हारा

          पूछो मत कितनों को मारा

नानी का घर हमको प्यारा

खुशियों का संसार हमारा

        अबकी अरमां मिल गए माटी

        सारी छुट्टी घर में काटी

        कोरोना से सब हैं बेदम

        केवल घर में कैद हुए हम

        ऊब गये हैं पढ़ते पढ़ते

        होते बोर रहे दिन सारा

नानी का घर हमको प्यारा

खुशियों का संसार हमारा

       मिलने से मजबूर हो गए 

       नाना-नानी दूर हो गए

       हे प्रभु अब तो दया दिखाओ

       कोरोना को मार भगाओ

       दुखी हो रहे नाना नानी

       निशदिन रस्ता तकें हमारा

नानी का घर हमको प्यारा

खुशियों का संसार हमारा

    

✍️अशोक विद्रोही, 412 प्रकाश नगर, मुरादाबाद 

82 188 25 541

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बन्दर ने सबको बहकाया,

जमकर के उत्पात मचाया।


लोकतंत्र का है यह ज़माना,

अब न किसी से है घबराना ।


भालू ने काफी समझाया,

बन्दर की पर समझ न आया।


जंगल मे फिर शोर मचाया,

जोर जोर से गाना गाया।


डाली डाली उछला कूदा,

करता रहा हरकत बेहूदा।


शेर ने जब चिंघाड़ लगाई,

नानी याद बन्दर को आई।


भालू ने फिर मुह को खोला,

बन्दर से चुपके से बोला।


सब मानेगे, देर सवेर,

जंगल का राजा है शेर।


जिसके राज में सबकी खैर,

वो राजा है असली शेर।


✍️कमाल ज़ैदी 'वफ़ा'

प्रधानाचार्य, अम्बेडकर हाई स्कूल बरखेड़ा (मुरादाबाद), मोबाइल फोन नम्बर 9456031926

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छोटे  छोटे  रंग  बिरंगे 

इस दुनिया में कीट पतंगे 

मधुमक्खी शहद बनाये 

भौरा गुन गुन गुन गाये 


बड़ा कटीला है ततैया 

इससे बचकर रहना भैया 

तितली होतीं बड़ी निराली 

सफ़ेद पीली नीली काली


✍️धर्मेंद्र सिंह राजौरा, बहजोई

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चिड़िया रानी गीत सुनाती

चीं चीं चूँ चूँ बात बनाती

सिर पर चढ़ आया है सूरज

सोया मुन्ना उसे जगाती ।


उठो सवेरा यही सिखाती

कितनी सुंदर भोर बताती 

नहीं देर तक सोना अच्छा

ऐसा सबको पाठ पढ़ाती ।


आँगन आती नजर घुमाती

पानी में भी खेल खिलाती

कभी मुंडेर कभी पेड़ पर

फुदक फुदक है नाच दिखाती ।


✍️डॉ. रीता सिंह, आशियाना, मुरादाबाद

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बच्चे नन्हे फूल से ,घर बगिया की शान।

सींच रहे हैं यह धरा,दाता पौधे जान।।


नन्हे नन्हे हाथ हैं, नन्हे पग औ चाल।

पौध लगा कर कर रहे,देखो बड़े कमाल।।


संगी साथी साथ ले, होंठों पर मुस्कान।

बगवानी में जुट गए ,कृषक स्वयं को मान।।


बच्चा-बच्चा दे रहा,धरती को सम्मान।

भावी पीढ़ी पर रहा, सब को ही अभिमान।।


✍️इन्दु रानी, मुरादाबाद

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बचपन बड़ा सुहाना है

बच्चे मन लुभाते है

कई खिलौने होते उन पर

फिर भी शोर मचाते है

बचपन बड़ा सुहाना है।।


हैलिकाप्टर मोटर कार

ये चलाते वे कई बार

धनुष चलाते सोटा दिखाते

फिर भी ऐठ दिखाते हैं

बचपन बड़ा सुहाना है।।


गुडडे गुड़ियों का विवाह करते

छोटे बर्तनों में खाना बनाते

कभी लुका छुपी कभी दौड़ भाग

सारे दिन उद्धम मचाते है

बचपन बड़ा सुहना है।।


गर झुनझुना मिल जाए

बच्चा खूब नाचता गाता है

कभी दद्दू के पास जाकर

झुनझुना उनकों दिखाता है

ऐसी उसकी हरकत देख

सबका मन प्रफुल्लित हो जाता है।

बचपन बड़ा सुहाना है।।


✍️चन्द्रकला भागीरथी

धामपुर जिला बिजनौर

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न होती- कभी पढ़ाई,

होती न कभी -लिखाई। 

कभी जान -'न पाते,

दुनियाभर की- हम सच्चाई। 

 वर्णमाला हिन्दी -की सीखी,

अंग्रेजी की-  alphabet भी सीखी

सारे विषय -हमने पढ़कर,

जानी जग- की रीति।

कभी विज्ञान -को पढ़के ,

कुछ अनुसंधान- भी करके।

मानचित्र भी- हमने जाना,

भूगोल को- भी पढ़के।

मातृभाषा के -द्वारा हमने,

सीखा सब- आपसी वार्तालाप 

गणित के द्वारा -सीखा लेन देन

और जाना'- तोल व नाप।

बुद्धि से हम- बढ़े न होते,

रह जाते-  गंवार अनपढ़।

धन्य धन्य हैं-माता पिता जिन्होंने,

शिक्षा की ज्योति- जलाई हमपर।


✍️ सुदेश आर्य , मुरादाबाद

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मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त की कहानी ---परीक्षा । यह कहानी सन 1943 में पृथ्वीराज मिश्र द्वारा अपने अरुण प्रकाशन से प्रकाशित उनके कहानी संग्रह श्रंखलाएं से ली गई है ।

 


बनारस अब भी हिन्दुत्व का दुर्ग है। सुना जाता है कि दर्शक के मस्तिष्क पर काशी के दर्शन मात्र से ही पवित्र भावनाओं की छाप लग जाती है। पीतल के उच्च कलशों के बुर्ज आकाश से संदेश लेते हुए प्रतीत होते हैं। उनकी तेज चमक ऐसी मालूम होती है, जैसे विधाता उनपर आशीर्वाद कर फेर रहा हो, और मानों सूर्य की किरणें अंधेरा होने पर उन्हीं कलशों पर सो जाती हों। मन्दिर को देखकर मानव के स्मृति इतिहास के उन पन्नों की ओर एकाएक दौड़ जाती है, जिनमें काशी का सुनहरा अतीत, उसके महत्त्व की गाथाएँ अन्धविश्वासी प्रश्न से परे श्रद्धा से संचित हैं। काशी की गलियाँ पाण्डित्य के ललाट पर उभरी हुई संकीर्णता की रेखाओं-सी फैली जान पड़ती हैं । यहाँ के वातावरण में कट्टर धर्मावलम्बी को, शक्ति तथा उदार विचार वाले व्यक्ति को क्षोभ तथा ग्लानि मिलती हैं ।

    गङ्गा के किनारे दीप से बसे हुए इसी नगर की यह एक पुरानी कहानी है। अंधेरा हो चुका था। ठीक वही समय था, जबकि बालाखानों से सितार की झंकारें और कामिनीकण्ठ की मीठी-मीठी तानें सड़क पर चलने वालों के दिलों को चंचल कर देती हैं। इन घरों में रात को ही वसन्त आता है। दिन का प्रकाश कृत्रिमरूप से यहाँ पैदा किये जाने का विराट प्रयत्न देखने को मिल सकता है। तुम्हारे अनुसार नरक के अंधेरे गन्दे कोने इसी समय स्वच्छ और आलोकित दिखलाई देते हैं। मैं ऐसे ही समय की बात कह रहा हूं जबकि ऊंचे कमरों के जीने खुले हुए, मेहमानों को बुलाने के लिये संकेत करते हुए मालूम होते हैं।

     तुम उसका नाम और पता जानने चाहते हो। मैं किसी के रहस्य को खोलने के लिये तैयार नहीं। तुन्हें इसी से सन्तोष कर लेना चाहिये कि उस देवाङ्गना का नाम कनक और पेशा परमार्थ था। शायद तुम मेरा मतलब ठीक-ठीक समझ गये होंगे। इस युग में इसी तरह रहना तो चाहिये। वह अप्सरा का सौन्दर्य और कंठ में गन्धर्व कुमारी का स्वर लिये पैदा हुई थी। वह इस व्यवसाय में कैसे आई, उसकी माता भी एक अप्सरा रही होगी, कौन कह सकता है। उसके यौवन का उभार बीस वसन्त ऋतुओं का मद और उन्माद, राग से अनुराग विजय और प्रभुता लिये हुए था। उसको महफिल में काशी के पूज्य पण्डित, शमा पर परवाने से जलते हुए देखे जा सकते थे। सम्भव है कि वे अपने विराग की परीक्षा लेने ही आते हों।

       नर्तकी भी वह साधारण नहीं थी। उसके पदाक्षेप से नृत्य का अस्तित्व स्थिर किया जा सकता था। उसके चरण चरण पर जीवन उठता और गिरता। दिशाएँ तन्मयता से नृत्य के संगीत को कान उठाये सुनतीं और उसके नृत्य को देखने ही के लिये आसमान पर तारे अपने घरों से बाहर निकल आते मालूम होते थे। वह गा रही थी--

रति सुख सारे गतमभिसारे मदन मनोहर वेशं । 

न कुस नितंबिनि गमन विलम्बनुसरतं हृदयेशं ||

धीर समीरे यमुना तीरे वसति बने बनमाली || 

    श्री जयदेव के लिए इस से बढ़ कर क्या प्रशंसा हो सकती है ? उनकी दिवंगतात्मा अपनी कृति के इस प्रचार पर कितनी प्रसन्न होती होगी ! काश, श्री जयदेव आज हमारे मध्य में होते और उस अप्सरा को अपने गीत गोविन्द को इस प्रकार गाते हुए सुनते ?

   इस समय कनक की सभा में पण्डित, वेदव्रती, धनिक, जौहरी, प्रोफे सर, डाक्टर, बैरिस्टर, सट्टेबाज़, कला विशारद तथा संगीत प्रेमी भिन्न भिन्न प्रकार की रुचि के नमू ने इकटठे थे । नर्तकी नाचती और गाती जाती थी और उसके सभासद गरम दिल से अपनी जेबें ठण्डी करते जा रहे थे। वह नाज़ के साथ अपने दाता पास आती और नाचती हुई, दिये हुए उपहारों को ले जाती थी। सहसा दर्शक मण्डली की आँखें एक कषाय वस्त्रधारी सजीव मनुष्य प्रतिमा की ओर उठ गई । एक भिक्षुक उस मंडली में घुस आया था । दर्शक भला इस बात को कैसे सहन कर सकते थे, अगर उस समय तुम भी वहाँ होते, तो शायद आग-बबूला हो गये होते, और उन्हीं लोगों की तरह उसे बाहर निकालने पर उतारू हो जाते ।उसको नाच देखने की दावत देना भला कौन-सा शिष्ट व्यक्ति उचित समझ सकता था। नायिका ने आगे बढ़कर संन्यासी को भीतर आने से रोका। उसने व्यंग करते हुए कहा- क्या यहाँ कोई सदाव्रत खुला हुआ है ? यह धर्मशाला नहीं है ।सन्यासी ने उत्तर दिया – 'हाँ जानता हूँ, धर्मशाला नहीं घनशाला है। जो यहाँ का कर अदा कर सकेगा वही बैठने का अधिकारी होगा। पैसे से वेश्या तो खरीदी ही जा सकती है । 

   सभा में बैठे हुए जौहरी ने तड़क कर कहा- "बड़ा आया है खरीदने वाला| दिन भर पैसा पैसा भीख माँगा किये और रात को चल दिये नाच देखने । बोलो,कै पैसे भीख में पाये ?"

