मंगलवार, 26 मई 2020

मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' द्वारा मुरादाबाद के साहित्यकार शिशुपाल मधुकर के पांच गीत/ नवगीत, तीन गीतिका/ग़ज़ल, एक मुक्तक एवं 25 दोहों पर ऑन लाइन साहित्यिक चर्चा ----


 दिनांक 24 व 25 मई 2020 को वाट्स एप पर  संचालित समूह 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' द्वारा   'एक दिन एक साहित्यकार' की श्रृंखला के अन्तर्गत वरिष्ठ जनवादी कवि शिशुपाल मधुकर की रचनाधर्मिता पर स्थानीय साहित्यकारों ने अपने अपने  विचारों का आदान प्रदान किया। सबसे पहले शिशुपाल मधुकर द्वारा निम्न पांच गीत/ नवगीत, तीन गीतिका/ग़ज़ल, एक मुक्तक एवं 25 दोहे  पटल पर प्रस्तुत किए गए-

*गीत/नवगीत*
-------------------
               
*1.*
मजदूरों की व्यथा-कथा तो
             कहने वाले बहुत मिलेंगे
पर उनके संघर्ष में आना
     यह तो बिल्कुल अलग बात है

कितना उनका बहे पसीना
                कितना खून जलाते हैं
 हाड़ तोड़ मेहनत करके भी
                  सोचो कितना पाते हैं

 मजदूरों के जुल्मों-सितम पर
               चर्चा रोज बहुत होती है
उनको उनका हक दिलवाना
      यह तो बिल्कुल अलग बात है   

मानव है पर पशुवत रहते 
          यही सत्य उनका किस्सा है
रोज-रोज का जीना मरना
           उनके जीवन का हिस्सा है
 
उनके इस दारुण जीवन पर
                आंसू रोज बहाने वालों
उनको दुख में गले लगाना
      यह तो बिल्कुल अलग बात है
 
है संघर्ष निरंतर जारी
             यह है उनका कर्म महान
वे ही उनके साथ चलेंगे 
              जो समझे उनको इंसान
निश्चित उनको जीत मिलेगी
                  पाएंगे सारे अधिकार
लेकिन यह दिन कब है आना
      यह तो बिल्कुल अलग बात है


*2.*
       औरों की सुन-देख देखकर
       मैंने  तो  माँ   को  है  जाना                     
जब मैंने था होश संभाला
       खुद को था बिन मां का पाया
मैं क्या जानूं क्या होता है
        अपनी मां के सुख का साया
टुकुर-टुकुर देखा करता था
           औरों की मां का दुलराना
         
 धमा चौकड़ी शोर मचा कर
           मां की मीठी डांट न देखी                                                                                                                                                                      "मेरी मां सब से अच्छी है"
           कहकर नहीं बघारी शेखी                   
मेरे हिस्से नहीं था आया
      मां से लिपट-लिपट बतियाना

खेल खिलौने तो थे लेकिन
           उनमें मां का प्यार नहीं था
नहीं पीठ पर मां की थपकी
              लोरी का संसार नहीं था
कभी रूठना कभी मचलना
     मुश्किल था इस सुख को पाना 

औरों की मांओं में अक्सर
          अपनी मां  की छवि देखता
मुझको थोड़ा प्यार मिलेगा
             आशाओं का रवि देखता
अपनी मां तो मां होती है
          मां वालों को क्या बतलाना
   

 *3.*

अनगिन धोखे खाकर लौटे
                      नगरों से प्रवासी

दीन-हीन जन भूख प्यास से
                  कब तक यहां लड़े
बदहवास  अनजाने  भय  से
                      पैदल लौट  पड़े
कदम कदम पर बिखर गई है
                   चारों और  उदासी

नगरों  की  कुत्सित  चालों से
                    मन है बहुत दुखी
विपदा  में  भी छले  गए फिर
                        कैसे रहें सुखी
निर्धन  का  हर  कष्ट  उन्हें तो
                 लगती बात ज़रा सी

