गुरुवार, 7 मई 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार राजीव प्रखर की लघुकथा ---- रिश्ते


"हलो अमन। बेटा, तू, बहू और बच्चे कैसे हैं ? इस बार तो दीपावली पर तुम लोग आ जाओ। बहुत दिन हो गए, मेरा तुम सभी को देखने का बहुत मन है"।
विदेश में बस चुके अपने इकलौते बेटे से फ़ोन पर बात करते हुए वृद्ध माला कातर स्वर में बोली।

"ओफ़्फ़ो अम्मा ! तुम्हें कितनी बार समझाया है कि यहाँ विदेश में नौकरी से छुट्टी मिलना आसान नहीं है। अरे, आने के लिए दुनियां भर के इंतज़ाम करने पड़ेंगे। तुम्हें पता भी है आने में कितना खर्चा होता है। अभी नहीं, बाद में देखेंगे जब फुर्सत होगी", अमन ने बुरी तरह झल्लाते हुए माला से कहा।

"खैर, अब यह बताओ तुम्हारा खर्चा तो ठीक प्रकार से चल रहा है ना ?" बौखलाहट भरे स्वर में  अमन ने पूछा।

"हाँ बेटा, पैसे की जो भी परेशानी थी,  दूर हो गई है क्योंकि तेरे स्वर्गीय पिता जी के फंड व पेंशन का जो पैसा रुका हुआ था, वह मिल गया है। आज ही उसके सारे क़ाग़ज़ मिले हैं। बस, तुम लोग आ जाते तो बहुत अच्छा लगता", कहते-कहते माला की आँखें नम होने लगी थीं।

"अरे वाह अम्मा। यह तो बहुत खुशी की बात है कि पापा का रुका हुआ सारा पैसा अब तुम्हें मिल गया है। अरे तुम बिल्कुल  चिंता मत करो। हम अगली ही फ्लाइट से तुम्हारे पास पहुँच रहे हैं", कहते-कहते अमन ने उधर से फ़ोन काट दिया था।

अपने स्वर्गीय पति की पेंशन व फंड के क़ाग़ज़ थामे माला के हाथ अब काँपने लगे थे।

✍️ राजीव 'प्रखर'
डिप्टी गंज
मुरादाबाद

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