   सन्यासी ने किन्चित रोष भरे स्वर में उत्तर दिया- “मैं तुम्हारी जैसी कितनी ही सभाओं को खरीद सकता हूँ । ( नर्तकी की ओर संकेत करते हुए ) बोलो, तुम्हें इन सबसे तथा दूसरे और व्यक्तियों से क्या मिल जाता है ?

नर्तकी ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया- 'यही 2000 रु० मासिक।," सन्यासी ने कहा – 'मैं तुम्हें 4000 रु० मासिक दूंगा, किन्तु एक शर्त के साथ | तुम्हें इन सब उपस्थित व्यक्तियों को यहाँ से निकाल देना होगा, और तुम बिना मेरी आज्ञा के किसी पुरुष से नहीं मिल सकोगी और कहीं भी आ जा न सकोगी ।. जब तक मैं तुम्हें निश्चित वेतन देता रहूँगा तब तक तुम्हें इस शर्त को मानना पड़ेगा। हारने पर जितना रुपया मेरा तुम्हारे पास पहुंचेगा, वह सब तुम्हें वापस करना होगा । नर्तकी ने हँसी खुशी के साथ संन्यासी की शर्त मंजूर कर ली । सन्यासी ने एक हीरे की माला अपने कथन को प्रमाणित करने के लिए नर्तकी को उसी समय भेंट कर दी। नर्तकी के मेहमान एक-एक कर जीने की सीढ़ियां नीचे  जाते हुए आखिरी बार गिन रहे थे ।

  नर्तकी को विश्वास था कि वह इस शर्त में अवश्य जीत जायगी और सन्यासी कुछ महीनों तक या अधिक से अधिक कुछ वर्षों तक इतनी बड़ी रकम को देकर अपनी मूर्खता का अनुभव करने लगेगा और फिर एक बार वह धनी होकर अपनी आज़ादी का भी आनन्द ले सकेगी। संन्यासी समझता था कि नर्तकी फिर भी एक वेश्या है। धन उसकी प्यास को नहीं बुझा सकता । वह सोने के पिंजड़े में बन्द पक्षी की तरह निर्बन्ध होकर मुक्त वातावरण में जाने के लिए बेचैन रहेगी । वह अपना वचन नहीं निभा सकेगी और अन्त में जो कुछ उसका धन नर्तकी के पास पहुँचेगा वह सब मुझे वापिस मिल जावेगा।

    सन्यासी ने एक कोठी में नर्तकी के रहने का प्रबन्ध कर दिया। केवल उसकी नायिका उसके साथ थी । उस कोठी के साथ एक बगीचा भी था । नर्तकी को बगीचे से बाहर कदम रखने की आज्ञा न थो । कोठी की चहार दीवारी इतनी ऊँची थी कि बाहर का चलता-फिरता कोई भो पुरुष नर्तकी को दिखलाई नहीं दे सकता था। सेविकाएँ नर्तकी की सुविधा का ध्यान रखती थीं। भोजन तथा हर प्रकार का प्रबन्ध केवल दासियों के हाथ में था।

     नर्तकी रानी की तरह सब आराम पाती थी। कोई राजा उससे बात करने के लिए उसके महल में नहीं आ सकता था । संन्यासी स्वयं भी कभी कोठी के अन्दर नहीं जाता था। यद्यपि नर्तकी ने कई बार सन्यासी को दासियों द्वारा बुलवाया, लेकिन संन्यासी ने इन्कार कर दिया ।

  इसी तरह उदासी के साथ नर्तकी के दिन व्यतीत होने लगे | दो महीने नर्तकी ने सन्यासी की प्रतीक्षा में काटे । अव उसको पूर्ण विश्वास हो गया कि सन्यासी नहीं आयेगा। शेष 10 महीने नर्तकी ने बगीचे में तरह-तरह के फूलों के पौधे लगाने में और कोठी को सजाने में व्यतीत किये । दूसरे वर्ष नर्तकी बराबर नाचने और गाने का अभ्यास करती थी। ऐसा जान पड़ता था कि वह सङ्गीत और नृत्य से कलात्मक प्रेम करने लगी है और उसके चरण उत्कर्ष तक पहुँचने के लिए अनवरत प्रयत्न कर रहे हैं। तीसरे वर्ष में नर्तकी ने कृष्ण की एक मूर्ति स्थापित की । अब वह स्वयं राधा बन कर, कभी गोपी बनकर, कभी कुब्जा बनकर, कभी अपने को मीरा समझकर उस मूर्ति के सामने विरह प्रेम के गीत गाती हुई नाचती रहती थी। उसके गीतों में वेदना भरी हुई थी । कृष्ण को वह काल्पनिक प्रियतम समझ कर अपनी पाशविक कामना, तृष्णा और मोह की तृप्ति कर लेती थी। उसके पिछले जीवन के संस्कार इस तरह रहने पर भी उसको व्यग्र कर डालते थे, किंतु जिस प्रकार से मनुष्य की अतृप्त कामनाएं रात्रि 

में स्वप्नों मेंजगकर अपनी तृप्ति कर लेती हैं उसी तरह से पार्थिव वासना की भूख मानसिक भोजन पाकर तृप्त हो जाती थी। कई वर्षों के निरन्तर कार्यक्रम के बाद एक रात उसे बोध हुआ, अब वह रागिनी नहीं वैरागिनी हो गई। उसका प्रेम शरीर से उठकर आत्मा तक पहुँच गया था ! अब वह लोकोत्तर आनन्द में झूमती और वशीभूत रहती थी ।

   अब वह अपने यौवन के दस वर्ष समाप्त कर चुकी थी। जहाँ एक बार उदात्त तरंगों की दौड़ मची रहती थी वहाँ अब ठंडी रेणुका रह गई थी। अब उसके बाल श्वेत हो गये थे। उसकी आकृति तथा प्रकृति इतनी बदल गई थी कि वह किसी ज़माने में एक नर्तकी होगी. अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता था । पाँच वर्षों के निरन्तर गम्भीर तपस्या के बाद उसकी सारी इच्छाएं नष्ट हो गई। पहले उसका मन बराबर किसी न किसी पुरुष को देखने के लिए उत्कंठित रहता था। कभी-कभी वह सोचने लगती थी कि इस प्रकार के धन से क्या हृदय की तृष्णा बुझ सकी है ? क्या यौवन का अंत धन है ? वह ऐसे जीवन से उक्ता उठती थी, किन्तु अब वह बिलकुल बुझे हुए ज्वालामुखी के समान शांत और स्थिर थी । सन्यासी को एक दिन नीचे लिखा हुआ नर्तकी का पत्र मिला 'गुरुदेव,

मैं जीवन भर इसी प्रकार यहाँ रह सकती हूँ, मेरी सम्पूर्ण इच्छाएँ पूर्ण हुई सी जान पड़ती हैं, क्योंकि अब कोई इच्छा मेरे हृदय में शेष नहीं रह गई है। मेरी इच्छा किसी पुरुष तो क्या स्त्री के साथ की भी नहीं होती। मैं अकेली मृत्यु तक यहीं रह सकती हूँ | मैंने अपनी स्वतन्त्रता, अपना जीवन, केवल धन के लिए उन शर्तों के हाथ सौंप दिया था, लेकिन मैं अब इस नतीजे पर पहुँची हूँ कि संसार में मुझे किसी भी चीज़ की ज़रूरत नहीं है। जिस धन के लिए मैंने यह सब बन्धन स्वीकार किये थे, अब मुझे उसकी भी ज़रूरत नहीं मालूम होती, मैं तुम्हें धन्यवाद देती हूँ कि तुमने मुझे सच्चा रास्ता दिखा दिया इसलिए मैं उस शर्त को जानबूझ कर तोड़ रही हूं कि जिससे जो धन आज तक तुमने मुझे दिया है, यह सब तुम्हारे पास बापस पहुंच जाय। यह मैं स्वयं बिना पत्र लिखे भी कर सकती थी, किन्तु मैं यह पत्र इसलिए लिख रही हूँ कि तुम्हारे पास एक प्रमाण-पत्र मौजूद रहे और संसार तुम्हें ऐसा करने के लिए दोषी न कह सके ।

मैं हूँ तुम्हारी उपकृता ।

   जब संन्यासी को यह पत्र मिला, तो उसके हर्ष का वारापार न रहा । रअगले दिन सुबह उसने 15 वर्ष पहले नर्तकी की सभा में बैठे हुए जौहरी महाशय को अपने पास बुलवाया और उन्हें लेकर कोठी के अन्दर नर्तकी का पता लगाने के लिए गया । नर्तकी रात में कोठी से गायब हो चुकी थी। सन्यासी ने जौहरी को नर्तकी का वह पत्र दिखलाया और नायिका से अपने कुल दिये हुए रुपये वापस ले लिये ।


:::::: :प्रस्तुति::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822


मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ पूनम बंसल का गीत -----गन्ध लुटाते फूल सिखाते हंसते हंसते जिया करो ......


 

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम ने 6 जून 2021 को आयोजित की गूगल मीट पर काव्य-गोष्ठी

 साहित्यिक संस्था हिन्दी साहित्य संगम के तत्वावधान में  रविवार 6 जून 2021 को गूगल मीट के माध्यम से  काव्य-गोष्ठी का आयोजन किया गया। राजीव प्रखर द्वारा प्रस्तुत माँ शारदे की वंदना से आरंभ हुए इस कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ कवयित्री डॉ. पूनम बंसल ने की एवं मुख्य अतिथि के रुप में वरिष्ठ कवि श्रीकृष्ण शुक्ल उपस्थित रहे जबकि कार्यक्रम का संचालन जितेंद्र जौली ने किया। 

कार्यक्रम में वरिष्ठ कवयित्री डॉ. पूनम बंसल की अभिव्यक्ति कुछ इस प्रकार रही - 

जीवन के तपते मरुथल में माँ गंगा की धार है। अनसुलझे प्रश्नों के उत्तर माँ गीता का सार है।। 

कवि श्रीकृष्ण शुक्ल का कहना था  - 

 रात भले हो घोर अँधेरी, 

 उसकी भी सीमा होती है, 

 रवि के रथ की आहट से ही

  निशा रोज ही मिट जाती है। 

अशोक विद्रोही ने कहा - 

वनस्पति ,जंतु जगत, जलवायु मिल जाय। 

इन सबका  संतुलन ही, पर्यावरण कहाय।।

वरिष्ठ कवि शिशुपाल मधुकर ने अपना दर्द कुछ इस प्रकार बयां किया - 

 झूठ कहूँ तो मिलती इज़्ज़त, 

 सच बोलूँ तो गाली। 

 छोड़ के असली, दुनिया हो गयी, 

 नक़ली की मतवाली।।

डाॅ. मनोज रस्तोगी  की अभिव्यक्ति कुछ इस प्रकार रही - 

सुन रहे यह साल आदमखोर है । 

हर तरफ बस चीख दहशत शोर है ।। 

मत कहो यह वायरस जहरीला बहुत, 

आदमी ही आजकल कमजोर है।। 

नवगीतकार योगेन्द्र वर्मा व्योम ने अपनी अभिव्यक्ति कुछ इस प्रकार की - 

चलो निराशा के ऊसर में 

एक हरापन रोपें भीतर। 

क्षणिक लाभ के लिए

 त्यागकर मानवता, 

 संवेदन सब कुछ 

 छल-फरेब ने गढ़े 

 स्वार्थ के कीर्तिमान, 

 सम्मोहन सब कुछ। 

 लुगदी-सी हो चुकी सोच में, 

 एक भलापन रोपें भीतर ।

 राजीव प्रखर ने कहा -

 दूरियों का इक बवंडर, जब कहानी गढ़ गया। 

 मैं अकेला मुश्किलों पर तान सीना चढ़ गया। 

 हाल मेरा जानने को फ़ोन जब तुमने किया, 

 सच कहूँ तो ख़ून मेरा और ज़्यादा बढ़ गया। 

 डॉ. रीता सिंह ने समाज को चेताते हुए कहा - कंकड़ पत्थर के जंगल में, 

तरूवर छाँव कहाँ से लाऊँ। 

तपस में तपती मीनारों की, 

कैसे अब मैं तपन मिटाऊँ ।

 कवयित्री इंदु रानी का कहना था -

  कोरोना यह लिख गयो, सबके मन के द्वार। वृक्षारोपण हो परम ,आक्सीजन आधार।।

 जितेंद्र जौली ने परिस्थितियों का चित्र कुछ इस प्रकार खींचा - 

कोरोना को मात दें, हम अब मिलकर संग।

 अपना भारत लड़ रहा, कोरोना के जंग।। 

 कवि प्रशांत मिश्र का कहना था  -

 जब अपना ही घर लूट लिया देश के गद्दारों ने, जनता खड़ी देखती रही सिमटी अपने किरदारों में। 

