मनुष्य के रूप में हम जीवन भर एक सत्य की तलाश में रहते है। यह सत्य हमें कभी-कभी मिलता भी है किन्तु टुकड़ों में पूर्ण सत्य या यथार्थ से हमारा साक्षात्कार जरा कम ही होता है। एक लेखक या साहित्यकार भी जीवन भर सत्य की खोज में लगा रहता है। वह अपने समय के यथार्थ को साहित्य के माध्यम से खोजने का यत्न करता है। वह न केवल सत्य या यथार्थ के विदूपों और भंगिमाओं को चीन्हने की कोशिश करता है बल्कि उन्हें रेखांकित भी करता है और पाठकों को इसमें सहभागी भी बनाता है।
साहित्य के माध्यम से यथार्थ को चीन्हने वाले एक ऐसे ही समर्थ रचनाकार थे स्व शंकर दत्त पांडे। पांडे जी ने न केवल अपने समय के यथार्थ को शब्दों के माध्यम से जीया था बल्कि इसको उद्घाटित करने के क्रम में एक विराट रचना संसार की सृष्टि भी की थी। पांडे जी के लेखन के विविध आयाम थे। वे समकालीन साहित्य के एक बड़े हस्ताक्षर थे। नयी कहानी आन्दोलन के एक प्रणेता निर्मल वर्मा की तरह बेहद विनम्र, मितभाषी बल्कि कहा जाए ज्यादातर खामोश रहने वाले एक प्रतिभाशाली रचनाकार। उनका आभामण्डल कुछ ऐसा था कि वे स्वयं ही चुप नहीं रहते थे बल्कि उनके आस-पास और कभी-कभी तो उनकी उपस्थिति मात्र से भी अनायास एक सन्नाटा बुन जाता था। किन्तु यह सन्नाटा ओढ़ा हुआ या कृत्रिम नहीं था। व्यक्तिगत जीवन में पांडे जी भले ही कम बोलते हो किन्तु अपने रचना जगत में वे उतने ही मुखर दिखायी पड़ते है। वे साहित्यिक सन्नाटे के बीच अक्सर अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज कराते थे। उनकी कृतियां इसका ज्वलन्त प्रमाण हैं।
बेहद धीमे बोलने वाले अक्सर अपनी ही दुनिया में खोये रहने वाले शंकर दत्त पांडे एक बहुआयामी सर्जक थे। एक कुशल चितेरे की भाँति उन्होंने एक बड़े कैनवस पर जीवन के लगभग सभी विम्ब उकेरे हैं और स्पेक्ट्रम के सभी रंग उनके सृजन में पूरी भव्यता के साथ उपस्थित हैं। उन्होंने साहित्य की विभिन्न विधाओं के आगार पर्याप्त समृद्ध किये हैं। उन्होंने उपन्यास, कहानियां, कविताएं, गीत, नाटक, निबन्ध, हास्य-व्यंग्य, बाल साहित्य, संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज सहित हिन्दी की लगभग सभी विधाओं में सृजन किया है। सही बात तो यह है कि शंकर दत्त पांडे ने जब भी लेखनी उठायी हिन्दी की जिस विधा में चाहा पूरे अधिकार के साथ सृजन किया। नगर में सम्भवतः दुर्गादत्त त्रिपाठी प्रभृति रचनाकार ने भी इतनी विधाओं में शायद साहित्य नहीं रचा है। दरअसल, पांडे जी बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न रचनाकार थे और यथानाम तथा गुण वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए साक्षात कलाओं के आदि स्वरूप नटराज के मानवीय प्रतिरूप थे। यही उनकी प्रतिभा का अंत नहीं था। उन्होंने अंग्रेजी भाषा में भी पर्याप्त साहित्य रचा था और मौलिक सृजन के अलावा कई चर्चित कृतियों और पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया था। उर्दू भाषा पर भी पांडे जी को गज़ब का अधिकार था। उन्होंने उर्दू में भी बहुत सी ग़ज़लें और नज्में लिखी थीं। सही बात तो यह है कि पांडे जी जैसी विलक्षण भाषाई या साहित्यिक प्रतिभा के धनी हिन्दी जगत में तो क्या विश्व साहित्य में भी बिरले ही हुए होंगे। हिन्दी में स० ही० वात्स्यायन अज्ञेय और जयशंकर प्रसाद शायद सर्वाधिक प्रतिभाशाली साहित्यकार कहे जा सकते है जिन्होंने गद्य और पद्य की लगभग समस्त विधाओं में पर्याप्त साहित्य सृजन किया था। किन्तु पाण्डेय जी सम्भवतः इन दोनों कालजयी रचनाकारों से भी इसलिए आगे खड़े महसूस होते हैं कि बहुधा गौण या दोयम दर्जे का साहित्य समझे जाने वाले बाल साहित्य की भी उन्होंने रचना की थी। बाल साहित्य में भी पांडे जी ने एकाध पुस्तक की नहीं बल्कि करीब आधा दर्जन पुस्तकों की रचना की थी। 'लाल फूलों का देश', 'बारह राजकुमारियां', 'पीला देव', 'जादू की अंगूठी', 'रोम का शिशु नरेश' और 'जादू का किला' उनकी प्रसिद्ध बाल कृतियां है।
जैसा कि उपरोक्त कृतियों के नाम से ही स्पष्ट है पांडे जी की अधिकांश बाल कथाएं जादू या फंतासी से ओतप्रोत है। अपनी बाल कृतियों में पांडे जी ने कल्पना को नये आयाम प्रदान किये है। कहानियों में रोचकता इतनी है कि पाठक मंत्रबद्ध और सम्मोहित हो आद्योपान्त इन्हें पढ़ने के लिए विवश हो जाते है। उनकी कहानियां फंतासी के मामले में पश्चिम के ख्यातिप्राप्त बाल साहित्यकारों हेंस क्रिश्चियन एंडरसन और इनिड ब्लाइटन से जरा भी कमतर नहीं है। सही बात तो यह है कि पांडे जी का बाल साहित्यकार के रूप में कभी समुचित आकलन नहीं हुआ। उनका बालसाहित्य समालोचकों की उपेक्षा का शिकार तो हुआ ही साथ ही वह मुख्य धारा के कथित झण्डाबरदारों की साजिश का भी शिकार हुआ। यदि पांडे जी के बाल साहित्य का सम्यक मूल्यांकन किया जाए तो न केवल उनके साहित्यकार व्यक्तित्व के नये आयाम उद्घाटित होंगे बल्कि बाल साहित्य भी संभवतया अपने एक यशस्वी रचनाकार का परिचय पा सकेगा।
पांडे जी से मेरा परिचय बहुत प्रगाढ़ और पुराना नहीं था, यद्यपि मैं उनके नाम ओर काम दोनों से परिचित था। गाहे-बगाहे नगर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली रचनाओं से मैं उनके कृतित्व की झलक पाता रहा। कतिपय गोष्ठियों में उनके गीत या कविताएं सुनने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ, किन्तु सदैव उनके एक 'कोकून' में आवृत्त रहने के कारण और कतिपय स्वयं मेरे संकोच के कारण व्यक्तिगत संवाद की स्थितियां निर्मित न हो सकीं। बहुत बाद में उनके जीवन की सांध्य बेला में भाई 'पुष्पेन्द्र' वर्णवाल के जन्मदिन पर आयोजित एक निजी गोष्ठी में उनसे संवाद का सौभाग्य प्राप्त हुआ। शायद पुरानी और नयी पीढ़ी के बीच एक सेतु निर्मित करने का प्रयास था यह। पुष्पेन्द्र जी के निवास पर आयोजित गोष्ठी में पांडे जी ने प्रकम्पित कण्ठ से एक अत्यन्त भावप्रवण गीत सुनाया भरी स्मृति में कहीं टंक सा गया। मैं भीतर ही भीतर उनसे प्रभावित हो गया और मन सहसा विचारों से आलोड़ित हो गया। लगभग संझवाती तक चली यह गोष्ठी गंभीर वातावरण में समाप्त हुई और गोष्ठी में उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति को कुछ न कुछ दे गयी। यह पांडे जी से मेरे साक्षात्कार का अन्तिम अवसर था। फिर वे मेरी नजरों से प्रायः ओझल हो गये और अंतिम तिरोधान तक लगभग अदृश्य ही रहे। किन्तु उनके देहावसान के बाद आज तक मैं शंकर दत्त पांडे जी को दृश्यमान करने की कोशिश करता हूँ तो न केवल उनके महान सर्जक व्यक्तित्व से अभिभूत हो जाता हूँ बल्कि एक विराट शून्य या रिक्तता का भी तीव्रता से आभास होता है जिसे भर पाना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य है। सही बात तो यह है कि भविष्य की पीढ़ियों के लिए शायद यह विश्वास कर पाना भी कठिन होगा कि नगर मुरादाबाद में एक ऐसा विलक्षण साहित्यकार हुआ था जो हिन्दी की लगभग सभी विधाओं में समान गति से विचरण करता था।
यहाँ उनके कुछ काव्य साहित्य की चर्चा करना समीचीन होगा। उनके काव्य में छायावादी प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। दरअसल, वे जिस पीढ़ी के रचनाकार थे उस पर छायावाद का स्वाभाविक रूप से गहरा प्रभाव था। तब प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी वर्मा का चतुष्ट्य केवल साहित्य को ही प्रभावित नहीं कर रहा था बल्कि समकालीन युवा रचनाकारों की संवेदना के तारों को भी पर्याप्त झंकृत कर रहा था। पाण्डेय जी की रचना में भी दूसरे रचनाकारों की तरह प्रकृति वर्णन, शृंगारिकता रहस्यात्मकता और रोमानी अनुभवों के दर्शन होते हैं किन्तु उनकी रचनाओं में एक व्यापक दृष्टि और युगबोध के भी दर्शन होते हैं। उनके एक गीत की ये पंक्तियां दृष्टव्य है
"जब उस निष्ठुर का नाम कभी,
आया इन होंठों के ऊपर ।
दुख की दर्दीली रेखायें,
उभरी मानस पट के ऊपर ।।
मैं अवहेला की घड़ियों में,
पलकें खारे जल से घोता,
सोचा करता हूँ जीवन में
उत्थान-पतन प्रतिपल होता ।"
वास्तव में यही उनकी जीवन दृष्टि थी। जीवन में प्रतिपल आने वाले उतार चढ़ाव से निस्संग होकर पांडे जी आजीवन सृजनरत रहे। दरअसल, शंकर दत्त पांडे का सम्पूर्ण साहित्य मानवीयता की गाथा है जिसे वे अपनी स्वर्ण लेखनी के माध्यम से अंत तक कहते रहे।
डिप्टी गंज,
मुरादाबाद244001 ,उत्तर प्रदेश, भारत
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