गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

मुरादाबाद मंडल के जनपद संभल निवासी साहित्यकार अतुल कुमार शर्मा की कहानी---- क्षत-विक्षत मैं धरती मां हूँ


जिस मोहल्ले में मैंने अपना मकान बनाया था,पहले यहां आंडू और पपीते के बाग हुआ करते थे।लहलहाते पालक और मूली के खेत,मुझे आज भी अच्छे से याद हैं,लेकिन खेत-स्वामी मुरारी ने,ऊंचा लाभ कमाने और शायद बड़ा आदमी बनने की कोशिश में,महंगे दामों में,इन भूमि खंडों को बेच दिया था।वह अपनी भूमि के टुकड़े-टुकड़े करके,लगभग बड़ा आदमी तो बन गया लेकिन वह भी एक छोटे से भूखंड में ही सिमट कर रह गया।अब उसका खेत न होकर,सौ गज जगह में ही एक मकान था हालांकि उसमें सारी सुख सुविधाएं थीं, टी०वी०, फ्रिज से लेकर ए०सी०,कूलर तक, और ऊपर से ऐसा जाल,कि कोई परिंदा भी पर न मार सके।खैर,इतना सब कुछ खोकर, उसने समाज में थोड़ा सम्मान जरूर प्राप्त किया था,ठेले पर सब्जी बेचने वाला भी,डोरबेल बजाकर पूछता कि कौन-कौन सी सब्जियां चाहिए साहब?
घर में ऊंचे कद का एक झबरीला कुत्ता भी दूध-ब्रेड खाता और पिंजरे में बैठकर एक तोता भी मिट्ठू-मिट्ठू चिल्लाता।अपने खेत के पेड़ों को काटने के प्रायश्चित में,उसने घर की छत पर गमलों में,मनीप्लांट,तुलसी,एलोवेरा,सदाबहार आदि के पौधे जरूर लगा लिए थे।लेकिन उसकी यह शानो-शौकत,ज्यादा दिन तक टिक नहीं पाई,क्योंकि अपने खेतों को महंगे दामों में बेचकर,जो धन कमाया, वो शायद शाही खर्चों को झेल नहीं पाया।रोजगार या नौकरी में शर्म आती थी क्योंकि अब वह किसान न रहकर,मन से ही,एक पूंजीपति बन चुका था। खेती-किसानी की तो,उसके पूरे घर में,कोई निशानी भी न बची थी।
बुजुर्गों की कहावत याद आती है कि समय बहुत बलशाली होता है,पलक झपकते ही कुछ से कुछ कर जाता है। आखिर हुआ वही, जिसका अंदेशा था। उसके रहन-सहन का स्तर डगमगाने लगा,समय-समय पर अपनी खोई हुई भूमि को,याद करके,आंखें नम करने का समय आ गया जिससे उसे खाने लायक मिल जाता था और कम संसाधनों में उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहती थी।
उस मुरारी के दुख से दुखी होकर,भगवान को कोसता हुआ, मैं अपने उस मकान की छत को निहार रहा था,जिस मकान को मैंने भी,उन खेतों में बनाया था, जिन खेतों से,कुछ लोगों को फल और सब्जियां मिलती थीं।इस चिंतन-मनन में ही,न जाने कब निंदिया रानी ने,मुझे अपनी गिरफ्त में ले लिया?और फिर धरती मां ने मुझे अपने दर्शन दिए।मुझे लगा कि कुआं ही प्यासे के पास चल कर आ गया है,अब मैं सारे प्रश्नों को पूंछ कर,धरती मां को निरुत्तर करके मुरारी की समस्या का समाधान करा ही दूंगा।
   मैं तुरन्त,धरती मां पर धृष्टता से अकड़ पड़ा,कहा -'' तुम कैसी मां हो तुम्हारा एक पुत्र भुखमरी की कगार पर है उस पर तरस खाओ, उसका कल्याण करो।''
धरती मां बोलीं - '' शांत हो जाओ वत्स! मेरी करोड़ों-अरबों सन्तानें हैं,मैं तो सबका कल्याण ही चाहती हूँ,कभी मन में भी बदले की भावना नहीं लाती,लेकिन मेरी ही सन्तानें,मुझे सम्मान नहीं दे पातीं, और मैं क्षत-विक्षत होकर,निरंतर कष्टों से व्यथित हूं।मेरी नदियां प्रदूषण की मार झेल रहीं हैं,मेरे वक्ष पर सुसज्जित वृक्षों को काटा जा रहा है,मेरे वन्य जीव,घुट-घुटकर जीने को मजबूर हैं,अपनी संतानों को कष्टदायी दशा में देखकर,भला मैं कैसे प्रसन्न हो सकती हूं? मेरी सन्तानें,जिस दिन मुझे सम्मान देना सीख जाएंगी,ढेर सारे सुखों से लाभान्वित होने लगेंगी,और फिर मेरा जीवन भी कई गुना बढ़ जाएगा।''
इतने में ही,मुरारी ने मेरे घर पर आवाज लगाई - आओ!चलते हैं,पार्क में कुछ पौधे लगाते हैं,और फोटो तथा खबर,अखबारों में देते हैं, जो कई शहरों तक जाएगा।
मैंने चिल्लाकर कहा कि बिना पंखों के आकाश में उड़ोगे,तो औंधे मुंह गिरने के अलावा कोई चारा नहीं है।इसलिए अपनी धरा को पहचानो,धरती पर चलना सीखो,इतना सब कुछ पाकर, कुछ देना भी सीखो। आओ!पार्क में हम सभी मिलकर,ज्यादा से ज्यादा पौधे रोपते हैं, ताकि अपने और अपनी धरती माता के लिए कुछ अच्छा कर सकें।

✍️ अतुल कुमार शर्मा
निकट प्रेमशंकर वाटिका
सम्भल
उत्तर प्रदेश, भारत
मो०-9759285761,8273011742

9 टिप्‍पणियां:

  1. हम सभी पौधे लगाऐंगे,पर्यावरण महकाऐंगे।

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  2. अद्भुत चित्र खींचा है आपने। इंसान न जाने कब मनुष्य बनेगा।
    ब्रजेश शर्मा

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