करते तो रहे प्रयास मगर ,
हम लिख ना सके तकदीर को।
जो छुपी है कल के गर्त में ,
उस धुंधली सी तस्वीर को।
हर सुबह मेरे दरवाजे पर,
आशाओं की प्यारी धूप खिली।
किंतु जैसे ही सांझ हुई ,
उम्मीद की मेरी सांझ ढली।
हर दिन की ढलती सांझ के,
उस बिखरे हुए अबीर को।
करते तो रहे प्रयास मगर ,
हम लिख न सके तकदीर को।
चाहा था विधाता बन जाऊं
पर बन न सकी इंसान भी।
सोचा था भविष्य पढ़ लूंगी,
पर न पढ़ न सकी वर्तमान भी।
सोचा था कि खुद ही लिख डालूं
उस अनजानी तकदीर को।
जो छुपी है कल के गर्त में,
उस धुंधली सी तस्वीर को।
सोचा हर आंसू पी जाऊं
दे पाऊं खुशी मैं जग भर को।
जग भर की खुशी रही दूर,
हाय दे पाई न खुशियां इस घर को।
रेखा इन जख्मी सांसो पर,
इस जंग लगी जंजीर को।
हम लिख ना सके तकदीर को।
✍️ रेखा रानी, विजयनगर ,गजरौला, जनपद -अमरोहा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें