मांँ
आता
हैं मेरे
मन जब
दुख हो कोई
देखूंँ तो लगता
ये छूमंतर होई ।
मांँ
सच
की मैंने
मनमानी
अब लगता
नहीं करनी थी
थी केवल नादानी ।
माँ
नहीं
है अब
तब लगे
कुछ ग़लत
न कदम पड़ें
सच्चे रस्ते ही चलें ।
मांँ
तेरे
अनेक
लगें रूप
जननी भी तू
जन्म-भूमि भी तू
जगजननी भी तू ।
मांँ
कोई
सी भी हो
भले ही वो
पशु-पक्षी हों
ममता सभी में
समान पायी जाती ।
मांँ
से ही
संसार
चलाती है
वो परिवार
तभी तो हुई है
उसकी जयकार ।
_राम किशोर वर्मा_
जयपुर (राजस्थान)
दिनांक :- 10-05-2020
 

 
अति सुंदर
जवाब देंहटाएंमाँ शीर्षक सुनकर ही मन मे मात्रभाव उत्पन्न हो जाते हैं ओर आपने हमे इस कविता के माध्यम से बड़ा ही मनोहर रूपांतरण किया ईश्वर से यही पार्थना है कि आप हमें ऐसे ही कविताओ से मंत्रमुग्ध करते रहे धन्यवाद
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