(1)
हाथ अपने जला के बैठ गए
आग सारी दबा के बैठ गए
एक दीवार की तरह रिश्ते
शाम तक भरभरा के बैठ गए
आ गए हम जो खोलने को भरम
लोग पर्दा गिरा के बैठ गए
एक गूँगी दुकान पर हम-तुम
शब्द अपने सजा के बैठ गए
हम हवा बन के बाँटने को थे
लोग खुशबू चुरा के बैठ गए
(2)
खिलखिलाहट उगा गईं शामें
खुशबुओं में नहा गईं शामें
फड़फड़ाहट बनीं परिंदों की
धड़कनों में समा गईं शामें
भीड़ ,रफ्तार ,गहमागहमी को
चुप्पियों से थाह गईं शामें
एक लट्ठे के थान से फैले
दिन को आकार तहा गईं शामें
फूल, चिड़िया, हवा, उदासी से
एक चेहरा बना गईं शामें
✍️ माहेश्वर तिवारी
नवीन नगर, कांठ रोड
मोबाइल-9456689998
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