खुशहालपुर गाँव के
उस छोर पर
झोपड़ी नुमा मकान में
एक दीप जल रहा था।
दरिद्रता का प्रकोप
झिलमिलाते दीप की
रोशनी में
स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा था।
काम करती बुढ़िया की
थकी - झुकी कमर
जाड़ों की रात में
ठंड से कांपती हुई
मेरे मस्तिष्क में
एक सिरहन की भांति
कौंध गई, तभी
मैनें सुना
एक बच्चा कह रहा था
माँ-माँ
लोकतंत्र क्या होता है ?
माँ ने यह सुन
बच्चे को कलेजे से
लगाकर,पुचकार कर
एक लम्बी सांस ली
और
अपने उंगलियों के पोरवे
दीपक की
लौ पर रख दिये
तब
छा गया अंधकार
शेष रह गया,
उनके जीवन की भांति,
शून्य में तैरता
दीपक का धुआं ।।
✍️ अशोक विश्नोई, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
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