गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार जिया जमीर की गजल ---- जां बचाते हुए होते हैं फ़रिश्ते भी शिकार, उफ! ये मनहूस बिमारी नहीं देखी जाती ।


मेरे   मौला   तिरी    मर्ज़ी   नहीं   देखी   जाती
ये   जो  दुनिया  है  ये  ऐसी  नहीं  देखी  जाती

जां   बचाने   के   लिए  मास्क  लगाए   हुए  हैं
लेकिन  आँखो की  ख़मोशी  नहीं  देखी  जाती

हाथ  धोने   में   कहां  कोई   क़बाहत  है  मगर
हाथ   से   हाथ   की   दूरी  नहीं    देखी  जाती

सुनी  जाती  नहीं  सड़कों  की  ये  सांय - सायं
और  ये  सुनसान  गली  भी  नहीं  देखी  जाती

ऐसा लगता  है कि  रहता  नहीं  कोई  भी  यहां
हम   से   वीरान  ये  बस्ती   नहीं  देखी   जाती

पार्क  को तकती  इन आंखों  पे तरस  आता है
नन्हीं   आंखों   की   उदासी  नहीं  देखी  जाती

डस्टबिन  में  से  जो  चुपके   से  उठा  लेता  है
बूढ़े   हाथों   में   वो   रोटी  नहीं   देखी   जाती

पिटते   मज़दूरों   के   जत्थे   नहीं  देखे   जाते
भूखे   जिस्मों  पे   ये  लाठी  नहीं  देखी  जाती

देखा जाता नहीं मय्यत की ये तदफ़ीन का ढंग
बिना   कांधे   कोई   अर्थी   नहीं   देखी  जाती

है  ये  मालूम  नहीं  इसके  सिवा  कोई  इलाज
फिर भी  मख़लूक़  ये  क़ैदी  नहीं  देखी  जाती

जां  बचाते  हुए  होते  हैं  फ़रिश्ते  भी  शिकार
उफ!  ये   मनहूस   बिमारी   नहीं  देखी   जाती

ये  नहीं  हों  तो  बपा हशर्  कभी का  हो जाए
फिर क्यूं  ख़ुश हो के ये वर्दी नहीं  देखी जाती!

  ✍️ ज़िया ज़मीर
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत

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