गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार मंगलेश लता यादव की कहानी ----- वो दूसरा


     अभी आंख पूरी तरह से खुली भी नहीं थी कि कानों में जोर जोर से रोने की आवाजें आने लगी । हड़बड़ा कर उठी और ध्यान  से सुना तो हवेली के पीछे मंजा चाची के रोने का स्वर था । जल्दी जल्दी नीचे उतर कर आईऔर दीदी से पूछा ये चाची के रोने की आवाज क्यूं आ रही क्या हुआ? जिठानी ने रुंधे गले से बताया ,चाचा नहीं रहे ,सुन कर क्षण भर को धक्का लगा और चाची का चेहरा आंखों के सामने आ गया। "चलो जल्दी से चाय बना लो सबको पहुंंचानी है "जिठानी की आवाज सुन कर यंत्रवत रसोईघर की तरफ कदम बढ़ा दिए।
चाय का पानी खौल रहा था और मेरा मन मंजा चाची के जीवन की झांकी में झांक रहा था....अपनी शादी से बीस बरस से चाची का हर रोज आना और मांजी से उनका अपनापन और दोस्ताना देखती आ  रही हूं।चाची के बिना घर का कौई काम सम्पन्न नहीं होता था ।हर रोज आकर अपनी रोजमर्रा की कामों की गिनती कराती और बहू बेटों ,नाती पोतों की बातें करती और फिर मांजी की सलाहें मशवरे और ना जाने क्या क्या बातें होती । मैं उनके आने पर बस उनके पैर छूकर बैठने के लिए पीढ़ा डाल कर अपने काम में लगी रहती,पर कान अक्सर उनकी बातों पर होते थे।
अक्सर सुनाई देता था कि दूसरा आज खाना खाने नहीं आया ,दूसरे को आज पानी भर के रख आई,आज दूसरे के कपड़े धोए और न जाने क्या क्या कामों की गिनती और बातें पर नाम दूसरा,,।की बरस बीत गए पर किसी से पूछने की हिम्मत न हुई कि ये दूसरा कौन है??
आखिर एक दिन मांजी का सही मिजाज देख कर पूंछ ही लिया "ये चाची दूसरा किसको कहती हैं और उसका बहुत ख्याल रखती है उसके सारे काम करती हैं ,कौन है ये ??मांजी  ने सपाट स्वर मैं जबाव दिया चाची से ही पूंछ लेना कभी।

    .परमीशन मिल चुकी थी सो अगले दिन चाची का बेसब्री से इंतजार करती रही और उस दिन चाची रोज की अपेक्षा देर से आतीं।,पैर छूकर पीढ़ा डाल दिया और मांजी के कपड़े तह बनाने का बहाना करके पास ही बैठ गयी ईधर उधर की बातों के बाद आखिर मुद्दे की बात ही गयी,चाची बोली,"आज चाय ना बनायी"।मैंने पूछा क्यों।चाची बोलीं दूसरा न था सो अपने अकेले के लिए क्या बनाती।बस मुझे तो जैसे इसी का इंतजार था पूंछ बैठी चाची दूसरा कौन है?? चाची हड़बड़ा गयी उन्है मुझसे ये उम्मीद न थी।अचकचा कर बोली कौन न बेटा ।ऐसा ही है एक। मैंने मांजी की तरफ देखा वो समझ गयी , हंस कर बोली बता दो आज ये बहुत दिनों से परेशान हैं दूसरे के बारे में जानने को। चाची कुछ सकुचाई फिर बोली कल बताऊंगी।   

     रात बहुत मुश्किल से कटी क्यूंकि कल का इंतजार था और चाची के 'दूसरे 'का परिचय पाना था ।खैर जैसे तैसे शाम आई और चाची का आगमन हुआ देखा झोली में कुछ बांध कर लाईं है आते ही बोली'ले बहू आज तेरे लिए बाग से अमरुद लाईं हूं एकदम मीठे और गद्दर है'।मांजी ने बता रखा था मुझे कुच्चे अमरूद पसंद है । मैं चहक गयी 'अरे चाची आज तो मेरे मन का काम हो गया ,पर अब अपना कल का वादा पूरा करो आज मुझे बताना पड़ेगा कि दूसरा कौन है '। चाची को लग गया था आज रिश्वत काम ना आयेगी।
     
     चाची ने कुछ गम्भीर मुद्रा बनायी और सोचते हुए बोली' बेटातुम नऐ जमाने की पढ़ी लिखी लड़की हो हमारी बात तुम्हारी समझ में न आ्वेगी'। मैंने मनुहार करते हुए कहा''चाची तुम्हारी ये बात सच हो सकती है लेकिन तुम मेरी इस बात पर यकीन कर सकती हो कि मुझे पुराने जमाने की बातें और अपने बड़ों की बातें सुनना अच्छा लगता है'।चाची इस बात को नकार नहीं सकी क्योंकि इतने बरसों से वह मेरा व्यवहार देखती आ रही थी। थोड़ी देर चुप रही फिर इधर उधर देखा ,आश्वस्त हुई कि उनकी बातों को सुनने वाला मेरे सिवाय आसपास कौई और नहीं था।मेरे कन्धों पर दोनों हाथों को रख कर बोली 'बेटा मेरी जिंदगी में मेरे मन के इतने करीब आने बाली तुम दूसरी इंसान हो ,जो मेरे मन की गहराइयों में उतर रही हो'। और ऐसा लगा कि वो कहीं दूर यादों की वादियों में खो रही है। मैं शांत चित्त होकर उनके चेहरे पर आऐ भावों को पढ़ने की कोशिश करती रही और अब चाची की आंतरिक वेदना शब्द बन कर मेरे कानों में पड़ने लगी ,

'बेटा औरत का मन एक कोरे कागज सा होवे है ।दस बरस की थी जब घर में मेरे ब्याह की बातें होने लगी,और एक दिन वो भी आया कि बापू ने अम्मा को बताया कि चार गांव छोड़ कर मेरे लिए एक अच्छा रिश्ता मिल गया है और वो मेरे रिश्ते की बात पक्की कर आए हैं। लड़का पहलवानी करता है और घुड़सवारी का भी शौक है,क्यो न होताआखिर वो दद्दा (मेरे ससुर जी जो समय के जमींदार थे उनको वो दद्दा कहती थी)के संग जो रहते थे।अम्मा बहुत खुश थी और मै...मेरे तो सपनों में पंख लग गऐ थे।दिन रात सपनों में उनकी ही कल्पना करती रहती , घोड़े पर सवार सजीला नौजवान, मेरे मन के कोरे कागज पर उनका नाम लिख गया था जो अमिट था।
सपने और समय दोनों पंख लगा कर उड़ते रहे ,और वो दिन भी आ गया जब मेहमानों की गहमागहमी और सहेलियों की हंसी ठिठोली के बीच मैंने  उसके नाम की हल्दी और मैहंदी रचाई।शाम को बारात के आने का इंतजार था ,  लेकिन बारातियों की भीड़ न थी ,केवल दद्दा थे और चार लोग साथ में , गहमा-गहमी कानाफूसी में बदल गयी मुझे तो कुछ समझ न आया क्या हुआ और क्या होने जा रहा था कुछ पता न चला, दो चार घंटे बाद पंडित जी ने ब्याह की रस्में शुरू कर दी और मैं मोटी चादर के घूंघट में मंत्रो और अग्नि को साक्षी मानकर सात जन्मों के बंधन में बंध गयी।रोते बिलखते सबसे गले मिल विदाई हुई और मुझे मां ने पल्लू में चावल के साथ संस्कार और सीख लेकर विदा किया कि अब ससुराल ही तुम्हारा घर है  वहीं जीना है वहीं मरना है।सजी हुई बैलगाड़ी से जब ससुराल की देहरी पर उतरी तो माहौल में कहीं खुशियों का एहसास न हुआ ,मुझे उपर के कमरे में बिठा दिया गया, थोड़ी देर में बड़ी ननद ने आकर पानी पिलाया तो नादान थी पूंछ बैठी'जिजी घर में बड़ी शांति है सब मेहमान चले ग्ऐ क्या?'सुन कर उन्होंने एक पल मुझे देखा और जोर जोर से रोने लगी और जो उन्हौने बताया उसने मेरे सपनों की दुनिया को आसमान से लाकर जमीन पर पटक दिया था 'कल सबेरे नरेश (मेरे पति जिनसे मेरी शादी तय हुई थी)को खेत पर सांप ने डस लिया था और एक घंटे में ही उनकी मौत हो गयी  ब्याह के घर में मातम छा गया अम्मा तो तब से होश में ही नहीं है अब घर के इकलौते वारिस महेश ही बचे थे तो हवेली वाले दद्दा ने सुझाया कि बारात न रोकी जाए महेश से तुम्हारे फेरे पड़वा कर बहू घर ले आओ तो अम्मा की जान भी बच जायेगी और धीरे धीरे सब ठीक हो जायेगा' ।।मुझे आगे कुछ सुनाई नहीं दिया  सब तरफ अंधेरा ही अंधेरा दिखने लगा था  ,लगा इससे तो अच्छा होता वही सांप मुझे भी आकर डस लेता ।पर ऐसा कुछ नहीं हुआ मेरे मन हजारों टुकड़े जरुर हुए और उसमें हर तरफ मुझे मेरा घुड़सवार पहलवान ही नजर आया ।कोरे कागज पर लिखा नाम मिटता ही नहीं था ,पर मेरे मन की पीर समझने वाला कोई नहीं था,और दिल का कौई कोना किसी और को जगह देने को तैयार नहीं था, लेकिन मैं कुछ कर भी नहीं सकती थी बस दिल से निकला 'ये वो नहीं है ये तो "दूसरा"है। फिर सब कुछ बदल गया लेकिन आज भी वो  पहलवान दिल से निकल कर नहीं गया।  इतना सब कुछ सुनाने के बाद चाची एकदम शांत नदी की तरह चुप हो गयी थी। फिर ठंडी सांस लेकर बोली थी 'आज सब कुछ तुम्हारे सामने है बहू चार बेटे दो बेटियां और उनके बच्चे  पर आज भी ढंग से तुम्हारे चाचा का चेहरा नहीं देखा वो ही नजर आता है इसलिए मुंह से उनके लिए "दूसरा"ही निकलता है। आज भी अम्मा के वो पल्लू में बांधे गए चावल और संस्कार याद रहते हैं सो सब कुछ निभा रही हूं।चलती हूं उसकी रजाई पर खोल चढ़ाना है देर हो गयी ।'और चाची चली गयी थी ।
मेरे लिए नारी मन की अंतरव्यथा को समझने के लिए अनगिनत प्रश्न जिनको आज भी नहीं सुलझा पाई।'
"अरे तुम्है चाय बनाने को कहा था कि रबड़ी घोंटने को" जेठानी की आवाज ने मेरी तंद्राको भंग किया और  और चाय भी उबल कर पक चुकी थी शायद चाची की जिंदगी की तरह ।चाय छानते हुए चाची का करुण रूदन सुनाई पड़ा "अरे मैं विरहा अब कैसे  जिऊंगी"??
   
   ✍️ मंगलेश लता यादव
जिला पंचायत कम्पाउंड कोर्ट रोड
 मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन नंबर 9412840699
            

1 टिप्पणी:

  1. बहुत मार्मिक, गहरी मनोवैज्ञानिक कहानी, मेरे मन में पहली ही बार में पसर गयी ये कहानी । इस कहानी के लिए नमन, दीदी!

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