 कार्यक्रम में  विकास मुरादाबादी एवं मोनिका मासूम ने बतौर श्रोता उपस्थित रहकर सभी का उत्साहवर्धन किया। राजीव प्रखर द्वारा आभार अभिव्यक्त किया गया ।

सोमवार, 7 जून 2021

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त का कहानी संग्रह ---श्रंखलाएं । इस कृति में उनकी 17 कहानियां संगृहीत हैं । इस कृति का प्रकाशन पृथ्वीराज मिश्र ने सन 1943 में अपने अरुण प्रकाशन द्वारा किया था ।


 

क्लिक कीजिए और पढ़िये पूरा कहानी संग्रह

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::::::::::प्रस्तुति:::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8,जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में दिल्ली निवासी)आमोद कुमार की नज़्म ---कुदरत का पैगाम दुनिया की महाशक्तियों के नाम ......


 

मुरादाबाद के साहित्यकार वीरेंद्र सिंह बृजवासी का गीत -----करें प्रतिज्ञा सबको मिलकर सौ-सौ पेड़ लगाना होगा


डाली  -  डाली, पत्ती -  पत्ती

का  एहसान   चुकाना  होगा

विकसित होती  हुई जड़ोंको

मिलकर  हमें  बचाना  होगा।

          ---------------

पेड़  सभी के  लिए  धरा पर

जीवन काअनमोल  खजाना

जो भी नहीं  समझता इनको

उसका व्यर्थ  जगत में आना

अभी  समय  है  चेतो  वरना

रो-रोकर   मर  जाना   होगा।


हरियाली   आनंदित   करती

सभी दिलों में खुशियां भरती

आंखों  को  शीतलता  देकर

मन   में   नई   उमंगें   धरती

इन्हें  नष्ट  करने  का  मन  में

किंचित भाव न  लाना  होगा।


यह  पर्वत  को  जकड़े  रहते

नदियों का  तट  पकड़े  रहते

आंधी,   पानी,   सैलावों   से

टक्कर   लेने   अकड़े   रहते

हैं  जग  के  रखवाले  इनको

कभी  नहीं  बिसराना  होगा।


सांस-सांस पर इनका हकहै

इसमें भी क्या  कोई  शक है

बेरहमी  से  इन्हें   काट  कर

करी व्याधियों की आवक है

अपने  हित में  सच्चाई   को

कभी  नहीं  झुठलाना  होगा।


मौसम भी इन पर  निर्भर है

वृक्ष  बिना  धरती  बंजर  है

सूखा  झेल  रहे  मानव  की

देह   हुई   अस्थी   पंजर  है

हरियाली चहुं ओर बिछाकर

स्वर्ग  धरा  पर  लाना  होगा।


खुशहाली ही  खुशहाली  हो

नहीं  कहीं भी  बदहाली  हो

रंग   बिरंगे   गुलदस्तों   की

महक बड़ी ही  मतवाली हो

करें प्रतिज्ञा सबको मिलकर

सौ-सौ  पेड़   लगाना  होगा।

✍️ वीरेन्द्र सिंह "ब्रजवासी"

      मुरादाबाद/उ,प्र,

       9719275453

               

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा की साहित्यकार रेखा रानी की रचना ---- धरती माँ तेरी पीड़ा .....


 

रविवार, 6 जून 2021

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ पूनम बंसल का मुक्तक ----अगर क़ुदरत बिगड़ती है, तबाही फिर मचाती है

 


बनी है मीत साँसों की, परम वायु बहाती है। 

नहीं कुछ मोल लेती है, ख़जाने ये लुटाती है। 

करें इसको सुरक्षित हम, समय है जाग जाएं अब 

अगर क़ुदरत बिगड़ती है, तबाही फिर मचाती है।। 

✍️ डॉ पूनम बंसल, मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई के दोहे ----



1, हरियाले वन हैं सदा,जीवोँ का आवास,

    निश्चित इनके छरण से,पर्यावरण विनाश ।

2,  शुद्ध हवा,निर्मल गगन,वर्षा हो भरपूर,

     ऐसा ही पर्यावरण, है हमको मंजूर ।

3,  वन्य जीव सेवार्थ जो,करे त्याग बलिदान,

     ऐसा मानव ही सदा, होते यहां महान।

4,  जीव संरक्षित हों सभी, ऐसा करो प्रयास,

     जीव हमारे मित्र हैं, करियेगा विश्वास ।


✍️अशोक विश्नोई, मुरादाबाद , मो ० 9411809222

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ अर्चना गुप्ता की रचना ----- हर साल जन्मदिन पर तब से, पौधा नया लगती थी ....


 

मुरादाबाद मंडल के जनपद सम्भल निवासी साहित्यकार दीपक गोस्वामी चिराग की रचना --- हूँ मैं जननी तेरी, हूँ मैं धरिणी धरा ...


 


मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विद्रोही की कुण्डलिया ---वनस्पति ,जंतु जगत, जलवायु मिल जाय, इन सबका संतुलन ही, पर्यावरण कहाय।।


वनस्पति ,जंतु जगत,

         जलवायु मिल जाय।

इन सबका  संतुलन ही,

           पर्यावरण कहाय।।

पर्यावरण  कहाय ,  

       हरे मत  विरवे   काटो,

वन्य जगत के जीवों,

        को  भी जीवन बांटो।

विद्रोही जीवन   की  ,

          वर्ना    होय दुर्गति ।

 प्राणवायु हो शून्य , 

      यदि न रहे   वनस्पति।।


✍️ अशोक विद्रोही, मुरादाबाद

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा की साहित्यकार प्रीति चौधरी की रचना ---- वृक्ष की तब आँचल फैलाती है शीतल छांव


जब थके हों 

पसीने से बेहाल

ढूँढें सहारा


वृक्ष की तब

आँचल फैलाती है

शीतल छांव


बहती हवा

दूर करती पीड़ा

सहला ज़ख़्म


चलते फिर

जीवन सफ़र में

ताजगी भर


सहारा देते

जो वृक्ष हमें सदा

नमन उन्हें 

 ✍🏻 प्रीति चौधरी, गजरौला,अमरोहा

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार ओंकार सिंह विवेक के दोहे ------बार-बार विनती करें,बरगद-शीशम-आम, मानव हमको काट मत, हम आएँगे काम


माना आवश्यक हुआ , सड़कों का विस्तार,

किंतु न हो इसके लिए, पेड़ों  पर नित  वार।       


बार-बार  विनती  करें,बरगद-शीशम-आम,

मानव  हमको काट  मत, हम आएँगे  काम


देते   हैं  हम   पेड़  तो ,  प्राणवायु  का  दान,

फिर  क्यों  लेता है मनुज, बता हमारी जान।

    

देते  हैं  ये   पेड़  ही   , घनी  छाँव, फल-फूल,

इन्हें काटने की मनुज,मत कर प्रतिपल भूल।


पेड़ो  की  लेकर  सतत ,  निर्ममता  से  जान,

मत कर अपनी मौत का, मानव  तू सामान।


सबसे   है    मेरी    यही  ,  विनती   बारंबार,

पेड़  लगाकर   कीजिए , धरती  का  शृंगार।


 ✍️ ओंकार सिंह विवेक, रामपुर

मुरादाबाद मंडल के बहजोई (जनपद सम्भल ) के साहित्यकार धर्मेंद्र सिंह राजौरा की रचना ---- वृक्ष धरा का आभूषण हैं इनको मत काटो प्यारे

 


वृक्ष धरा का आभूषण हैं 

इनको मत काटो प्यारे 

हर लेते सारा प्रदूषण हैं 

इनको मत काटो प्यारे


लकड़ी फूल  फल देते 

देते प्राणवायु हम सबको 

करते हम सबका पोषण हैं 

इनको मत काटो प्यारे 


जनम से लेकर मृत्यु तक 

काम हमारे आते हैं ये 

ये सृष्टि का आकर्षण हैँ 

इनको मत काटो प्यारे 


वृक्ष ना होते अगर धरा पर 

सोचो क्या जीवन संभव था 

ये लाते शीतल वर्षण हैँ 

इनको मत काटो प्यारे 

✍🏻 धर्मेंद्र सिंह राजौरा, बहजोई

मुरादाबाद के साहित्यकार श्रीकृष्ण शुक्ल का गीत --सोचो तो इस धरती माँ का हम पर कितना कर्ज है-


सोचो तो इस धरती माँ का हम पर कितना कर्ज है।

और हमारा धरती के प्रति सोचो क्या क्या फर्ज है।


हमको धरती से ही जीवन के सब साधन मिलते हैं।

अन्न और जल, वायु आदि सब इसके आँगन मिलते हैं।

लेकिन फिर भी देखो मानव ये कितना खुदगर्ज है।

सोचो तो इस धरती माँ का हम पर कितना कर्ज है।


हमने वृक्ष काटकर धरती माँ को कितने घाव दिये।

बाँध बनाकर नदियाँ रोकीं ताल तलैया पाट दिये।

अंधाधुंध गंदगी करके सोच रहे क्या हर्ज है।

सोचो तो इस धरती माँ का हम पर कितना कर्ज है ।


घोर प्रदूषण करके हमने नदियां दूषित कर डालीं।

उद्योगों से धुंआ धुंआ कर वायु प्रदूषित कर डाली।

हम सबका व्यवहार वस्तुतः अब धरती का मर्ज है।

सोचो तो इस धरती माँ का हम पर कितना कर्ज है ।


समय आ गया है धरती के जख्मों को भरना होगा।

वृक्ष लगाकर हरियाली से हरा भरा करना होगा।

वायु और जल स्वच्छ रखें अब यही हमारा फर्ज है।

सोचो तो इस धरती माँ का हम पर कितना कर्ज है ।

✍️श्रीकृष्ण शुक्ल, MMIG-69, रामगंगा विहार, मुरादाबाद 

मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ मक्खन मुरादाबादी का गीत ---मिटा रहे हैं उनको ही हम जिन-जिनका करना था पूजन-


मिटा रहे हैं उनको ही हम

जिन-जिनका करना था पूजन।


वृक्ष हमारे देव तुल्य हैं

इनमें बसी हमारी सांसें।

कैसे हमको सांसें दें, ये

रोज़ कटन को अपनी खांसें।।

हवस हमारी खा बैठी है

हर पंछी का कलरव कूजन।


जल जीवन है, कहते लेकिन

जल के स्रोत स्वयं ही प्यासे।

सब पट्टों में कटे पड़े हैं

मुंह दुबकाये सकल धरा से।।

इन्हें बांटकर निगल गये हैं

इधर-उधर के चतरू जन।।


पर्वत भी डकराये हैं, जब

उनको काट सुरंगें निकलीं।

कांप रहे हैं अब भी निशि दिन

सड़कें आकर इनमें टिकलीं।।

धाराओं से रोये हैं ये

उतरी नहीं आंख की सूजन।

✍️ डॉ मक्खन मुरादाबादी, नवीन नगर, कांठ रोड, मुरादाबाद 

मुरादाबाद के साहित्यकार मनोज वर्मा मनु के दोहे -----देव तुल्य हो वृक्ष तुम, तुमको सतत् प्रणाम


जीवन की इक हम कड़ी, वृक्ष दूसरा छोर। 

इन दोनों पर ही टिकी, इस जीवन की डोर।।


सुनो वृक्ष भी चाहते, प्यार भरा अहसास।

ये भी जीवन से भरे,  ये  भी लेते स्वास।।


वृक्ष बड़े अनमोल हैं, देते  जीवन  वायु।

इनका संरक्षण करें, इनसे मिलती आयु।।


दूषित पर्यावरण में, है जीवन का हास।

नस्लें तक पहलाएंगी, कर लेना विश्वास।।


वृक्षों की रक्षा करें, नैतिकता यह आज।

हरे भरे हों वृक्ष तो, फूले  फले  समाज।।


इनमें भी जीवन बसा, हैं केवल गतिहीन।

हरे वृक्ष के नाश से, मानव  होता  क्षीण।।


जीते मरते हर समय, आते  सबके  काम।

देव तुल्य हो वृक्ष तुम, तुमको सतत् प्रणाम।।

✍️ मनोज वर्मा मनु, मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार दुष्यन्त बाबा का गीत -----धरा से कितने ही वृक्ष भी पाए प्राण वायु और फल भी पाए कितने ही काटे कितने जलाए अब कटने से भी इन्हें बचाओ


हे!  मानव तुम  धरा बचाओ

कुछ तो इसका कर्ज चुकाओ

 

बूंद-बूंद  जल संचित  करती

अपने स्वेद से प्यास बुझाती

फिर भी न कोई कीमत पाती

ऐसे न  इसको व्यर्थ  बहाओ

 

सुबह  सबेरे  सूरज उग आता

फिर  सारे जग  को चमकाता

नही  किसी  से  ये विल पाता

ध्यान रखो! इसके  गुण गाओ

 

धरा से कितने ही वृक्ष भी पाए

प्राण  वायु और फल भी पाए

कितने ही काटे कितने जलाए

अब कटने से भी इन्हें बचाओ

 

नदियां धरा  की आभूषण  हैं

रत्नगर्भा और  कृषि भूषण है

समृद्धि  की परिचायक भी  है

प्रदूषण से  तुम इन्हें  बचाओ

 

हे!  मानव तुम  धरा बचाओ

कुछ तो इसका कर्ज चुकाओ

✍️दुष्यंत बाबा, पुलिस लाइन, मुरादाबाद

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर का गीत ----पूजन-सामग्री, कूड़ा-करकट, इनका कुशल प्रबंधन हो, बहता गंगाजल निर्मल हो, हरियाली का वंदन हो ।।


कितने जंगल खेत कटेंगें,

मानव तेरे विकास को ?

कितनी नदियां दूषित होंगी,

गंदे जल के निकास को ?


कठिन परिश्रम और करो

अब थोड़ा तो गौर करो,

हरी-भरी सुंदर धरती थी,

याद पुराना दौर करो।।


आओ अपनी धरती माँ का

वृक्षों से शृंगार करें,

धरती की धानी चूनर का

 आँचल फिर तैयार करें।।


पूजन-सामग्री, कूड़ा-करकट,

इनका कुशल प्रबंधन हो,

बहता गंगाजल निर्मल हो,

हरियाली का वंदन हो ।।


✍️ मीनाक्षी ठाकुर, मिलन विहार, मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार ओंकार सिंह ओंकार का गीत -----रोगों को दूर भगाते हैं, हरते पीड़ाएँ तन-मन की, सेवा में तत्पर रहते हैं , पत्ते- पत्ते, डाली-डाली।।


मन- मोहक सुख देने वाली, होती धरती की हरियाली।

जो दुनिया के हर प्राणी के, जीवन की करती रखवाली। ।


ये हरी क्यारियां, घास हरी, इठलाती- बलखाती ऐसे,

मदमस्त हवा के झोंकों से, लहराता हो आँचल जैसे,

खुशबू से तर करती सबको, भर-भर देती मधु की प्याली। 


जब पेड़ो पर बैठे पंछी ,मीठी लय में सब गाते हैं,

तो फूलों से लिपटे भौंरे , उनसे सुर-ताल मिलाते हैं,

यह दृश्य देखकर आंखें भी, होती जाती हैं मतवाली।।


मीठे फल लगते पेड़ों पर, जो भूख मिटाते जन-जन की,

रोगों को दूर भगाते हैं, हरते पीड़ाएँ तन-मन की,

सेवा में तत्पर रहते हैं ,  पत्ते- पत्ते, डाली-डाली।।


हरियाली कारण वर्षा का ,जलवायु विशुध्द बनाती है , 

हर जीव-जंतु को धरती के , माता बनकर सहलाती है ,

सिंचित करती रस से जीवन , बनकर माली यह हरियाली।।


हितकामी जन इस जगती के, सब मिलकर चिंतन-मनन करें, 

हरियाली नष्ट न हो पाए , हम ऐसा कोई जतन करें ,

'ओंकार' तभी इस दुनिया में , सब ओर बढ़ेगी खुशहाली।।

✍️ ओंकार सिंह 'ओंकार' , 1-बी-241 बुद्धि विहार, मझोला, दिल्ली रोड, मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश) - 244103

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ रीता सिंह की रचना ----वृक्ष रोपण और जल संरक्षण फ़र्ज़ ये निभाने ही होंगे , चूक यदि हो गयी इनमें तो मंजर बहुत भयावह होंगे


सर सर बहती हवा कह रही

मत काटो मनुज पँख हमारे ,

स्वस्थ साँस का स्रोत यही हैं

समझो सच जीवन का प्यारे ।


नहीं रहेंगे विपिन अगर तो

कैसे बदरा मोहित होंगे ,

बरखा रानी के दर्शन को

तरस रहे भू अंबर होंगे ।


तेज ताप का होगा नर्तन

बवंडर मृदंग बजायेंगे

तृप्त न होंगे कंठ जीव के

सब हा हा कार मचायेंगे।


विज्ञान लाचार सा दिखेगा

सुख सँसाधन मुँह चिड़ायेंगे ,

मनमाने कोप प्रकृति के

सब मिलकर बहुत रुलायेंगे ।


जागो मानव अब भी जागो

नहीं भोग के पीछे भागो ,

श्वास महकती यदि लेनी है

लोभ ऊँचे भवन का त्यागो ।


वृक्ष रोपण और जल संरक्षण

 फ़र्ज़ ये निभाने ही होंगे ,

चूक यदि हो गयी इनमें तो 

मंजर बहुत भयावह होंगे ।


✍️ डॉ रीता सिंह, मुरादाबाद


मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव प्रखर के दोहे -----/


 

शनिवार, 5 जून 2021

मुरादाबाद मंडल के चन्दौसी (जनपद सम्भल) निवासी साहित्यकार अतुल मिश्र का व्यंग्य -----होना एक सरकारी अभिशाप का


सरकारी इश्तहारों में जो नारे लिखे होते हैं, उनकी पोज़ीशन अब यह है कि उन्हें लोग बिना पढ़े निकल लेते हैं, जिससे उन सरकारी मंसूबों पर पानी फिर जाता है, जो दीवारों पर कुछ इस अंदाज़ में लिखे जाते हैं कि आदमी भयभीत ही ना हो, उनसे डरकर उन पर अमल करना भी शुरू कर दे. लोग अब इन्हें देखकर मन ही मन कहते हैं कि यार, दफ़ा करो, जो काम खुद सरकार करवा रही है, उसी को मना भी कर रही है कि ” शराब पीना अभिशाप है. ” या ” बाप शराब पियेंगे, बच्चे भूखे मरेंगे. ” सरकार ने यह सोचा होगा कि इंडियन बाप जो हैं, वो इन इश्तेहारों से डरकर शराब पीना बंद कर देंगे और हमें यह कहने को हो जाएगा कि हमारी सरकारी मुहिम सफल रही.

मज़े की बात तो यह है कि जिस मद्य-निषेध विभाग की तरफ से ये विज्ञापन किये जा रहे हैं, उसका मंत्री कौन है और किसी भी शहर में उसका ऑफिस कहां है, भगवान सहित कोई नहीं जानता. अगर यह ऑफिस किसी गली के किसी कोने में अपना अस्तित्व बनाए हुए कहीं है भी, तो वह क्या कर रहा है, यह भी कोई नहीं जानता. कायदे में तो जिस तरह से दारू की दुकानों के बराबर ही ये विज्ञापन लिखकर दर्ज़ किये जा रहे हैं, वहां इस विभाग के कर्मचारियों को भी तैनात कर देना चाहिए कि तुम किसी को भी शराब नहीं पीने दोगे और जो पिए, उसे पकड़कर थाने पहुंचा दो, मगर ऐसा आज तक नहीं हुआ. लोग ” शराब पीना अभिशाप है.” में से ” अभिशाप ” पर कालिख या स्वसुविधानुसार गोबर पोतकर अन्दर निकल लेते हैं.

सरकार दोनों बातों में दिलचस्पी रखती है कि शराब के राजस्व से उनकी सरकार भी चलती रहे और मद्य-निषेध विभाग भी. लोगों से जिस बात को मना करो, वे उस बात को करते ज़रूर हैं, इस लिहाज़ से सरकार ने कुछ तो अपने छंद बोध से और कुछ जहां बोध सही नहीं लगा, वहां सीधे-सादे शब्दों में अपनी आवाम को यह पैग़ाम भी दे दिया कि दारू पीने के बाद यह सोचो कि तुम्हारे बच्चे अब भूखे मरेंगे कि नहीं ? ऐसे-ऐसे डरावने इश्तहार हैं कि आदमी बिना डरे ना रहे और अपना डर दूर करने को दारू ज़रूर पिए कि यार, सरकार जब खुद बिकवा रही है तो पीने में क्या हर्ज़ है ? ज़्यादा पी ली तो इसी बात को मुददा बना कर सरकार को चार-छह गालियां भी दे लीं कि मन हल्का हो जाये.

मैं अक्सर सोचता हूं कि सरकार अगर वास्तव में शराब पीने को अभिशाप मानते हुए इसकी बिक्री पर ही रोक लगा दे तो क्या होगा ? इस बारे में जब एक मंत्री से पूछा तो उन्होंने बताया कि होगा क्या, भट्टा बैठ जाएगा सरकार का. सरकार का मुंह अमरीका या विश्व बैंक की तरफ मुड़ जाएगा कि भैया, भगवान के नाम पर दे दो या ईमान के नाम पर दे दो. पड़ोसी मुल्कों को समझाना पड़ेगा कि भाई, आजकल ज़रा हालात सही नहीं हैं, इसलिए हमला-वमला करने से पहले सोच लेना कि करना है या नहीं. हमारा मुल्क अब अमन प्रिय हो गया है और लोगों ने दारू भी छोड़ रखी है. सच में, अगर एक बार ऐसा हो जाये तो शराबियों का तो जो होगा, वह होगा ही, सरकार का क्या हाल होगा, यह सोचकर मैं अक्सर गर्मियों में भी कांप उठता हूं.

