रविवार, 7 मार्च 2021

मुरादाबाद की साहित्यिक संस्था "हिंदी साहित्य संगम" की ओर से रविवार 7 मार्च 2021 को ऑन लाइन काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया। गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों अशोक विश्नोई, ओंकार सिंह ओंकार, वीरेंद्र सिंह बृजवासी, श्री कृष्ण शुक्ल, अशोक विद्रोही, अखिलेश वर्मा, डॉ मनोज रस्तोगी, राजीव प्रखर, डॉ ममता सिंह, सीमा रानी, डॉ रीता सिंह, इंदु रानी, प्रशांत मिश्र, आवरण अग्रवाल श्रेष्ठ, विकास मुरादाबादी, नकुल त्यागी और नजीब सुल्ताना द्वारा प्रस्तुत रचनाएं----

 


भारतीय,भावुक नागरिक ने

नव- निर्वाचित नेता
को बधाई
देने का विचार बनाया,
उसने फोन घुमाया ,
नेता जी बोले
कौन है भाई
नागरिक ने उत्तर
दिये बिना ही
पश्न किया,
आप कहाँ से बोल रहे हैं
श्री मान
नेता जी
जो अभी तक
अभिमान के आवरण से
मुक्त नहीं हो पाये थे,
झुँझलाकर बोले,
जहन्नुम से-
नागरिक ने उत्तर दिया
मैं भी, यहीं सोच रहा था
कि
तुम जैसा नीच, कमीन, बेईमान
स्वर्ग में तो जा ही नहीं सकता ।।

✍️ अशोक विश्नोई, मुरादाबाद
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फूल खिलते हैं हसीं हमको रिझाने के लिए ।
ये बहारों का है मौसम गुनगुनाने के लिए ।।

बाग़ में चंपा, चमेली ,खेत में सरसों खिली ,
हर कली तैयार है अब मुस्कुराने के लिए ।।

गुलमुहर के लाल फूलों की छटा है फागुनी ,
है रंगीली धूप धरती को सजाने के लिए ।।

देखकर फूलों को खिलता झूमती हैं तितलियाँ ,
मस्त भौंरे गुनगुनाते रस को पाने के लिए ।।

कोंपलों के फूटते ही आम बौराने लगे ,
आ गई डाली पे कोयल गीत गाने के लिए ।।

नाचती हैं तितलियाँ , मधुमक्खियाँ देती हैं ताल ,
मस्त धुन पंखों से बजती झूम जाने के लिए ।।

अब उदासी रात की धुलकर सहर होने लगी ,
आ गया फूलों का मौसम खिलखिलाने के लिए ।।

ताज़गी से भर गया उम्मीद का हर-इक ख़याल ,
गुनगुनी है धूप सर्दी को मिटाने के लिए  ।।

उड़ रही है मस्त खुशबू हर तरफ़ 'ओंकार 'अब ,
दिल उसे करता है साँसों में बसाने के लिए ।।

✍️ओंकार सिंह 'ओंकार'
1-बी-241 बुद्धिविहार,मझोला,
मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश) 244001
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नवल रश्मियों की ऊष्मा के,
पावन       घटक        लिए,
कलियाँ खिली सात रंगोंका,
नव         श्रृंगार        किए।
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मुरझाए   तरुवर     मुस्काए,
इठलाईं                 कलियां,
फूलों  ने   खुशबू   बिखराई,
महक        उठीं      गलियां,
नयनों ने   हर पल वसंत  के,
दर्शन         खूब         किए।
नवल रश्मियों--------------

फूल-फूल का मुख  पुचकारे,
भौंरों           की         टोली,
कोयलिया झुरमुट में छुपकर,
बोले           मृदु         बोली,
तितली ने भी पंख  खुशी  में,
खोले           बंद         किए,
नवल रश्मियों-------------

माँ  वाणी  ने  भी  वीणा  के,
किए         तार        झंकृत,
मानव  ही क्या  स्वयं  देवता,
पीते           रस        अमृत,
सकल सृष्टि को आशीषों के,
भर-भर      कलश      दिए।
नवल रश्मियों--------------

ठिठुरन का संताप मिट गया,
आलस         दूर        हुआ,
शीतलहर का अहम स्वयंही,
चकनाचूर                 हुआ,
वासंती परिधान  पहन  कर,
सुंदर         नृत्य        किए।
नवल रश्मियों--------------