लंबे   चौड़े   वादे   हैं  पर
                 अमल नहीं भरपूर
टोने - टोटके, आडंबर का
                       जारी है दस्तूर
कल  की  चिंता  में डूबे हैं
                जुम्मन और हुलासी


*4.*
तुम कुछ भी कहो
    हम चुप ही रहें
       यह कैसे तुमने सोच लिया
  अनुबंधों से जुड़ा हुआ है
              बंध हमारा और तुम्हारा
   बार-बार अनुबंध तोड़कर
                 दोष बताते रहे हमारा
  तुम कुछ भी करो
       हम कुछ न कहें
          यह कैसे तुमने सोच लिया
  सीमाओं का करो उल्लंघन
            तुम मर्यादा को  भंग करो
   तुम तो हर सुख का भोग करो
            हमको मन चाहा तंग करो
  तुम जुल्म करो
      हम उसको सहें 
         यह कैसे तुमने सोच लिया
    क्यों कर अब यह झूठ तुम्हारे
              हम सच माने आंखें मूंदे
     जब तुमको है नहीं दीखती
                   मेरी ये आंसू की बूंदे 
 जो हवा चले
     हम उसमें बहें
           यह कैसे तुमने सोच लिया
    तुम हमसे हो हम तुमसे नहीं
           यह बात तुम्हें समझानी है
     व्यवहार तुम्हारा मनमाना
               समझो कोरी नादानी है 
  हम खंडहर बन
        चुपचाप ढहें
           यह कैसे तुमने सोच लिया

   
 *5.* 

      जाने कब हम
              लोकतंत्र में
                 रहना सीखेंगे
                   
    खुद को प्रजा समझ रहे हैं
                       और उन्हें राजा 
       नतमस्तक हो चूमे उनके
                      चौखट दरवाजा
       जाने कब हम
              जन सेवक को
                     चुनना सीखेंगे
                       
       गले सड़े सामंती पन को 
                         ओढ़ के बैठे हैं
        लुटे-पिटे भूखे प्यासे पर
                             रहते ऐंठे हैं 
          जाने कब हम
                नई राह पर
                     चलना सीखेंगे
                       
           ढूंढ रहे प्रश्नों के उत्तर
                     लोक कथाओं में
    मिथकों में, रूढ़ी में जाकर
                        धर्म सभाओं में 
          जाने कब हम
                 नई सोच में   
                     ढलना सीखेंगे


*गीतिका/ ग़ज़ल*
---------------------
(1)
मैं दीपक हूँ भले छोटा मेरी भी इक कहानी है
अँधेरों से नहीं मैंने कभी भी हार मानी है

निरंतर चल रहा हूं बस यही उम्मीद लेकर मैं
अगर मै चल रहा हूं तो मेरी मंजिल भी आनी है

कभी हँसाना कभी रोना कभी चुप तो कभी गाना
ये बातें आम हैं जब तक हमारी जिंदगानी है

निशाने पर रहा हूं मैं निशाने पर रहूँगा मैं
गलत बातों से मेरी तो रही रंजिश पुरानी है

कभी तकदीर की बातें कभी तदबीर की बातें
ये असमंजस की बातें ही जहालत की निशानी है

अँधेरा ही अँधेरा है जिधर भी दूर तक देखो
मशालें फिर नई हमको यहां मिलकर जलानी है

सुनो कुछ कह रहा 'मधुकर' अजब पसरा ये सन्नाटा
भले तूफान न आये मगर आंधी तो आनी है 
                                                                       (2)
     झूठ गर सच के सांचे में ढल जाएगा
     रोशनी को अंधेरा निगल जाएगा

