खेलूँगी दिन रात इसी मैं
अब गंगा के डेरे में
ये मन बसता है मेरा माँ
इस गंगा के मेले में
सजी रंग बिरंगी चूडियां
उन अम्मा के ठेले में
भरकर ले जाऊँगी घर को
मैं अपने इस थैले में
जोकर भी हँसाता खूब
उछले बन्दर सर्कस में
गोरिल्ला है ये तो स्याना
शरबत पीता थर्मस में
हाथी सूंड उठाकर नाचे
मुर्गी जी घूमें बस में
झुकता जंगल का राजा भी
रिंग मास्टर के सामने
चलो माँ छूते हैं आसमाँ
बैठें हम हिंडोले में
धरती घूमती चारों ओर
गोल गोल उस झूले में
चमके चाँदी सा है रेता
चंदा की इस चाँदन में
नजारा हर हृदय में बसता
इस गंगा के मेले में
✍️ प्रीति चौधरी, गजरौला,अमरोहा
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गोल गोल गोलमगोल
वृत्त है मेरा नाम
बॉल बनाकर बच्चों को खिलाना
मेरा अद्भुत काम
पेंसिल बॉक्स के जैसा है मेरा आकार
इसमें रखते बच्चे अपना सारा सामान
ऊपर नीचे दाएं बाएं भुजाएं एक समान
आयत है बच्चों मेरा नाम
दिखता हूं कुछ समोसे जैसा
पर्वत सा कुछ आकार
तीन भुजाएं बच्चों मेरी
त्रिभुज है मेरा नाम
चार भुजाएं मेरी है
आती है बहुत काम
लूडो कैरम मुझसे बनते
वर्ग है बच्चों मेरा नाम
✍️मीनाक्षी वर्मा,मुरादाबाद ,उत्तर प्रदेश
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दाने-दाने को मीलों की सैर किया करते,
कभी सुरक्षित घर लौटेंगे सोच-सोच डरते।
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कदम-कदम पर जाल बिछाए बैठा है कोई,
यही सोचकर आज हमारी भूख- प्यास खोई,
पर बच्चों की खातिर अनगिन शंकाओं में भी,
महनत से हम कभी न कोई समझौता करते।
दाने-दाने को----------------
बारी- बारी से हम दाना चुगने को जाते,
कैसा भी मौसम हो खाना लेकर ही आते,
खुद से पहले हम बच्चों की भूख मिटाने को,
बड़े जतन से उनके मुख में हम खाना धरते।
दाने-दाने को-------------------
सिर्फ आज की चिंता रहती कल किसने देखा,
कठिन परिश्रम से बन जाती बिगड़ी हर रेखा।
डरते रहने से सपनों के महल नहीं बनते,
बिना उड़े कैसे मंज़िल का अंदाज़ा करते।
दाने-दाने को---------------------
आसमान छूने की ख़ातिर उड़ना ही होगा,
छोड़ झूठ का दामन सच से जुड़ना ही होगा,
जो होगा देखा जाएगा हिम्मत मत हारो,
डरने वाले इस दुनियां में जीते जी मरते।
दाने-दाने को---------------------
श्रद्धा,फ्योना,अन्वी,ओजस,शेरी बतलाओ,
अडिग साहसी चिड़िया जैसा बनकर दिखलाओ,
छोटाऔर बड़ा मत सोचो धरती पर ज्ञानी,
किसी रूप में भी आ करके ज्ञान दान करते।
दाने-दाने को-------------------
✍️ वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
मुरादाबाद/उ,प्र,
मो0- 9719275453
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बचपन की जब याद आयी ।
मन ने ली एक अंगड़ाई ।
क्या राजकुमारी से ठाठ थे अपने।
बिन राजा के राज था अपना ।
सब एक रोने पर दौड़े आते थे ।
टॉफी ,चॉकलेट से चुप कराते थे ।
आँचल में अम्मा छिपा लेती,
सारी दुनिया की सैर करा देती ।
आज भी याद आता है ,वो आँचल,
भीनी -भीनी सौंधी सी वो खुशबू ।
आज भी याद करती हूँ ,अपने,
पाती हूँ ,सबसे पहले अम्मा का आँचल
✍️ डॉ शोभना कौशिक, मुरादाबाद
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एक गीदड़ी प्रसव वेदना,
से थी जब घबराई।
गुफा शेर की खाली पाकर,
झट उस में घुस आई।।
बच्चे चार जने, थी आकुल ,
कैसे पेट भरेगा।
नहीं सुरक्षित था जंगल,
पहले ही, अब न चलेगा।।
खुश था गीदड़ किन्तु,
देखा शेर उधर है आता।
वरती चतुराई जबकि,
संकट में कुछ न सुहाता।।
कहा ज़ोर से महारानी
,ये बच्चे क्यों रोते हैं।
औरों के बच्चों को देखो,
चैन से सब सोते हैं।।
भूखे हैं महाराजा बच्चे,
यूं आपा खोते हैं।
बिना शेर का मांस मिले,
ये शांत कहां होते हैं।।
ठिठका शेर सुनी जब बातें,
उसको पड़ी सुनाई।
खाया चक्कर आंखों से भी
,कुछ न पड़ा दिखाई।।
वापस घूमा दौड़ लगाई,
कुछ देखा न भाला।
हाय हाय ये कैसा कौतुक,
प्रभु तुमने कर डाला ।।
मैं जंगल का राजा,
ये महाराज कहां से आए ?
संग महारानी और बच्चे हैं,
कब कैसे घुस पाए??
सारी घटना बड़े ध्यान से,
देख रहा था बंदर।
रोक शेर को दिया समझता,
खुद को बड़ा धुरन्धर !
जंगल के राजा हो बेसुध ,
तुम क्यों दौड़े जाते!
गीदड़ और गीदड़ी हैं वे ,
जिनसे तुम घबराते !!
हुआ नहीं विश्वास शेर फिर,
देने लगा दुहाई।
पूंछ बांध लें चला कपि,
ने सुन्दर युक्ति लगाई।।
सुनो ध्यान से बंदर बाबू,
जो आवाजें आती हैं!
बिना शेर का मांस चबाये,
नींद इन्हें नहीं आती है।।
महाराजा ये कल का वासी,
मांस न बिल्कुल खायेंगे।
लाते होंगे बंदर भैया ,
उसे प्रेम से खाएंगे।।
बिल्कुल ताजा शेर मंगाया,
ताजा जिसका भेजा है।
लाता होगा मित्र मेरा,
बंदर को मैंने भेजा है।।
रे कपि तेरा यह दुस्साहस,
मुझको चकमा दे डाला।
वापस दौड़ा शेर बदन ,
बंदर का रगड़ मसल डाला।।
✍️अशोक विद्रोही , 412 प्रकाश नगर मुरादाबाद,मोबाइल फोन नम्बर 82 188 25 541
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( *1* )
जग चमकाते चंदा मामा
धीरे आते चंदा मामा
( *2* )
दिन जब छिपता ,आसमान में
तब दिख पाते चंदा मामा
( *3* )
दिखते गोलमटोल ,सींकिया
कभी कहाते चंदा मामा
( *4* )
जब आती है दूज , न दिखते
खूब छकाते चंदा मामा
( *5* )
गोरा रंग तुम्हारा कैसे
क्या हो खाते चंदा मामा
✍️ रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा ,रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451
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फुदक फुदक के नन्ही चिड़िया मन ही मन हर्षाती है
दिखता आज साफ नभमण्डल गीत ख़ुशी के गाती है
पेड़ों की घन छाह न भाए नीलगगन है रिझा रहा
संग अपने नन्ही नन्ही चिड़िये और बुलाती है
दाना पानी की न चिंता घर घर झांक रहीं देखो
देख अनुशाषित मानव को मन मन ही पुलकाती है
शोर मचाती नीड मे अपने जाने क्या कहना चाहे
इस डाली से उस डाली तक ची ची ची कर जाती है
खुल कर मोर नाचता दिखया कोयल कूक सुनी बहु जोर
बने अदृश्य जीवों का भी सृष्टि नवसृजन कराती है
✍️इन्दु रानी ,मुरादाबाद
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बड़ा सुहाना बचपन था जब गांव की गली में मारे फिरते
हाथ में रोटी, गुड़ की डली से खाते और खिलाते फिरते
कोई गीत नहीं था याद हमें फिर भी कुछ तो गाते फिरते
सुर-ताल का ज्ञान नहीं, कितना अच्छा गुनगुनाते फिरते
शब्दों का नहीं था ज्ञान हमें कुछ भी कहते-जाते फिरते
एक ही शब्द की पुनरावृति सौ-सौ बार भी करते फिरते
इसी बात पर कितने कुटते घर से बाहर मारे-मारे फिरते
पानी का नहीं था दोष पता ताल तलैया में नहाते फिरते
कहाँ खा लिया, कहाँ सो गए, माता-पिता खोजते फिरते
कितना निर्मल बचपन था वो जिसको आज ढूंढते फिरते
✍️ दुष्यंत ‘बाबा’,मुरादाबाद
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चलो क़िताबें करें इकट्ठी,
अपनी सभी पुरानी।
हम तो पढ़कर निबट चुके हैं,
पर ये व्यर्थ न जायें।
पड़ी ज़रूरत जिनको इनकी,
काम उन्हीं के आयें।
राजा,असलम, गोलू, रोज़ी,
बिन्दर, पीटर, जॉनी।
चलो क़िताबें करें इकट्ठी,
अपनी सभी पुरानी।
जिन मूरख लोगों ने इनको,
केवल रद्दी माना।
उन्हें दिखा दो ज्ञान-ध्यान का,
इनमें छिपा खजाना।
अपना सीखा बाँटें सबको,
हम हैं हिन्दुस्तानी।
चलो क़िताबें करें इकट्ठी,
अपनी सभी पुरानी।
अबके छुट्टी में हम मित्रो,
यह अभियान चलायें।
नहीं किताबें व्यर्थ पुरानी,
द्वार-द्वार समझायें।
दादा, दादी, मम्मी,पापा,
या हों नाना, नानी।
चलो किताबें करें इकट्ठी,
अपनी सभी पुरानी।
✍️राजीव 'प्रखर', मुरादाबाद
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दुनिया में रहूं जब तक आशीष सदा देना।
जग भूले भले मुझको मां तुम न भुला देना।
तुम सामने हो मेरे,
जब आँख खुलें मेरी।
भुजा इन्द्रधनुष सी तेरी।
बाहों का मां पलना, जी भर के झुला देना।
जग भूले भले मुझको मां तुम न भुला देना।
थक हार के जब आऊँ,
मां गोदी तेरी पाऊं।
ध्रुव तारे से ऊपर,
पापा की गोद पाऊं।
ध्रुव तारे के जैसा , मेरा मान बढ़ा देना।
जग भूले भले मुझको ,मां तुम न भुला देना।
बनूं राम, कृष्ण जैसा,
आदर्श बना जाऊं।
भरत तपस्वी सा,
मां ख़ुद को बना पाऊं।
तुम बन के सुमित्रा सी आशीष सदा देना।
जग भूले भले मुझको मां तुम न भुला देना।
✍️रेखा रानी
प्रधान अध्यापिका,एकीकृत विद्यालय गजरौला,
जनपद अमरोहा
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प्रभात सुमन जब मुस्काते हैं
हरे - भरे तरु लहराते हैं ,
प्रसून खिले हुए डाली पर
ज्यों मंद मंद मुस्काते हैं ।
कहते हैं खग , अब उठ जाओ
नील गगन में तुम छा जाओ
अपने अपने सत्कर्मों से
इस घरती को स्वर्ग बनाओ ।
सूरज की लाली भी कहती
समय सुनहरा तुम न गँवाओ
बीत गयी अब रैना काली
नव उमंग मन में भर लाओ ।
✍️डॉ रीता सिंह, मुरादाबाद
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सूरज ताऊ दूर के
ठंड में छुट्टी लेते हैं;
फिकर नहीं वो
करते हैं अपनी
पर जब आते हैं,
हमें पसीने लाते हैं।
✍️उमाकांत गुप्त,मुरादाबाद
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सराहनीय प्रयास
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