बौर लदी  आमों  की  डाली,
झुककर      नमन        करें,
पशु-पक्षी  भी  एक-दूजे  से,
प्यारी         बात          करें,
कवियोंको भी ऋतु वसंत ने,
नवस्वर       दान        किए।
नवल रश्मियों--------------
      
✍️ वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी, मुरादाबाद/उ,प्र, मोबाइल फोन नम्बर--9719275453
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सेवा में जब तक रहे, अपना रहा जमाल।
आज रिटायर हो गये, हाल हुआ बेहाल।

घर में भी पतले हुए, अब तो अपने हाल।
घरवाली के देखिए, बदल गये सुर ताल।।

सुबह हो गयी है प्रिये, चाय मिले तत्काल।
बोली स्वयं बनाइये, अपनी है हड़ताल।।

आप रिटायर हुए हो, मैं हूँ पूर्ण नियुक्त।
हाथ बँटाओ काम में, मत समझो जंजाल।।

गृहलक्ष्मी के हाथ में, अपनी जीवन डोर।
उनके ऊपर भाइयों, कब चलता है जोर।।

गृहलक्ष्मी को मानिए, अपना माई बाप।
सेल लगी है माल में, ले जाओ चुपचाप।।

पत्नी को संबोधित एक मुक्तक:

तुम आये तो आ गया जीवन में रस रंग।
तुमसे पहले तो रहा, ये जीवन  बेढंग।।
टोक टोक कर रात दिन, बदली मेरी चाल।
पहले मैं लल्लू रहा, अब हूँ मिस्टर लाल।।

✍️ श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद।
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                  देवी हो या कोई अप्सरा,
        स्वर्ग लोक से आयी हो!
मेरे मन के मनमंदिर में ,
      एक तुम ही तुम छाई हो !!

इन्द्रधनुषी भवें तुम्हारी,
             नैना कज़रारे कारे  !
चेहरा सुंदर झील कमल सा,
              होंठ दहकते अंगारे !!
निरख चांद भी चकित है ,
    जैसे चांद की तुम परछाई  हो!!
मेरे मन के मनमंदिर में
          एक तुम्हीं तुम छाई हो!

कालिदास के मेघदूत की,
           तुम्ही उर्वशी लगती हो!
आंखों में सिंदूरी सपने,
            सोती हो या जगती हो!!
तुम ही दिलक़श ख्वाब ज़िगर
           का ग़ालिब की रुबाई हो!!
मेरे मन के मनमंदिर में,
          एक तुम्हीं तुम छाई हो!

लैला मजनूं,हीर रांझा सा,
             मिलन मुझे मंजूर नहीं।।
प्रेम अगन और विरह व्यथा भी,
               कर सकते मज़बूर नहीं !
सप्तपदी में सात जन्म तक,
             तुम संग गांठ बंधाई हो!!
मेरे मन के मनमंदिर में,
           एक तुम ही तुम छाई हो!!

छोड़ छाड़ कर मां बापू को,
          तुम संग भाग नहीं सकता !
जो  मुझको लाये दुनिया में ,
      उनको‌ त्याग नहीं सकता!!
परिणय तभी करूंगा तुम संग,
           साथ बहन और भाई हो!!
मेरे मन के  मनमंदिर में,
              एक तुम्हीं तुम छाई हो !!

प्रेम निवेदन मेरा यदि प्रिय!
            तुम को उत्तम लगता है  ?
कर लेना स्वीकार यदि दिल ,
           फिर भी धक धक करता है ?
वर्ना नाम न आये लव पर,
             दोनों की रुसवाई हो !
मेरे मन के मनमंदिर में,
               एक तुम्हीं तुम छाई हो!!

✍️अशोक विद्रोही , 412 प्रकाश नगर, मुरादाबाद, मोबाइल 8218825541
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बुरा मेरा नसीब था कि ऐसा मोड़ आ गया
जो था मुझे अज़ीज़ वो ही दिल मेरा दुखा गया ।

तू पास आया तो बहार पर निखार आ गया
मृदंग बज उठे समां भी गीत गुनगुना गया ।

मिला नहीं कोई भी वक़्त पे जो काम आ गया
भरोसा जिस पे भी किया वही नज़र चुरा गया I

गई वो तंज मार के वफ़ा पे संग मार के
कि आइना तो टूटा ही दिलों में बाल आ गया ।

लिखा था मेरे हाथ में रहूँगा तन्हा तन्हा मैं
तू ज़िंदगी में आ के उस लकीर को मिटा गया ।

✍️ अखिलेश वर्मा
  मुरादाबाद/अमरोहा
  9897498343
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इज्जत  हो  रही  तार-तार  देश में
हो  रहे  हैं रोज  बलात्कार  देश में            

खुद ही कीजिएगा हिफाजत अपनी
गहरी  नींद  में  हैं  पहरेदार  देश में                

बढ़ रही है हैवानियत किस तरह
इंसानियत  हो रही शर्मसार देश में

'एक्शन' के साबुन से हो जाएगी ये साफ
वर्दी  जो  हो  गई है दागदार देश में

चीखने का कोई होगा नहीं असर
हो गई है बहरी अब सरकार देश में

टीआरपी चैनलों की बढ़ रही 'मनोज'
जमकर  बिक  रहे  अखबार देश में
✍️ डॉ मनोज रस्तोगी, मुरादाबाद
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आहत बरसों से पड़ा, रंगों में अनुराग।
आओ टेसू लौट कर, बुला रहा है फाग।।

छुरी सियासत से कहे, चिन्ता का क्या काम।
मुझे दबाकर काँख में, जपती जा हरिनाम।।

गुमसुम पड़े गुलाल से, कहने लगा अबीर।
चल गालों पर खींच दें, प्यार भरी तस्वीर।।

कुर्सी-कुर्सी देश में जब खेले हुक्काम।
देने बैठीं दाढ़ियाँ, तिनकों को आराम।।

ऐसी भटकी राह से, रंगों की बौछार।
लुकता-छिपता फिर रहा, अब है शिष्टाचार।।

गले मिलाने इस बरस, कैसे आऊँ पास।
है साये में ख़ौफ़ के, अब भी फागुन मास।।

मिल-जुल कर ऐसी करें, रंगों की बौछार।
बह जायें अविलंब ही, मन के सभी विकार।।

✍️ राजीव 'प्रखर', मुरादाबाद
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बदले मिरे नसीब से हालात देखिये। 

होने लगी है प्यार की बरसात देखिये।।

मुझ पर हुआ है उनकी मुहब्बत का ये असर,
गाने लगी हूँ प्यार के नग़्मात देखिये।।

जब से मिली है उनकी वो तस्वीर इक मुझे,
आते हैं बस उन्हीं के  ख़यालात देखिये।।

मौक़ा नहीं मिलेगा  शिकायत का आपको,
इक बार हम पे कर के इनायात देखिये।।

आने लगीं हैं हिचकियाँ उनको भी रात-दिन,
*ममता* ये प्यार की है  शुरूआत देखिये।।

✍️ डाॅ. ममता सिंह, मुरादाबाद
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बेटी मैं आपकी ही हूँ
    जरा पहचान लीजिए |
उडना मैं भी चाहती हूँ,
       खुला आसमान दीजिए ||

मैं ही दुर्गा मैं ही गौरी
मै ही शिवा कल्याणी हूँ |
शक्ति मेरी है अपरम्पार
      अब जान लीजिए
उडना मैं भी चाहती हूँ,
    खुला आसमान दीजिए |

मै ही बहना मैं ही माता,
मैं ही बनती जीवन संगिनी |
अनेकाें रूप हैं मेरे तो अब
           पहचान लीजिए |
उडना मैं भी चाहती हूँ
         खुला आसमान दीजिए |

मैं ही गीता मैं ही क्षमा,
मैं ही लक्ष्मी काली हूं |
बिन मेरे सृष्टि नही सम्भव,
        अब मान लीजिए |
उडना मैं भी चाहती हूँ
        खुला आसमान दीजिए |

माँ की लाडली
       पिता की धडकन,
भाई का गहना हूँ मैं |
बिन मेरे आप सब सूने
       जरा ध्यान दीजिए |
उडना मैं भी चाहती हूँ
      खुला आसमान दीजिए |
बेटी मैं आपकी ही हूँ
       जरा पहचान लीजिए,
उडना मैं भी चाहती हूँ
    खुला आसमान दीजिए |