✍️ अतुल मिश्र, श्री धन्वंतरि फार्मेसी, मौ. बड़ा महादेव, चन्दौसी, जनपद सम्भल, उत्तर प्रदेश

मुरादाबाद के साहित्यकार (वर्तमान में मुंबई निवासी) प्रदीप गुप्ता का व्यंग्य -- संस्कारी दामाद

   


हमारे मित्र शर्मा जी के लिए उनके माता पिता उनके लिए एक अच्छा मैच तलाशने में जुटे हुए थे , लेकिन कभी कोई लड़की शर्मा जी को पसंद आती तो लड़की ना पसंद कर देती , कोई लड़की उन्हें पसंद करती तो शर्मा जी को पसंद नहीं आती . फिर अचानक एक ऐसा मैच सामने आया शर्मा जी को पहली नज़र में लड़की भा गयी और लड़की को शर्मा जी . लेकिन विवाह के आड़े एक छोटी सी चुनौती आ गयी , लड़की का परिवार बेहद संस्कारी था , वे ऐसे लड़के की तलाश में थे जो उन्ही की तरह संस्कारी हो , न मीट खाता हो न ही दारू पीता हो . शर्मा जी ने लड़की वालों के सामने ‘आई शपथ’ कह कर अपने आप को सौ टका संस्कारी बता दिया . बस लड़की के पक्ष के लोग उनकी इस अदा पर क़ुर्बान हो गए, आनन फ़ानन में मुहूर्त निकलवाया गया और शादी की तारीख़ पक्की हो गयी .

शर्मा जी के सभी  मित्र उन्हीं की तरह पूरी तरह ग़ैर-संस्कारी थे . इसलिए शर्मा जी ने अपनी शादी में एक भी मित्र आमंत्रित नहीं किया , हाँ , शादी की खबर को सेलिब्रेट करने के लिए हम सब को खंडाला के पास एक रिज़ॉर्ट में ज़बरदस्त पार्टी दी , जिसके लिए ख़ास एयरपोर्ट की ड्यूटी फ़्री शॉप से जुगाड़ करके स्कॉच की बारह बोतल मँगवाई थीं . इसलिए किसी भी मित्र को उनकी शादी का निमंत्रण न पा कर कोई दुःख नहीं हुआ , क्योंकि सब को शर्मा जी की होने वाली ससुराल की संस्कारी पृष्ठभूमि का पता चल चुका था, ऐसी ड्राई जगह वैसे भी भला कौन जाता. 

शर्मा जी की शादी का कुछ कुछ ऐसा शिड्यूल था कि बारात वापस आने के अगले दिन उनके यहाँ संस्कारी क़िस्म का रिसेप्शन रखा गया था , जिसके लिए बधु की बहनें और भाई सभी आए थे , वापसी में वे लोग वधू को विदा कर कर ले गए थे. अब बारी शर्मा जी की थी , शर्मा जी अपनी पत्नी को ससुराल लिवाने के लिए गए , साले सालियों का इसरार था कि शर्मा जी को छै दिन उधर रुकना होगा . दिन भर साले सालियों के बीच शर्मा जी घिरे रहते थे , सास जी चुन चुन कर बेहतरीन से बेहतरीन वेज डिशेज़ बनाने और जमाई को अपने सामने बैठ कर खिलाने में लगी रहतीं . न नान-वेज न सिगरेट ना ही दारू,  शर्मा जी उस क्षण को कोस रहे थे जब उन्होंने शादी की ख़ातिर अपने आप को संस्कारी घोषित किया था . ससुराल में उनका यह पाँचवाँ दिन हो चुका था , दारू , सिगरेट और नान-वेज की बड़ी तलब लग रही थी . एक आइडिया उनके दिमाग़ में ट्यूब लाइट की तरह कौंधा , बस उन्होंने अपनी सासु माँ को बताया कि पेट अपसेट है आज डिनर स्किप करेंगे और थोड़ा टहलने जाएँगे . सासु माँ सुनते ही नींबू, काला नमक , काला जीरा युक्त जलजीरा बना लाईं. शर्मा जी ने जलजीरा  पिया और चुपचाप बिना किसी से कहे सुने घूमने निकल लिए. ससुराल से मात्र डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर ही उन्हें एक फ़ाइन डाइनिंग बार दिखायी दिया , शर्मा जी की बाछें खिल गयीं . आनन फ़ानन में बार में प्रवेश किया, मामला ससुराल के शहर का था इसलिए शर्मा जी ने तय किया सबसे आख़िर के स्मोकिंग ज़ोन वाले केबिन में बैठा जाए . सबसे पहले शर्मा जी ने लगातार दो सिगरेटें पी कर पाँच दिनों की बोरियत को दूर किया , पटियाला पेग स्कॉच का ऑर्डर दिया. साथ में साइड दोष में चिकेन ६९ और फ़िश फ़िंगर रोल मँगवाए. उस दिन पता लगा अगर कोई मनपसंद चीज़ कई दिनों के बाद मिले तो उसका क्या आनंद होता है . 

बस खाने पीने के इस अद्भुत सुख का आनंद उठा कर शर्मा जी केबिन के बाहर निकले तो सामने देख कर होश उड़ गए . सामने वाले केबिन से उनके ससुरश्री निकल रहे थे . काटो तो खून नहीं , ससुर जी की भी वही हालात थी पर बुजुर्ग तो बुजुर्ग होते हैं , पहल उन्ही को करनी पड़ती है आगे बढ़ कर दामाद को गले लगा लिया , उनके मुख से भी स्कॉच और फ़िश रोल की महक आ रही थी. गले मिलते ही दोनों के संस्कार भी मिल गए .

✍️  प्रदीप गुप्ता, B-1006 Mantri Serene, Mantri Park, Film City Road , Mumbai 400065

शुक्रवार, 4 जून 2021

मुरादाबाद मंडल के गजरौला (जनपद अमरोहा ) निवासी साहित्यकार रेखा रानी की लघुकथा ----ऑन लाइन पढ़ाई


शीला  बड़बड़ाए जा रही थी कि "इस जमाने में तीन - तीन बच्चों को पालना ही कितना मुश्किल  और ऊपर से पढ़ाई भी सरकार फ़ोन पर ही करवाएगी । कहां से लाऊं इतना पैसा ..... सोनू के पापा  होते तो अपने आप जो भी करते मुझे परेशान न होने देते । सरकार के करिंदे बार बार कहे जा रहे हैं कि हाथ सैनेटाइज करो ,साबुन से हाथ धोओ एक टिक्की भी दस से कम की नहीं मिलती है..... सरकार भी....।" मम्मी! मैम कह रही थी, कि मां से कहो टच वाला फ़ोन लो बिना लिए काम नहीं चलेगा। तभी पिंकी ने कहा मां मुझे भी चाहिए, उधर से चिंकू बोला ....." मेरा काम भी नहीं चल पा रहा है बिना फोन "..... अब तो शीला ने अपना माथा ही पीट लिया और चिल्लाने लगी "एक काम करो..... मुझे बेच दो किसी को और ले लो तुम तीनों टच के मोबाइल ....हां ! तुम्हारा बाप तो बडी जायदाद छोड़ कर गया है ना ....जो उसकी कमाई से तुम्हें मोबाइल से पढ़वा लूं " कहते - कहते आपा खो गई शीला.... तभी अचानक नीचे गिर पड़ी बेहोश होकर ,ऐसी गिरी कि फ़िर कभी न उठी। तीनों बच्चे उससे चिपट कर रो रहे

✍️ रेखा रानी,  विजयनगर, गजरौला, जनपद -अमरोहा उत्तर प्रदेश।

मुरादाबाद की साहित्यकार हेमा तिवारी भट्ट की कहानी ---- मुंहफट भिखारिन-

 


        माही को बाहर बाइक के पास छोड़ विक्रम मोबाइल रिपेयरिंग शॉप के ऊपरी तल पर अपना मोबाइल लेने गया हुआ था।माही बाइक से टेक लगाकर अपना मोबाइल देखने लगी।तभी एक आठ-दस साल का लड़का उसके सामने कटोरा फैला कर बड़ी मासूमियत से गिड़गिड़ाने लगा,"आंटी जी!दस रुपए दे दो। बहुत भूख लगी है।" माही ने मोबाइल से नज़र हटाकर उसे बड़े ध्यान से देखा।एक आम भिखारी की तरह ही उसका चेहरा कान्तिहीन और मैला था।लेकिन उसके भीख मांगने के लहजे में माही को कहीं भी दयनीयता नहीं दिखी।उसके कटोरे में दस-दस के दो नोट थे,माही के देखते ही लड़के ने जल्दी से वे नोट अपनी नेकर की जेब में ठूंस लिये और दूसरा हाथ जिसमें एक पॉलीथिन में बिस्किट और कुरकुरे का पैकेट था वह पीछे की ओर कर लिया।

                 माही ने सब कुछ अनदेखा करके बड़े प्यार से उस लड़के की तरफ देखा और अपनी आदत के अनुसार उस बच्चे को समझाने लगी,"तुम स्कूल क्यों नहीं जाते हो,बेटा? अब तो थोड़ी थोड़ी दूर पर सरकारी स्कूल हैं।वहाँ खाना,ड्रेस,बस्ता सब मिलता है।तुम्हें स्कूल जाना चाहिए,भीख मांगना गंदी बात होती है।" 

"आंँटी पहले मैं पढ़ता था गाँव में।अब हम अपना गाँव छोड़ के आ गये न तो अभी दाखला नहीं लिया।पर मैं जाऊँगा स्कूल कल से, सच्ची।तुम दस रुपए दे दो।" लड़का वाकपटु था।पड़ी लिखी आधुनिक महिला माही भीख देने के सख्त खिलाफ थी और उपदेश वह मुक्त कंठ से बाँटती थी।फिर भी उस लड़के के बातूनीपन से रीझकर वह उसे दस रूपए देने की सोच ही रही थी कि एक पंद्रह सोलह साल की लड़की डेढ़-दो साल के एक छोटे बच्चे को गोद में लिये और दूसरे हाथ से कटोरा पकड़े वहाँ आकर रुकी।ठीक उसी तरह का संवाद उसने भी दोहराया जो उस लड़के ने बोला था।माही ने भी फिर वहीं स्कूल जाने वाली बात दोहरायी तो लड़की उसे अजीब से घूरने लगी।इधर वह लड़का जल्दी में था उसने एक आखिरी कोशिश करनी चाही,"आंँटी दस रुपए दे दो न।"

                माही कुछ कहती या देती इससे पहले ही वह भिखारिन युवती उस लड़के को पीठ पर धौल देकर खदेड़ती हुई बोली,"चल रे लक्की,आगे बढ़।ये न देने की कुछ भी।पढ़ाई की बात कर री हैं।हमें नहीं पढ़ना।हम तो पढ़ाई छोड़ के आये हैं।हम तो भीख ही मांगेंगे।इनसे मलब।बड़ी आयी सिखाने वाली।पढ़ा के नौकरी दिला देंगी क्या?हमारे अब्बा पढ़ें हैं दसवें तक।भीख माँगते हैं,अब पढ़ाओ उन्हें भी।बात बतायेंगी बस।" इस तरह लताड़कर जाती हुई उस मुँहफट भिखारिन को माही अवाक देखती ही रह गयी।

 ✍️ हेमा तिवारी भट्ट, मुरादाबाद

मुरादाबाद के साहित्यकार स्मृतिशेष दयानन्द गुप्त की कहानी--- नेता। यह कहानी हमने ली है उनके कहानी संग्रह मंजिल से । उनकी यह कृति अग्रगामी प्रकाशन मुरादाबाद द्वारा वर्ष 1956 में प्रकाशित हुई थी। इस कृति की भूमिका प्रख्यात साहित्यकार पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' ने लिखी है।

 


सेठ दामोदर दास दामले अपने आफिस में बैठे दैनिक समाचार पत्र पढ़ रहे थे। उनके आफिस के तीन कमरे थे। पहला कमरा क्लर्कों के लिए था, दूसरा उनके प्राइवेट सेक्रेट्री तथा तीसरा उनके बैठने के लिए था । आगन्तुक को उनसे भेंट करने के लिए दो कमरे पार करके जाना पड़ता था। प्रातःकाल के सात बजे होंगे। गर्मी का मौसम था। सात बजे भी काफी दिन चढ़ आता है। उनकी मेज़ पर कई पत्र—अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू तथा मराठी के पड़े हुए थे। उस समय उनकी आँखें एक अंग्रेजी दैनिक के सम्पादकीय वक्तव्य पर पञ्जाब मेल की रफ़्तार से दौड़ रही थीं। इसके बाद उन्होंने शीर्षक पंक्तियाँ तथा कहीं कहीं बीच से कुछ पंक्तियाँ पढ़ डालीं। इसी प्रकार कई पत्र बाँच डाले । लेकिन वह पत्रों का व्यावसायिक स्तम्भ अवश्य पढ़ लेते थे, क्योंकि वह उनका पैतृक गुण था। इसके बाद उन्होंने पत्रों की गिन गिन कर तह बनाई। अनेक पत्र थे – दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा मिश्रित इन पत्रों की तह बना डालने के बाद उन्होंने कमरे के चारों ओर सजे हुए सामान पर दृष्टि दौड़ाई तथा सन्तोष की एक निश्वास छोड़ी । समाचार पत्रों का सारांश, मुख्यांश, भावांश तथा रसांश ग्रहण करने के बाद उनका अपने कमरे की 'सजावट पर ध्यान गया। भैरवनृत्य करने की मुद्रायुक्त आबनूसी दीपक वृक्ष कमरे के एक कोने में रखा हुआ था | उड़ते हुए पक्षियों के चित्र, झील के सूर्योदय और सूर्यास्त के चित्र तथा राकाइन्दु पर सिन्धु-उन्माद के चित्र आदि उनकी कक्ष की दीवारों से टंगे हुए थे । एक नग्न रमणी-सौन्दर्य की प्रतिमा भी ऊँचे डेस पर खड़ी हुई थी। कमरे के ठीक मध्य में महात्मा गाँधी का हँसता हुआ चित्र उन के आदर्श तथा राजनैतिक सिद्धान्तों को व्यक्त कर रहा था। नील कादम्बिनी के रङ्ग के रँगे हुए पर्दों पर आँखें मारते हुए तारों के फूल हँस रहे थे। उनके नीचे नाचते हुए मोरों की पंक्तियाँ विलक्षण छवि ग्रहण कर रही थीं। मेज पर ताजे प्रभात की सुरभि से मदहोश पुष्पदान की महक कमरे में बसी हुई थी। सेठ दामले एक बार अपने सौभाग्य पर सिहर उठे। वे प्रान्तीय शासन मशीन के डायनमो थे। हिटलर के प्रोपेगेण्डा मन्त्री की अपेक्षा उनकी वाणी में प्रभाव और शक्ति कम नहीं थी । मिनिस्ट्री के कार्यों का प्रकाशन तथा प्रशंसा उनका प्रमुख कर्त्तव्य था । इस समय क्लर्कों के कमरे में अकेला टाइपिस्ट और दूसरे कमरे में उनका प्राइवेट सेक्रेट्री बैठे हुए थे। उन्होंने अपनी कलाई की घड़ी में समय देखते हुए प्राइवेट सेक्रेट्री से प्रश्न किया—

    “मिस्टर नीलकण्ठ, आप आज के व्याख्यानों के लिए तैयार ही होंगे। "

"केवल एक व्याख्यान रह गया है— संगीत परिषद् के

लिये ?"

" इस विषय से मैं बिलकुल अनभिज्ञ हूँ। क्या समय दिया गया है ?"

"कल ८ बजे सायंकाल | "

"आज कहां कहां जाना होगा और किस समय पर? डायरी देखिये तो ।"

 डायरी  देखकर नीलकंठ ने कहा- सबसे  पहले किसान सभा में 9 बजे महावीर दल में 10 बजे रेलवे वर्क असोसियेशन में साढ़े दस  बजे, मजदूर सभा में 11 बजे,  दलितोद्धार समिति में साढ़े 11 बजे स्काउट्स असोसियेशन में 12 बजे जाना होगा। इसके बाद आराम और फिर श्रीयुत विजयकर राव के यहाँ भोज में जाना होगा।

 "अच्छा फिर ।"

"एक लम्बी व्याख्यानमाला-म्यूनीसिपल और डिस्ट्रिक्ट बोर्ड में एड्रेस 4 बजे तक स्वदेशी संघ में 4-15 बजे, एन्टीकरप्शन सोसायटी में 4-30 बजे, नागरीप्रचार मण्डल में 6 बजे, धर्म-समाज में 6-30 बजे और फिर 7 बजे सायंकाल से 9-30 बजे तक आजाद-पार्क में भाषण।"

"ओह!"

" कल फिर आज का-सा चक्र वही, प्रचार, व्याख्यान और भाषणों का पिष्टपेषण, सम्वाद- दाताओं से मगजपच्ची , इन्टरव्यू, मुलाकात और कागजी किश्तियों की यात्रा ।”

"यह तो सदैव लगा रहेगा, जब जीवन का लक्ष्य ही देश सेवा बनाया गया है। "

"परन्तु सेठ जी बच्चे तरसते हैं हमसे बात करने को और हम उनसे । आपने तो अपने हृदय से कोमलता, ममता और स्नेह सरसता निकाल कर फेंक दी है।"☺️ ""तुम्हारी भी सब चकचकाहट जाती रहगी। धैर्य के साथ देश की सेवा करते रहो। प्रारम्भ में मेरा भी मन घबराता था और कभी कभी सार्वजनिक जीवन निष्प्राण, निराकर्षक तथा परीक्षाप्रद मालूम होता था। पर अब त्याग की पवित्रता ने दुर्बलताओं को दूर कर दिया है। "

"यह कहने में तो सुन्दर है। लेकिन वास्तव में धोखा है। इस तरह हम अन्याय करने के लिये अपनी नींव बना लेते हैं । अपनी पत्नी और संतति के प्रति भी हमारा कुछ कर्तव्य है।"


"हमें मानव में विभिन्नता और अन्तर पैदा करने का अधि कार कहाँ है ? अपने सम्बन्धियों को औरों से अधिक प्रेम करने का हमें कोई हक नहीं ।

नीलकण्ठ ने उत्तर देने के लिए मुँह खोला ही था कि डाकिये ने आवाज दी। टाइपिस्ट उन दोनों की बातों को बड़े ग़ौर से सुन रहा था। डाकिये की आवाज सुनकर वह चौंक कर खड़ा होगया डाकिये ने आकर नीलकण्ठ के सामने मेज पर लिफ़ाफों व पत्रों का ढेर लगा दिया। उसने पत्र खोलने आरम्भ कर दिये। अपने प्राइवेट सेक्रेटरी को पत्रों में व्यस्त होते देखकर सेठ जी ऊपर नाश्ता करने चले गये।

सेठ जी के छः या सात साल की एक कन्या थी। उनके केवल एक मात्र यही सन्तान थी। वह सेठ जी को देखते ही उनकी टाँगों से लिपट गई और कोई कहानी सुनाने के लिये अनुरोध करने लगी सेठजी ने टालने की ग़रज से कहा- “अच्छा कल तुम्हें एक बढ़िया कहानी सुनाऊँगा ।"

“न, मैं तो अभी सुनूँ गी।"

"नहीं बेटा, मुझे जरूरी काम से शीघ्र ही बाहर जाना है।" “आप बाहर सबको रात-दिन कहानी सुनाते रहते हैं। फिर हमें क्यों नहीं सुनाते ?”

"कल तुम्हें भी सुनायेंगे।"

"आप तो कल भी यही कहते थे । " "लेकिन अब कल जरूर ही सुना देंगे।"

“मैं तो आज ही सुनूँगी ।”

"अच्छा रात को सुनायेंगे।"

सेठजी की पत्नी पिता-पुत्री का संलाप ध्यान से सुन रही थी। बच्ची की आँखों में आँसू छलछलाते देखकर उससे न रहा गया और उसने सेठजी से भर्त्सना के मीठे शब्दों में कहा - "हम दोनों तुम्हारे लिए भटक गये हैं लेकिन यह तो नादान बच्ची है। इसका जी रख दो। ज्यादा से ज्यादा दो चार मिनट लगेंगे । ”

" तुम्हीं न कोई कहानी सुना दो।"

“मैं तो रोज ही सुनाती रहती हूँ, लेकिन यह मानती नहीं देखो, इसकी आँखों में आँसू भर आये हैं ।”

पुत्री को पुचकारते हुए सेठजी ने कहानी आरम्भ की - " एक पीपल पर एक गिद्ध रहता था। वह अन्धा था, लेकिन था बहुत ही ईमानदार और साहसी उसी पीपल के तने में कोटर था, जिसमें एक तोते का जोड़ा और उसके बच्चे रहते थे। गिद्ध बुढ्ढा हो गया था और तोते उसे दयाकर खाने को दे दिया करते थे ।”

सेठजी का नाश्ता समाप्त हो आया था और वे खाते हुए कहानी कहते जारहे थे। इतने में उनके सामने नौकर आकर खड़ा हो गया। उन्होंने पूछा “क्या है ?"

"जबाबी तार आये हैं।"

"चलो, आ रहा हूँ।" सेठजी ने अन्तिम ग्रास मुँह में देकर पानी पिया और नीचे जाने को उठ खड़े हुए। उन्होंने लड़की को पुचकार कर कहा "बेटा, बाकी कहानी लौटकर सुनाऊँगा।" यह कह कर सेठ जी चले गये।

सेठजी को आया देखकर उनके प्राइवेट सेक्रेटरी ने कहा- "यह तार विनायक रावजी आप्टे का आया है। पूछते हैं कि वर्किंग कमिटी की मीटिंग 4 मई को है आप किस गाड़ी से आयेंगे ?"

"गर्मी के मौसम में रात का सफ़र ठीक रहता है। लिख दीजिये, हम सबेरे पूना पहुंचेंगे। और दूसरा ?"

"यह दूसरा विश्वनाथ कालेलकर का है। उन्होंने भी आपको नागपुर विश्वविद्यालय की सीनेट की मीटिंग में भाग लेने को बुलाया है। महत्वपूर्ण चुनाव होगा।"

हमारी संख्या सीनेट में वैसे ही बहुत अधिक है। मेरी क्या आवश्यकता है ? इस चुनाव में शरीक होना इतना जरूरी नहीं! लिख दीजिये, समय नहीं, क्षमा चाहते हैं। "

"यह अन्तिम तार रहा ट्रेड यूनियन के जनरल सेक्रेटरी देसाई जी का। उन्होंने आपको 15 मई के लिए मौजूदा हड़ताल के सम्बन्ध में भाषण देने के लिये आमन्त्रित किया है। "

"हाँ बम्बई की कई मिलों में स्ट्राइक है लेकिन समय होगा तभी तो जा सकूँगा जरा डायरी तो देखकर बताइये।" डायरी देखकर नीलकण्ठ ने कहा- "बिलकुल समय नहीं है।" "तो लिख दीजिये कि हम समयाभाव के कारण असमर्थ हैं।"

"इन लोगों को इतना भी खयाल नहीं कि दूसरों के भी कुटुम्ब है, पत्नी और सन्तान है। उन लोगों का भी कोई हक है। उनको भी एक मिनट छोड़ना नहीं चाहते।"

“रहने दीजिये। इन बातों की कोई जरूरत नहीं हम लोग देश के सेवक हैं। जरा डायरी तो मुझे दीजिए।"

सेठजी ने अपने प्राईवेट सेक्रेटरी से डायरी लेकर स्वयं देखना आरम्भ कर दिया। डायरी देखने के बाद उन्होंने कहा "बेशक 15 मई को समय तो नहीं है, लेकिन मध्यान्ह के बाद हमारा भोज का प्रोग्राम है। उसमें सम्मलित न होकर वहाँ पहुँच सकते हैं। आप लिख दीजिए कि मैं आऊंगा । महाशय खोटे जी से क्षमा याचना कर लोजिये, मैं भोज में सम्मिलित न हो सकूँगा।