     इतनी बीमार है आज इंसानियत
     लग रहा है कि दम ही निकल जाएगा

     छोड़ दो उसकी उंगली बड़ा हो गया
     ठोकरे खाते - खाते संभल जाएगा

    आ गए भेष धरकर मुहाफिज़ का जो
    राज उनका भी जल्दी ही खुल जाएगा

   अपने हक के लिए सब जो मिलकर लड़ें
    देखिए सारा आलम बदल जाएगा
 
(3)
ज़िदों पर अपनी अड़ने से किसी का क्या भला होगा
दिलों की साफ नीयत में सुलह का रास्ता होगा

चलो यह मान लें कोई किसी से है नहीं कमतर
किसी मुद्दे पे आकर तो कहीं कुछ फैसला होगा

हमारा भी तुम्हारा भी सभी का है वतन प्यारा
अम्न कायम रहे इसमें हमें यह सोचना होगा

तरीका अब कोई सोचे कि जिससे हो भला सबका
पुराना बेअसर हो तो नया फिर खोजना होगा

गले मिलकर भुलाएं सब पुराना हर गिला शिकवा
दिवाली ईद क्रिसमस पर अनोखा ही मजा होगा


*मुक्तक*
-----------

 जिंदगी में जीत भी है जिंदगी में हार भी
  जिंदगी में द्वेष भी है जिंदगी में प्यार भी
  कौन कैसे किस तरह जीता है इसको दोस्तो 
  जिंदगी अभिशाप भी है जिंदगी उपहार भी
               
*दोहे*
--------
ऐसे पतित समाज को भला बचाए कौन
जब झूठों के सामने सच्चे ठाड़े मौन

निजीकरण  के रास्ते रोजगार की चाल
गली-गली में बढ़ रहे नित-नित नए दलाल

रिश्ते जर्जर हो गए नहीं रहा वह मेल
प्रेम- शांति -सद्भाव की सूख रही है बेल

अब तो होती जा रही राजनीति व्यापार
जिधर देखिए हो रही लोकतंत्र की हार

कुर्सी पाने के लिए रहते सदा अधीर
आम आदमी की नहीं सुनता कोई पीर

नकली मुद्दों की चली ऐसी यहां बयार
साथ साथ दोनों बहे मूरख़ व होशियार

रूठे है रिश्ते सभी टूट रहे अनुबंध
अब आपस में रह गया पैसों का संबंध

सत्य खड़ा है सामने पर लगता है दूर
आंखों के इस रोग से लोग मिले मजबूर

नहीं ठौर है सत्य को फिरता है बदहाल
जिधर देखिए लग रही झूठों की चौपाल

ह्रदय प्रेम से हो भरा मन में स्वाभिमान
सच्चे मानव की यही होती है पहचान

सब बंटवारे झूठ हैं सारे मानव एक
कहता है विज्ञान भी कहते संत अनेक

होठों पर आता नहीं उसके मीठा राग
जिसके मन में हो लगी घृणा द्वेषकी

कैसी यह उन्नति हुई कैसा हुआ विकास
धन -दौलत खिचती गई कुछ लोगों के पास

होठों पर आता नहीं उसके मीठा राग
जिसके मन में हो लगी घृणा द्वेष की आग

धन परिभाषित कर रहा अब जीवन के ढंग
फीके  सारे हो गए नैतिकता के रंग

यदि पग - पग अन्याय का होने लगे विरोध
तब सुख के पथ से सभी हट जाए अवरोध

रोना - धोना छोड़ कर हो जाओ तैयार
सुनो मित्र मिलता नहीं  बिन छिने अधिकार

सच्चा साबित कर रहे खुद को झूठे लोग
बतलाते उपवास हैं खाकर छप्पन भोग

हुआ आजकल धर्म भी नया नया व्यवसाय
एक एक उपदेश भी लाखों में बिक जाए

दिन पर दिन महंगे हुए शिक्षा और इलाज
सत्ता के दावे मगर सफल हमारा राज

धर्म जाति के नाम पर सत्ता का व्यापार
लोकतंत्र के साथ में कहलाता व्यभिचार

कहीं जात के नाम पर कहीं धर्म के नाम
वोट बनाने के बने खेमे आज तमाम

तेज कुल्हाड़ी चल रहे चिड़ियां हैं अनजान
बैठ पेड़ पर गा रहीं अपना मंगल गान

राजनीति जो कर रहे नैतिक मूल्य विहीन
पद को दूषित कर रहे हैं जिस पर आसीन

धीरज को छोड़ो नहीं लक्ष्य न जाना भूल
चाहे कितनी भी चले समय चाल प्रतिकूल

    मधुकर जी की रचनाओं पर विचार व्यक्त करते हुए प्रख्यात साहित्यकार माहेश्वर तिवारी ने कहा कि "मधुकर जी जनवादी कवि हैं उनकी आमजन के प्रति प्रतिबद्धता से भरी रचनाएं हैं। वह शोषितों, पीड़तों, के साथ संघर्ष में भागीदारी भी निभाते हैं, उनका रचनात्मक तेवर इसका गवाह है" ।
व्यंग्य कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि "शिशुपाल जी के रचना कर्म की सराहना करता हूं। उनके प्रति मेरा स्नेहभाव पहले से ही है  ।"
 वरिष्ठ कवि डॉ अजय अनुपम ने कहा कि " समाज के आर्थिक रूप से निर्बल वर्ग के दुख दर्द की चिंता इन रचनाओं की केंद्रीय विषय वस्तु है। रचनाओं में शिल्प या छंद से अधिक ध्यान कहने पर दिया गया है।"
मशहूर शायर डॉ कृष्ण कुमार नाज़ ने कहा कि " राजनीति और सामाजिक अव्यवस्थाओं के प्रति विद्वेष और विद्रोह मधुकर जी की अधिकतर रचनाओं में पाया जाता है"।
  नवगीत कवि योगेंद्र वर्मा व्योम ने कहा कि " वर्तमान की विभीषिकाओं, असंगतियों, विद्रूपताओं के अंधकार भरे समय में मधुकर जी संघर्ष की बात करते हुए यथार्थ को बहुत ही संवेदनशीलता के साथ उकेरते हैं"।
   वरिष्ठ कवि डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि "शिशुपाल मधुकर जी की कविताओं में सर्वहारा वर्ग की पीड़ा, आक्रोश और शोषक वर्ग के खिलाफ खड़े होने के भरपूर स्वर मिलते हैं "।
   युवा शायर राहुल शर्मा ने कहा कि "मधुकर जी की रचनाओं में जनवादी स्वर की गूंज स्पष्ट सुनाई देती है। कथ्य की दृष्टि से उनकी रचनाएं समृद्ध हैं"।
  युवा कवि राजीव प्रखर ने कहा कि "समाज में व्याप्त विषमताओं पर सशक्त प्रहार करना मधुकर जी की रचनाओं की विशेषता रही है।"
  युवा शायर अंकित गुप्ता अंक ने कहा कि "मधुकर जी की रचनाओं में वंचितों के प्रति विशेष अपनत्व स्वाभाविक व आवश्यक रूप से दृष्टिगोचर होता है"।    कवि श्रीकृष्ण शुक्ल ने कहा कि "शिशुपाल मधुकर जी की रचनाओं में व्यवस्था के प्रति एक आम आदमी की पीड़ा स्पष्ट दिखाई देती है"।
 ग्रुप एडमिन और संचालक शायर ज़िया ज़मीर ने कहा कि " शिशुपाल मधुकर जी की कविता का मुख्य विषय आम आदमी है चाहे वह मजदूर हो किसान हो अंतिम पंक्ति में खड़ा हुआ व्यक्ति हो जिसे उसका हक नहीं मिला है। मधुकर जी अपने काव्य से उसके हक की तलाश करते हैं। उसका हक मांगते हैं।"

✍️ ज़िया ज़मीर
ग्रुप एडमिन और संचालक
मुरादाबाद लिटरेरी क्लब
मोबाइल- 8755681225

1 टिप्पणी: