आज शुद्ध विचारों का अभाव है,
लेकिन प्रदर्शन का अजीब चाव है,
होली की हमने भी दी हैं बधाईयां,
मगर सोचो! कैसा मन का भाव है?
होली की घर-घर सजावट है,
संस्कारों में आई खूब गिरावट है,
चोरों की मंडी में आई है बहार,
मावे में भी मैदा की मिलावट है।
फिर भी हमने गुजिया खाई है,
पुरखों की परम्परा निभाई है,
आज घर-घर में बैठी है होलिका,
फिर भी गोबर की होली जलाई है।
टेसू-गुलाल की केवल यादें रह गईं,
खीर-पूड़ी की फरियादें रह गईंं,
नहीं मिलते,अब भाई भी दिल से,
जलती होली की सूनी राते रह गईंं।
✍️ अतुल कुमार शर्मा, संभल
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