✍️ सीमा रानी,  पुष्कर नगर, अमराेहा
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भोर के सूरज से निकलती , लहक हैं बेटियाँ
घर उपवन में खिले सुमन की , महक हैं बेंटियाँ
चहचहातीं जो अंजुली भर , खुले आसमां में
बाबुल अँगना की वो मीठी , चहक हैं बेटियाँ ।

बहें जिस लहर सँग भाई वो , बहक हैं बेटियाँ
छोड़तीं राखी के लिये सभी , हक हैं बेटियाँ
हो जाती भस्म जिसमें , कुरुवंश की कुरूपता
याज्ञसैनी के उस क्रोध की , दहक हैं बेटियाँ ।

✍️ डॉ. रीता सिंह, मुरादाबाद
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लिख रहा था जब खुदा तकदीर आधी रह गई
मैं बनाता था जो कल तस्वीर आधी रह गई

थी कोई दौलत वो मेरी प्यार के सब रंग भरी
मेरे हिस्से की मिरी जागीर आधी रह गई

खिल उठा जीवन था मेरा बन सुगंधित फूल सा
चुभ गया काँटे सा बन औ तीर आधी रह गई

मीठे झरने का वो पानी पी जिसे मदहोश था
आदी था जिसका मैं वो तासीर आधी रह गई

वो रही गीतों मे मेरे,मेरी गजलों मे घुली
लिख रहा तो हूँ गजल पर, पीर आधी रह गई

वो मिरी ,मैं भी समर्पित, पा सका फिर भी नही
जल चिता मे रानी मेरी हीर, आधी रह गई

✍️ इन्दु,अमरोहा,उत्तर प्रदेश
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क्यों “धर्म” और “मजहब” की राजनीति
भाई-चारा,  तार–तार करती है,
क्यों “गीता” और “कुरान” की राजनीति
ज्ञान पर प्रहार करती है ,
आखों से देखा.......... तो
लहू का रंग एक था
काया , रूप , रंग, बनावट ,
में न कोई भेद था
फिर न जाने क्यों.......?
इंसानियत में “इन्सान” के प्रकार करती है
क्यों “धर्म” और “मजहब” की राजनीति
मित्रता में शत्रुता का निर्माण करती है

✍️ प्रशान्त मिश्र, मुरादाबाद
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माना कि हम चांद तारे नहीं हैं
सूरज सरीखे के सितारे नहीं हैं
मगर नाज है हमें अपनी रोशनी पर
कभी हम अंधेरों से हारे नहीं हैं |

✍️ आवरण अग्रवाल श्रेष्ठ, मुरादाबाद
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हे    वसंत ,  प्यारे    वसंत  !
मस्ती  लेकर  आओ  वसंत !
अभी व्याप्त करोना  है भूपर ;
इस ढीट रोग का करो अन्त !

अमृत  वरसा  दो माँ  भू पर !
सुख - चैन भरे वसुधा ऊपर  !
ऋतु राज   करो  ऐंसा  जादू ;
मुस्कान व्याप्त हो हर मुंह पर !।

✍️ विकास मुरादाबादी , मो  9997235297
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  लड़ने वाले
कहीं लड़ते हैं बातों से
कहीं लड़ते हैं लातों से
कहीं लड़ते हैं डंडों से
कहीं पिचके टमाटर अंडों से
कहीं क्या ,
सभी लड़ते अपने तरीकों से लेकिन सफल होते केवल वही
जो लड़ते हैं हथकंडो से

✍️ नकुल त्यागी , मुरादाबाद
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देखकर भागने वाला जांबाज नहीं होता
मुश्किलों से हारने वाला सिंदबाद नहीं होता दुनिया में जिसके पास है मां बाप की दुआ
वो इंसान कभी भी बर्बाद नहीं होता

मां तो मां है दुआ भी कमाल देती है
सर पे रखके हाथ बला को टाल देती है
मौहब्बत का किसी की क्या अंदाजा नजीब
खुदाई भी मौहब्बत की मां पर मिसाल देती है

✍️ नजीब सुल्ताना, रफातपुर, मुरादाबाद

1 टिप्पणी:

  1. आप सभी के सहयोग से कार्यक्रम सार्थक रहा। हार्दिक आभार व अभिनन्दन।

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