"बहुत अच्छा" कह कर नीलकण्ठ ने उनकी आज्ञा का पालन आरम्भ कर दिया और सेठजी ऊपर कपड़े पहनने चले गये ।

इस समय 8-30 बज चुके थे। ऊपर पहुंचते ही सेठजी की कन्या ने बाकी कहानी समाप्त कर देने का आग्रह करना शुरू किया। सेठजी कपड़े पहनते जाते थे और कहानी कहते जाते थे। उन्होंने कहा

“गिद्ध इतना दुर्बल था कि वह उड़ नहीं सकता था। चिड़ियों की कृपा से उसके दिन सुख से बीत रहे थे। जब चिड़ियाँ दिन में अपने बच्चों को अकेला छोड़कर भोजन लाने के लिये उड़ जाती थीं तब वह गिद्ध उनके बच्चों की देख-भाल किया करता था। एक दिन एक बिल्ली उधर आ निकली। उसने चिड़ियों के बच्चों को फुदकते हुए देखा तब उनका कोमल माँस खाने के लिए उसकी जीभ तड़प उठी" सेठजी कहानी कह ही रहे थे कि उनका नौकर सामने आकर खड़ा हो गया । उसने कहा – “किसान सभा के 'नेता' नीचे आपकी प्रतीक्षा में बैठे हुए हैं ।"

एक बार फिर अपनी बच्ची को प्यार भरे शब्दों में किसी और समय कहानी सुनाने का दिलासा देते हुए कपड़े शीघ्रातिशीघ्र पहनकर सेठजी नीचे चले गये। उनकी बच्ची और पत्नी हृदय थाम कर रह गईं। सेठ जी को कहानी पूरा करने को अवकाश ही न था। सार्वजानिक जीवन पराया हो जाता है, अपना नहीं रहता।

सेठजी शाम को एक घण्टे की जगह आध घंटे के लिए ही अपने घर आ सके। वैसे तो वे अपने समय के बड़े पाबन्द थे, लेकिन जलसों का भारतीय समय ठहरा, पाँच पाँच मिनट की देर होते होते शाम तक आध घंटे की देर हो ही गई। उन्होंने जल्दी जल्दी खाना खाया उनकी पुत्री कहानी कहने का आग्रह करती रह गई और वे चले गये। रात्रि को 10-20 पर लौटे। मां-बेटी दोनों सो गई थीं। सेठ जी ने उन्हें जगाना उचित न समझा और वे भी सो गये।

सबेरे फिर और दिनों की तरह उन्होंने अपने प्राइवेट सेक्रेटरी से दिन का कार्य्य क्रम मालूम किया। आज उन्हें संगीत विषय पर भाषण करना था, जो उनकी योग्यता के बाहर था। इसमें उनका दखल न था और वे बहुधा राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक समस्याओं पर ही बोला करते थे लेकिन नेताओं से तो जनता सब विषयों के ज्ञान की आशा करती है और नेतागण भी अपने को सब कायों में नेता गिनने लगते हैं। उन्होंने अपने सेक्रेटरी से कहा “संगीत विषय का भाषण किस प्रकार तैयार किया जाय ?"

“मिस्टर गांगुली की जो नई पुस्तक कल-आई है उसे देख जाइये या किसी का गाना सुनकर अपनी कल्पना कर लीजिए ।""

सेठ जी ने कुछ विचार करने के बाद कहा – “संगीत-परिषद् के मन्त्री को 8-20 बजे सायंकाल का समय सूचित कर दो। मैं 8 बजे भाषण नहीं प्रारम्भ कर सकूँगा।"

"जो आज्ञा " सेक्रेटरी ने उत्तर दिया

दिन भर के भारी कार्य्य के बाद संध्या आई। भोजन करके सेठजी ने अपनी पत्नी से प्यार भरे शब्दों में कहा - "आज तुम्हारा संगीत सुनने को जी कर रहा है ।

पत्नी ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया - " अहो भाग्य !”

सेठजी ने उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा – “समय ही नहीं मिलता कि दो चार मिनट भी तुम्हारे पास बैठकर बात-चीत कर सकूँ । सार्वजानिक जीवन वालों को अपने साथ अन्याय करना पड़ता है। "

" और अपने सम्बन्धियों के साथ भी। सच जानो तुम्हारे लिये मेरा हृदय कितना उत्कंठित रहता है ! तुम हमें कितना भूल गये हो !" यह कहने के बाद उसके नेत्र डबडबा आए ।

“नहीं, भूला नहीं, किन्तु विवश हूँ। मैं भी विवश हूँ, हृदय रखता हूँ, पर संसार की सेवा का व्रत धारण कर चुका हूँ। तुम्हें भी अपना यही आदर्श रखना चाहिए।"

" और अपने कुटुम्ब के प्रति तुम्हारा कोई कर्त्तव्य नहीं । मुझे जीवन सहचरी बनाते समय मुझसे ही प्रतिज्ञाएँ ली थीं और क्या स्वयं कोई वचन नहीं दिया था ? परमार्थ प्रेमी को किसी दूसरे को बन्धन में बाँधना ही नहीं चाहिए।"

तुम्हें तो मैंने मुक्त कर रक्खा है, लेकिन तुम ही इस चहर दीवारी से बाहर नहीं जाना चाहतीं। तुम भी इस गृह के अँधेरे से निकल कर इस संसार के प्रकाश में क्यों नहीं आ जाओ ?"

"मेरे इस गृह से बाहर आने पर यहाँ अँधेरा हो जायगा । मेरे यहाँ रहने से अँधेरा नहीं, प्रकाश रहता है लेकिन जब मैं यहाँ रहती हूँ, तुम ही क्यों न अपना कार्यक्रम मेरा सा बना लो । झगड़ा ही समाप्त हो जाय । "

" और देश सेवा ?"

“यह सब ढोंग है। जो खुद दूसरों पर अन्याय करते हैं वे दूसरों पर कैसे न्याय कर सकते हैं ?"

"आज शास्त्रार्थ का समय नहीं है। मेरे यह आनन्द के क्षण हैं। मैं इन्हें नीरस बातों में नष्ट नहीं करना चाहता हूँ । चलो कुछ गाना सुनाओ।"

सेठ जी ने यह कहा ही था और वे अन्दर के कमरे में जाने वाले ही थे कि उनकी कन्या ने कहानी पूरी कर देने का आग्रह किया। माँ-बाप की बात-चीत वह बड़े ध्यान से सुन रही थी और उसने कोई बाधा नहीं डाली थी, लेकिन अब उसका चपल शिशु-धैर्य्य देर तक कहानी टलते देखकर रुक न सका । एक बार गाना आरम्भ हो जाने पर कितना समय लगता, अत: उसने टोकना ही उचित समझा पर इस बार माँ ने घुड़क दिया । एक गाना आरम्भ हुआ हारमोनियम के साथ उसके स्वर में आज माधुरी घुस गई थी। उसके हर्ष का वारापार न था। उसने बहुत दिनों के बाद आज अपने प्रिय पति के कहने से गाया था।

हृदय के सरस स्रोत सूख चुके थे, लेकिन आज उसमें उन्माद-ज्वर आगया था। सचमुच वह अपने प्राणों के स्वर फूँक रही थी। सेठजी गाने में तन्मय हो रहे, लेकिन वे गाने के प्रभाव से उत्पन्न विचारों को स्मृति बद्ध करना नहीं भूले थे। व्याख्यान का भूत उनके सिर पर सवार था । वे गाना सुन रहे थे, लेकिन सोच कहीं और ही रहे थे। आनन्द के प्रवाह में अविराम गति से बहने का भी उनका भाग्य न था, क्रूर काल उन पर मन ही मन हँस रहा था। उन्होंने अपने विचार अंकित करने के लिए चुपके से कागज पेन्सिल उठा ली और संक्षिप्त नोट लेना शुरू कर दिये। उनकी पत्नी मीड़ की लहरी में नयन-निमीलित किये हुए डूब रही थी।

उसने नेत्र खोले तब सेठजी को काग़ज़ पर कुछ लिखते देखा। उसका एकदम यह भाव हुआ कि वे केवल उसका मन बहला रहे हैं और उन्हें गाना नहीं सुनना है, अपना कार्य करना है। गाने का उन्होंने एक बहाना उसे प्रसन्न करने के लिये निकाला है। उस समय वह गा रही थी

'हाय तुम कैसे विमोही !

आज रुक जाओ निठुर घर 

यों न जाओ प्राणमोही ।'

कि उसका कण्ठ एकाएक सिसकियों से रुद्ध होगया आँसू आँखों में उतर आये स्वरतार अनायास टूट गया। यह देखकर सेठजी स्तम्भित रह गये। उन्होंने तत्काल खड़े होकर उसका हाथ पक ड़कर पूछा - "क्यों तुम्हें क्या हुआ ?"

"कुछ नहीं कुछ नहीं।" एक हाथ से आँसू पोछते हुए वह संगीतशाला को उजाड़ती हुई उठ खड़ी हुई । उसने कहा इतना धोखा ! इतना छल !"

"नही, धोखा कैसा ?"

"और क्या ? गाने का तो बहाना था। "

"मैं तो अपने भाव इकट्ठे कर रहा था, भाषण देने के लिए। " उन्होंने कहा

“तो फिर मैं आपके व्याख्यानों का यन्त्र हूँ। मेरा गाना आनन्द के लिए नहीं है। सभाओं में भाषण देने के लिए इसका भी अस्तित्व है अन्यथा इससे क्या प्रयोजन ? तुम्हारे व्याख्यानों पर इसका भी जीवन निर्भर है। अब मैं कभी ऐसी ग़लती न करूँगी ।" उसने दृढ़ता से उत्तर दिया। “तो इसमें तुम्हारा गया क्या ?"

    "चोट पहुँचाकर अपमान करना भी जानते हो। यह काम तो किसी भी किराये की गायिका से निकाला जा सकता था। मेरी ही क्या जरूरत थी ?" उसने एकटक नेत्रों से सेठजी की ओर देखा। उनमें अपमानित स्त्रीत्व की ज्वाला निकल रही थी।

    सेठजी कुछ कहने को मुँह खोल ही रहे थे कि नौकर को देखकर वे पानी पानी हो गये। शायद उसने उनकी सब बातें सुनी होंगी। पता नहीं कितनी देर से खड़ा हुआ है। उसकी ओर उनका ध्यान न जा सका था। उनके पूछने पर उसने कहा "संगीत परिषद के कार्यकर्त्ता आये हैं। "

  सेठजी ने अपनी कलाई की घड़ी देखी। देर हो चुकी थी। उन्हें संगीत की तरंग में समय का बोध न हो सका था। वे जल्दी जल्दी कपड़े पहनने लगे। उनकी कन्या ने फिर अपनी पुरानी हठ आरम्भ की वह अधिक कह भी न पाई थी कि उस की मां ने उसे बलपूर्वक गोद में उठा लिया और उसे ले दूसरे कमरे में चली गई। वह उसे कहती जा रही थी - " चल । मैं आज तुझे कहानी सुनाऊँगी।”

     सेठजी अकेले कपड़े पहनते रह गये । कुछ मिनटों के बाद वे रंगमंच पर आवेश के शब्दों में भाषण दे रहे थे । जनता अपलक दृष्टि से उनके मुख को देखती हुई ध्यानमग्न उनके भाषण प्रवाह में बह रही थी। सभा में सन्नाटा था, केवल उनकी वाणी सुनाई देती थी और उधर माँ बेटी सिसकी भरती हुई एक-दूसरे से चिपटी निद्रा का आवाहन कर रही थीं।

:::::::::प्रस्तुति:::::::

डॉ मनोज रस्तोगी

8, जीलाल स्ट्रीट

मुरादाबाद 244001

उत्तर प्रदेश, भारत

मोबाइल फोन नम्बर 9456687822

मुरादाबाद की साहित्यकार मीनाक्षी ठाकुर की लघुकथा----- बहू

 


"देखो भाभी,पापा की बातों का बुरा मत माना करो।अब उनकी उम्र हो गयी है,ऊपर से बीमार भी हैं।अगर कुछ उल्टा सीधा बोल भी रहे हैं,तो बुजुर्गों  की बात का बुरा नहीं मानते...और हाँ उनके खाने -पीने का भी खास ख़्याल रखा करो....इस घर की बहू होने के नाते आपका फर्ज़ है भाभी......बेटियाँ तो दूर रहकर कुछ भी नहीं कर पातीं....."सुमन अपनी भाभी,नेहा से फोन पर बात करते हुए बड़े समझाने वाले स्वर में कह रही थी। "

"बहू ..अरे बहू..! कहाँ चली गयीं, आज चाय देना ही भूल गयी क्या बेटा ?,"दूसरे कमरे से सुमन की बीमार सास ने कराहती  आवाज़ में  कहा ।सास की आवाज़ सुनकर सुमन ने कहा,"रुको भाभी ,अभी बाद में फोन करती हूँ..पापा जी का ख्याल रखना...।"कहकर सुमन ने फोन काट दिया। "इस बुढ़िया को पल भर भी चैन नहीं.... पता नहीं कब मरेगी..नाक में दम करके रखा है....पूरा दिन कभी चाय,कभी पानी.......कभी खाना....   बहू...! बहू....! करके इस बुढ़िया ने तो जीना मुश्किल कर दिया है....।"बड़बड़ाती सुमन चाय का पानी गैस पर रखने लगी।

,✍️ मीनाक्षी ठाकुर, मिलन विहार, मुरादाबाद

मुरादाबाद मंडल के जनपद रामपुर निवासी साहित्यकार रवि प्रकाश का व्यंग्य ----वरिष्ठ नागरिकों का जीने का अधिकार

     


वरिष्ठ नागरिकों को भला कौन पूछता है ? वरिष्ठ हो ,लेकिन गरिष्ठ भी तो हो ? अब न तुमसे कुछ खाना पच पाता है और न तुम देश को पच पा रहे हो । खाते पीते वरिष्ठ सामाजिक लोग भी वरिष्ठ नागरिकों को अब इसी दृष्टि से देखते हैं । घरों में तो वरिष्ठ नागरिकों को एक कोने में खटिया पर पड़े रहने का उपदेश देने वाले लोगों की संख्या समाज में पहले से ही कम नहीं है ।

     लेकिन इन सब में भी एक पेंच है । अगर वरिष्ठ नागरिक रिटायरमेंट के बाद पेंशन पा रहा है और पेंशन की रकम मोटी है तथा बाकी घर का खर्चा भी उस पेंशन की रकम से चलता है तो बुड्ढे की उम्र चाहे जितनी हो जाए ,उसको जिंदा रखने के लिए पूरा परिवार रात-दिन एक कर देगा । बूढ़े को मरने नहीं देगा । उसकी पेंशन को जिंदा जो रखना है ! कुल मिलाकर मामला उपयोगिता का है ।

      ले-देकर वह वरिष्ठ नागरिक रहमो-करम पर रह जाते हैं ,जिन बेचारों की जेब में पांच पैसे नहीं होते । केवल चालीस साल पुराने संस्मरण होते हैं या फिर समाज में बैठकर सुनाने के लिए चार उपदेश होते हैं । उपदेश कोई वरिष्ठ नागरिक के श्रीमुख से ही क्यों सुने ? उसके लिए गीता ,रामायण और न जाने कितनी बोध-कथाएं हैं । जरूरत है ,तो किताब खोलो और पढ़ लो । जो उपदेश कथावाचक लोग देते रहते हैं ,जब इन सब की किसी ने नहीं सुनी तो फिर लोग वरिष्ठ नागरिक की ही क्यों सुनेंगे ? 

          वरिष्ठ नागरिक अपनी जेब में हाथ डालता है ,तिजोरी खोलता है और बैंक की पासबुक को बार-बार जाकर बैंक में भरवाने का प्रयत्न करता है । लेकिन हर बार उसे निराशा ही हाथ लगती है । कहीं से पैसा आए ,तब तो बूढ़े व्यक्ति के हाथ में दिखेगा ? जब तक पैसा नहीं है ,वरिष्ठ नागरिक सिर्फ कहने के लिए वरिष्ठ हैं । खाते पीते वरिष्ठ सामाजिक लोग तो उनके बारे में निर्ममतापूर्वक यही कहेंगे कि बहुत जी लिए । अब दूसरों को जीने दो।

              इसलिए मेरी तो सलाह सब वरिष्ठ नागरिकों से यही है कि चाहे जैसे हो ,अपने हाथ-पैर सही सलामत रखो। चलते-फिरते रहो । दिमाग सही काम करता रहे । वरना अगर ठोकर लगी ,गिर पड़े  और हड्डी टूट गई तो कोई प्लास्टर बँधवाने वाला भी नहीं मिलेगा । चतुर लोग यही कहेंगे " इन हाथ-पैरों से बहुत चल चुके हो । अब व्यर्थ प्लास्टर पर खर्चा क्या करना ? "

          एक प्रश्न यह भी मन में उठता है कि वृद्ध-आश्रम या ओल्ड एज होम सही भी हैं या इनको भी बंद कर दिया जाए ? नौजवानों के लिए काफी पैसा बच जाएगा ? कितना अच्छा होता ,यदि भगवान ने मनुष्य की आयु सौ वर्ष के स्थान पर केवल साठ वर्ष की रखी होती । इधर आदमी वरिष्ठ नागरिक हुआ ,उधर अर्थी तैयार है । लेटो। हम शवयात्रा खुशी-खुशी शमशान लेकर जाते हैं। तुम नई पीढ़ी को चैन से जीने दो । 

 ✍️ रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश ) मोबाइल 99976 15451

मुरादाबाद की साहित्यकार डॉ श्वेता पूठिया की लघुकथा ---पहचान


समाज में महिलाओं को जागरूक करने की मुहिम लता  ने शुरू कर रखी थी।शहर की संस्थाओं के बाद उसने गांव का रुख किया।एक गांव में वह सभा में आयी सभी स्त्रियों से उनके नाम पूछ रही थी।घूघंट निकाले जब एक नवयुवती का नम्बर आया तो वह चुपचाप रही।बहुत कहने के बाद वह खडी़ हुई।लता ने बडे प्यार से पूछा,"आप अपना नाम बताओ, हम अपने रिपोर्ट में लिखेगे"।वह बोली,"मेरा नाम  मुझे पता नहीं।सब यह सुनकर हँस पडे़ लता ने समझाया ",जिस नाम से सब आपको बुलाते हैं वह नाम बतायें"।

वह बोली",हम सच कह रहे हैं हमें अपना नाम पता करने के लिए अपने घर जाना होगा।बाबू से पता करके बतायेंगे।बचपन में सब रामुआ की लड़की कहते थे। दादी कलमुँही कहती थी।फिर ब्याह हो गया तो कलुआ की बहू के नाम से सब बुलाते थे।जब से किसना का जनम हुआ तो सभी किसना की अम्मा कहते हैं।यही हैं हमारे नाम ।बापू ने जो नाम दिया होगा हमें याद नहीं ।

उसकी बात सुनकर लता निरुत्तर रह गयी।

✍️ डा.श्वेता पूठिया, मुरादाबाद

मुरादाबाद मंडल के जनपद अमरोहा की साहित्यकार प्रीति चौधरी की लघुकथा ------इंसानियत का रिश्ता

 


 'इनकी दोनों किडनी खराब हो चुकी है। इनका ब्लड ग्रुप ए नेगेटिव है।इसी ब्लड ग्रुप की किडनी चाहिये क्योंकि दूसरे ब्लड ग्रुप से कोम्प्लीकेसन के चांस रहते हैं। जल्द इन्तजाम कीजिये। डॉक्टर ने राजेश से कहा।

           राजेश का ब्लड ग्रुप ए पॉजिटिव था। वह बहुत परेशान था। रागिनी के बिना वह जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता था। वह बैन्च पर बैठकर सभी रिश्तेदारों को फोन मिलाने लगा, पर कहीं से कोई इन्तजाम नहीं हो पाया। जिनका ब्लड ग्रुप ए नेगेटिव था, उन्होने भी मना कर दिया। राजेश नीचे मुहँ करके बैठ गया।उसे कोई उम्मीद नज़र नहीं आ रही थी। अचानक एक अजनबी ने उसके कंधे पर हाथ रखा और कहा, 'दोस्त मेरा ब्लड ग्रुप ए नेगेटिव है, मैं किडनी देने को तैयार हूँ।'

पर ........तुम्हारे से तो मेरा कोई रिश्ता भी नहीं है, फिर तुम क्यों .........राजेश ने रुंधे गले से कहा।

       तुम शायद भूल रहे हो, एक बहुत गहरा रिश्ता है मेरा तुमसे .............. इंसानियत का रिश्ता। मै अपनी बीवी को नहीं  बचा सका, पर दोस्त अपनी बहन को कुछ नहीं होने दूँगा। चलो उठो, जल्दी चलो।

दोनों उठे और तेज कदमों से चल दिये।

✍️  प्रीति चौधरी ,गजरौला, अमरोहा 


                       


मुरादाबाद के साहित्यकार डॉ पुनीत कुमार की लघुकथा ----पहचान


" मेरा नाम रवि कुमार है। मैं आयकर अधिकारी था।" 

" मैं श्यामा प्रसाद ,डिग्री कॉलेज में प्रधानाचार्य था।"

" मैं राम सिंह हूं। सिंचाई विभाग में मुख्य अभियंता के पद से सेवा निवृत हुआ हूं।"

  सब बारी बारी से,बड़े गर्व के साथ अपना परिचय दे रहे थे। हरिप्रकाश, जो बड़े बाबू के पद से सेवा निवृत हुए थे,अटपटा सा महसूस कर रहे थे। सोच रहे थे, मैं इन बड़े लोगों के बीच कहां फंस गया।जब उनकी बारी आई,उन्होंने हिम्मत जुटा कर बोलना शुरू किया,"क्षमा चाहता हूं। मुझे कुछ भी नहीं याद आ रहा है। मैं किस विभाग में था,किस पद पर था। मैं तो अपना नाम तक भूल चुका हूं। मैं केवल इतना जानता हूं कि मैं एक सेवा निवृत कर्मचारी हूं। अब यही मेरी पहचान है।"

✍️ डॉ पुनीत कुमार, T2/505 आकाश रेजीडेंसी, आदर्श कॉलोनी रोड, मुरादाबाद 244001, M 9837189600

मुरादाबाद की साहित्यकार राशि सिंह की लघुकथा -----नया चश्मा


पिद्धान जी तुमने तो कही थी कि अगर हम तुमको वोट दें तो हमारे घर नयो पखानो बन जायेगो ।"वह नीचे बैठा गिड़गिड़ा रहा था ।

"हां भई हां कही थी हमने जे बात मगर अबे पैसा कहां आयो है सरकार से जो तुम्हारी जरूरतें ऐक दिन में पूरी कर दें ...सरकारी काम है दद्दा टेम लगेगो टेम ।"नवनियुक्त प्रधानजी ने मूंह से बीड़ी का धुआं निकालते हुए कहा ।

वह अब खामोश होकर उल्टे पांव जाने लगा ।

"का करें नैकौ चैन से न रहन देत हैं जे सब मूरख ।"पिद्धान जी ने अपने नए नवेले काले चश्मे को पौंचते हुए कहा ।

और पहली ही किश्त में आई बुलेट पर बैठकर फुर्र हो गए अब इस नए चश्मा से गांव की समस्याएं  दिखाई देने बंद जो हो चुकी थीं ,जो पहले नंगी आंखों से साफ दिखाई दे रहीं थीं लेकिन सिर्फ वोट लेने से पहले तक ।

✍️ राशि सिंह, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश