प्रथम अध्याय
ईश्वर को मेरी प्रार्थना
-------------------------
कोटि-कोटि वंदन करूँ, वीणावादिनि तोय।
ज्ञान, बुद्धि की दात्री, पूर्ण काम सब होय।।
परमपिता श्रीकृष्ण हैं, उनको कोटि प्रणाम।
ओम नाम में विश्व सब, अनगिन तेरे नाम।।
हे गणपति! होकर सखा, करना चिर कल्याण।
नितप्रति ही हरते रहो, जीवन के सब त्राण।।
कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्य निरीक्षण
-----------------------------------------
धृतराष्ट्र उवाच
संजय से हैं पूछते ,धृतराष्ट्र कुरुराज।
कुरुक्षेत्र रण भूमि में, क्या गतिबिधियां आज।।1
संजय उवाच
राजन सुनिए आप तो, सेनाएँ तैयार।
दुर्योधन अब कह रहा, सुगुरु द्रोण से सार।। 2
पाण्डव सेना है बली, नायक धृष्टद्युम्न।
व्यूह- सृजन है अति विषम, दुर्योधन अवसन्न ।। 3
बलशाली हैं भीम-से, अर्जुन से अतिवीर।
महारथी युयुधान हैं, द्रुपद, विराट सुवीर।। 4
धृष्टकेतु चेकितान हैं, पुरजित, कुंतीभोज।
शैव्य सबल से अतिरथी, बढ़ा रहे हैं ओज।। 5
उत्तमौजा सुवीर है, अभिमन्यु महावीर।
युधामन्यु सुपराक्रमी, पुत्र द्रोपदी वीर।।6
मेरी सेना इस तरह, सुनिए गुरुवर आप।
महाबली गुरु आप हैं, भीष्म पितामह नाथ।। 7
कर्ण-विकर्ण पराक्रमी, गुरुवर कृपाचार्य।
भूरिश्रवा महारथी, कभी न माने हार।। 8
अनगिन ऐसे वीर हैं, लिए हथेली जान।
अस्त्र-शस्त्र से लैस हैं, करते हैं संधान।। 9
शक्ति अपरिमित स्वयं की, भीष्म पिता हैं साथ।
पांडव सेना है निबल, दुर्योधन की बात।। 10
सेनानायक भीष्म के, बनें सहायक आप।
महावीर हैं सब रथी , सेना व्यूह प्रताप।। 11
दुर्योधन ने भीष्म का, किया बहुत गुणगान।
बजा शंख जब भीष्म का, कौरव मुख मुस्कान।। 12
शंख, नगाड़े बज गए, औ' तुरही, सिंग साथ।
कोलाहल इतना बढ़ा, खिले कौरवी गात।। 13
पांडव सेना ने सुना, भीष्म पितामह घोष।
अर्जुन, केशव ने किए , दिव्य शंख उद्घोष।। 14
कृष्ण ईश का शंख है, पाञ्चजन्य विकराल।
पार्थ का है देवदत्त , भीम पौंड्र भूचाल।। 15
विजयी शंख अनन्त है, राज युधिष्ठिर धर्म।
नकुल शंख सुघोष है, सहदेव मणी पुष्प।। 16
परम् वीर धृष्टद्युम्न , जेय सात्यकि वीर।
शंखनाद सुन वीर के , कौरव हुए अधीर।। 17
शंखों की घन विजय-ध्वनि, गूँजी भू, आकाश।
दुर्योधन सेना हुई, उर में गहन हताश।। 18
शंखों की जब ध्वनि बजी, कोलाहल है पूर्ण।
दुर्योधन के भ्रात सब, उर में हुए विदीर्ण।।19
कपि-ध्वज- सज्जित रथ चढ़े, अर्जुन हुए प्रचेत।
धनुष बाण कर ले लिए, कहा कृष्ण समवेत। 20
अर्जुन उवाच
अर्जुन बोले कृष्ण प्रिय, तुम हो कृपानिधान।
सेनाओं के मध्य में, रथ को लें श्रीमान।। 21
अभिलाषी जो युद्ध के, कौरव सेना साथ।
लूँ उनको संज्ञान में, करने दो-दो हाथ।। 22
देखूँ सेना कौरवी, धृत के देखूँ पुत्र।
कौन- कौन दुर्बुद्धि हैं, कौन-कौन हैं शत्रु।। 23
संजय ने धृतराष्ट्र से कहा
संजय ने धृतराष्ट्र से, कहा सैन्य आख्यान।
माधव ने रथ को दिया,सैन्य मध्य स्थान ।। 24
पृथा पुत्र अर्जुन सुनें, ईश कृष्ण उपदेश।
योद्धा जग के देख लो, बचा न कोई शेष।। 25
सेनाओं के मध्य में, अर्जुन डाले दृष्टि।
संबंधी हैं सब खड़े , खड़े मित्र और शत्रु।। 26
सब अपनों को देखकर, अर्जुन है हैरान।
करुणा से अभिभूत है, कोमल हो गए प्राण।। 27
अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से भावविभोर होकर इस तरह अपने भाव प्रकट किए
अर्जुन बोला हे सखे, सब ही मेरे प्राण।
अंग-अंग है कांपता, मुख है मेरा म्लान ।। 28
रोम-रोम कम्पित हुआ, विचलित ह्रदय शरीर।
गाण्डीव भी हो रहा, कर में विकल अधीर।। 29
सिर मेरा चकरा रहा, तन भी छोड़े साथ।
सखे कृष्ण सब देखकर, हुआ अमंगल ताप।। 30
कृष्ण सुनो मेरी व्यथा, मुझे न भाए युद्ध।
राज्य विजय न चाहिए, जीवन बने अशुद्ध।। 31
गोविंदा मेरी सुनो, क्या सुख है,क्या लाभ।
सब ही मेरे मीत हैं, सब ही मेरे भ्रात।। 32
हे मधुसूदन आप ही, मुझे बताएँ बात।
गुरुजन, मामा, पौत्रगण, सब ही मेरे तात।। 33
कभी न वध इनका करूँ, सब ही अपने मीत।
मुझको चाहे मार दें, या लें मुझको जीत।। 34
तुम ही कृपानिधान हो,ना चाहूँ मैं लोक।
धरा- गगन नहिं चाहिए, भोगूँगा मैं शोक।। 35
धृतराष्ट्र के पुत्र सब, यद्यपि सारे दुष्ट।
फिर भी पाप न सिर मढूं, जीवन हो जो क्लिष्ट।। 36
हे अच्युत!मेरी सुनो, यद्यपि सब ये मूढ़।
लोभ, पाप से ग्रस्त हैं, प्रश्न बड़ा ये गूढ़।। 37
हम पापी क्योंकर बनें, हम तो हैं निष्पाप।
वध करके भी क्या मिले, भोगें हम संताप।। 38
नाश हुआ कुल का अगर, दिखे न कोई लाभ।
धर्म लोप हो जाएगा, बढ़ें अधर्मी पाप।। 39
कृष्ण सखे सच है यही, कुल में बढ़ें अधर्म।
धर्म नाश हो जगत में, पाप दबाए धर्म।। 40
पाप बढ़ें कुल में अगर, नारी करें कुकर्म।
वर्णसंकरित कुल बने , क्षरित मान औ' धर्म।। 41
कुलाघात यदि हम करें, हो जीवन नरकीय।
पितरों को भी कष्ट हो, पिंडदान दुखनीय।। 42
कुल परम्परा नष्ट हो, मिटें धर्म सदकर्म।
मनमानी सब ही करें, रहे लाज ना शर्म।। 43
कुलाघात यदि हम करें, मिट जाते कुल धर्म।
वर्णसंकरी दोष से, नष्ट जाति औ' धर्म।। 43
गुरु परम्परा ये कहे, सुनो कृष्ण तुम बात।
जिसने छोड़ा धर्म है, मिले नरक- सौगात।। 44
घोर अचम्भा हो रहा, मुझको कृपानिधान।
राजभोग के वास्ते, क्या है युद्ध निदान।। 45
धृतराष्ट्र के पुत्र सब, चाहे दें ये मार।
नहीं करूँ प्रतिरोध मैं, मानूँ अपनी हार।। 46
महाराजा धृतराष्ट्र से ये सब वर्णन संजय सारथी ने कहकर सुनाया
बाण-धनुष अर्जुन तजे, शोकमना है चित्त।
केशव सम्मुख हो रहा, विकल भाव- अनुरक्त ।। 47
इति श्रीमद्भागवतरूपी उपनिषद एवं ब्रह्माविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में " अर्जुन विषादयोग " नामक अध्याय 1 समाप्त
अध्याय द्वितीय
धृतराष्ट्र के सारथी संजय ने धृतराष्ट्र से सैन्यस्थल का आँखों देखा हाल कुछ इस तरह कहा।
अर्जुन ने श्री कृष्ण से , किया शोक- संवाद।
नेत्र सजल करुणामयी ,तन-मन भरे विषाद।। 1
श्री कृष्ण भगवान उवाच
प्रिय अर्जुन मेरी सुनो, सीधी सच्ची बात।
यदि कल्मष हो चित्त में, करता अपयश घात।। 2
तात नपुंसक भाव है, वीरों का अपमान।
उर दुर्बलता त्यागकर, अर्जुन बनो महान।। 3
अर्जुन ने भगवान कृष्ण से कहा
हे! मधुसूदन तुम सुनो, मेरे मन की बात।
पूज्य भीष्म,गुरु हनन की, उन पर करूँ न घात।। 4
पूज्य भीष्म,गुरु-हनन से, भीख माँगना ठीक।
गुरुवर प्रियजन श्रेष्ठ हैं, ये हैं धर्म प्रतीक।। 5
ईश नहीं मैं जानता,क्या है जीत-अजीत।
स्वजन-बांधवों का हनन, कब है नीक प्रतीत।। 6
चित्त निबलता ग्रहण कर, भूल गया कर्तव्य।
श्रेष्ठ कर्म बतलाइए, जो जीवन का हव्य।। 7
साधन अब दिखता नहीं, मिटे इन्द्रि दौर्बल्य।
भू का स्वामी यदि बनूँ, नहीं मिले कैवल्य।। 8
संजय ने धृतराष्ट्र से इस तरह भगवान कृष्ण और अर्जुन का संवाद सुनाया
मन की पीड़ा व्यक्त कर, अर्जुन अब है मौन।
युद्ध नहीं प्रियवर करूँ, ढूंढ़ रहा मैं कौन।। 9
सेनाओं के मध्य में, अर्जुन करता शोक।
महावीर की लख दशा, कृष्ण सुनाते श्लोक।। 10
श्री भगवान ने अर्जुन को समझाते हुए कहा
पंडित जैसे वचन कह, अर्जुन करता शोक।
जो होते विद्वान हैं, रहते सदा अशोक।। 11
तेरे-मेरे बीच में,जन्मातीत अनेक।
युद्ध-भूमि में जो मरे, लेता जन्म हरेक।। 12
परिवर्तन तन के हुए, बाल वृद्ध ये होय।
जो भी मृत होता गया , नव तन पाए सोय।। 13
सुख-दुख जीवन में क्षणिक,ऋतुएँ जैसे आप।
पलते इन्द्रियबोध में, धैर्यवान! सुख- पाप।। 14
पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन सुनो, सुख-दुख एक समान।
जो रखता समभाव है, मानव वही महान।। 15
सार तत्व अर्जुन सुनो, तन का होय विनाश।
कभी न मरती आत्मा, यह तो अमिट प्रकाश।। 16
अविनाशी है आत्मा, तन उसका आभास।
नष्ट न कोई कर सके, देती सदा उजास।। 17
भौतिकधारी तन सदा, नहीं अमर सुत बुद्ध।
अविनाशी है आत्मा, करो पार्थ तुम युद्ध।। 18
सदा अमर है आत्मा , पर नहिं हमें लखाय।
वे अज्ञानी मूढ़ हैं, जो समझें मृतप्राय।। 19
जन्म-मृत्यु से हैं परे, सभी आत्मा मित्र।
नित्य अजन्मा शाश्वती, है ईश्वर का चित्र।। 20
जो जन हैं ये जानते, आत्म अजन्मा सत्य।
अविनाशी है शाश्वत, कभी ना होती मर्त्य।। 21
जीर्ण वस्त्र हैं त्यागते, सभी यहाँ पर लोग।
उसी तरह ये आत्मा, बदले तन का योग।। 22
अग्नि जला सकती नहीं, मार सके नहिं शस्त्र।
ना जल में ये भीगती, रहती सतत असत्र।। 23
आत्मा खण्डित हो नहीं, है ये अघुलनशील।
सर्वव्याप स्थिर रहे, डुबा न सकती झील।। 24
आत्मा सूक्ष्म अदृश्य है, नित्य कल्पनातीत।
शोक करो प्रियवर नहीं, भूलो तत्व अतीत।। 25
अगर सोचते आत्म है, साँस-मृत्यु का खेल।
नहीं शोक का विषय यह , बस भगवन से मेल।। 26
जन्म धरा पर जो लिए, सबका निश्चित काल।
पुनर्जन्म भी है सदा,सब नश्वर की चाल।। 27
जीव सदा अव्यक्त है, मध्य अवस्था व्यक्त।
जन्म-मरण होते रहें , क्यों होते आसक्त।। 28
अचरज से देखें सुनें, गूढ़ आत्मा तत्व।
नहीं समझ पाएँ इसे, यह ईश्वर का सत्व।। 29
सदा आत्मा है अमर, मार सके ना कोय।
नहीं शोक अर्जुन करो, सच पावन ये होय।। 30
तुम क्षत्रिय हो धनंजय, रक्षा करना धर्म।
युद्ध तुम्हारा धर्म है, यही तुम्हारा कर्म।। 31
क्षत्री वे ही हैं सुखी, नहीं सहें अन्याय।
युद्धभूमि में जो मरे, सदा स्वर्ग वे पाय।। 32
युद्ध तुम्हारा धर्म है, क्षत्रियनिष्ठा कर्म।
नहीं युद्ध यदि कर सके, मिले कुयश औ शर्म।। 33
अपयश बढ़कर मृत्यु से, करता दूषित धर्म।।
हर सम्मानित व्यक्ति के, धर्म परायण कर्म।। 34
नाम, यशोलिप्सा निहित, चिंतन कैसा मित्र।
युद्ध भूमि से जो डरे, वह योद्धा अपवित्र।। 35
करते हैं उपहास सब,निंदा औ' अपमान।
प्रियवर इससे क्या बुरा, जाए उसका मान।।36
यदि तुम जीते युद्ध तो, करो धरा का भोग।
मिली वीरगति यदि तुम्हें, मिले स्वर्ग का योग।।37
सुख-दुख छोड़ो मित्र तुम, लाभ-हानि दो छोड़।
विजय-पराजय त्यागकर, कर्म करो उर ओढ़।।38
करी व्याख्या कर्म की, सांख्य योग अनुसार।
मित्र कर्म निष्काम हो, उसका सुनना सार।।39
भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को कर्मयोग का महत्व बताया
कर्म करें निष्काम जो, हानिरहित मन होय।
बड़े-बड़े भय भागते, जीवन व्यर्थ न होय।।40
दृढ़प्रतिज्ञ जिनका हृदय, वे ही पाते लक्ष्य।
मन जिनका स्थिर नहीं, रहते सदा अलक्ष्य।।41
वेदों की आसक्ति में, करें सुधीजन पाठ।
जीवन जीते योगमय, उस बिन जीवन काठ।।42
इन्द्रिय का ऐश्वर्य तो, नहीं कर्म का मूल।
करें कर्म निष्काम जो, मानव वे ही फूल।।43
सुविधाभोगी जो बनें, इन्द्रि-भोग की आस।
ईशभक्त ना बन सकें, रहता दूर प्रकाश।।44
तीन प्रकृति के गुण सदा,करते वेद बखान।
इससे भी ऊँचे उठो, अर्जुन बनो महान।।45
बड़े जलाशय, कूप दें, नीर सतत भरपूर।
वेद सार जो जानते, वही जगत के शूर।।46
करो सदा शुभ कर्म तुम,फल पर नहिं अधिकार।
फलासक्ति से मुक्त उर, इस जीवन का सार।।47
त्यागो सब आसक्ति को , रखो सदा समभाव।
जीत-हार के चक्र में, कभी न हो प्रिय घाव।।48
ईशभक्ति ही श्रेष्ठ है, करो सदा शुभ काम।
जो रहते प्रभुशरण में, पाते यश औ' नाम।।49
भक्ति मार्ग ही श्रेष्ठ है, रहता जीवन मुक्त।
योग करे, शुभ कर्म भी, वह ही सच्चा भक्त।।50
ऋषि-मुनि सब ही तर गए, कर-कर प्रभु की भक्ति।
जनम-मरण छूटे सभी, कर्मफलों से मुक्ति।।51
मोह त्याग संसार से, तब ही सच्ची भक्ति।
कर्म-धर्म के चक्र के, बन्धन से दे मुक्ति।।52
ज्ञान बढ़ा जब भक्ति में, करें न विचलित वेद।
हुए आत्म में लीन जब, मन में रहे न भेद।।53
श्रीकृष्ण भगवान के कर्मयोग के बताए नियमों को अर्जुन ने बड़े ध्यान से सुना और पूछा--
अर्जुन बोला कृष्ण से, किसे कहें स्थितिप्रज्ञ।
वाणी, भाषा क्या दशा, मुझे बताओ सख्य।।54
श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को फिर कर्म और भक्ति का मार्ग समझाया
मन होता जब शुद्ध है, मिटें कामना क्लेश।
मन को जोड़े आत्मा, है स्थितिप्रज्ञ नरेश।।55
त्रय तापों से मुक्त जो, सुख - दुख में समभाव।
वह ऋषि-मुनि-सा श्रेष्ठ तज, चिंता और तनाव।।56
भौतिक इस संसार में, है जो मुनि स्थितिप्रज्ञ।
इंद्रिय विषयों से विलग , वह ज्ञानी सर्वज्ञ।।57
इन्द्रिय विषयों से विलग, होता जब मुनि भेष।
कछुवा के वह खोल-सा, जीवन करे विशेष।।58
दृढ़प्रतिज्ञ हैं जो मनुज, करे न इन्द्रिय - भोग।
जन्म-जन्म की साधना, बढ़े निरंतर योग।।59
सभी इन्द्रियाँ हैं प्रबल, भागें मन के अश्व ।
ऋषि-मुनि भी बचते नहीं, मन का घन वर्चस्व।।60
इन्द्रिय-नियमन जो करें, वे ही स्थिर बुद्धि।
करें चेतना ईश में, तन-मन अंतर् शुद्धि।61
विषयेन्द्रिय चिंतन करें, जो भी विषयी लोग।
मन रमताआसक्ति में, बढ़े काम औ क्रोध।।62
क्रोध बढ़ाए मोह को, घटे स्मरण शक्ति।
भ्रम से बुद्धि विनष्ट हो, जीवन दुख आसक्ति।। 63
इन्द्रिय संयम जो करें , राग द्वेष हों दूर
भक्ति करें जो भी मनुज, ईश कृपा भरपूर।। 64
जो जन करते भक्ति हैं, ताप त्रयी मिट जायँ।
आत्म चेतना प्रबल हो, सन्मति थिर हो जाय।। 65
भक्ति रमे जब ईश में, बुद्धि दिव्य मन भव्य।
शांत चित्त मानस बने, शांति मिले सुख नव्य।। 66
यदि इंद्रिय वश में नहीं, बुद्धि होय तनु क्षीण।
अगर एक स्वच्छंद है, तन की बजती बीन।।67
इन्द्रिय यदि वश में रहे, तभी श्रेय है जन्य।
और बुद्धि सुस्थिर रहे, मिले भक्ति का पुण्य।।68
आत्मसंयमी हो सजग, तम में करे प्रकाश।
आत्मनिरीक्षक मुनि हृदय, मन हो शून्याकाश।।69
पुरुष बने सागर वही, नदी न जिसे डिगाय।
इच्छाओं से तुष्ट जो, वही ईश को पाय।। 70
इच्छा इन्द्रिय - तृप्ति की, करे भक्त परित्याग।
अहम, मोह को त्याग दे, मिले शांति का मार्ग।। 71
आध्यात्मिक जीवन तभी, मन से मोह भगाय।
अंत समय यदि जाग ले, मोक्ष धाम ही पाय।।72
इस प्रकार श्रीमद्भगवतगीता के द्वितीय अध्याय " गीता का सार" का भक्तिवेदांत तात्पर्य पूर्ण हुआ ।।
अध्याय तीन
अर्जुन ने भगवान कृष्ण से कर्मयोग के बारे में उवाच---
केशव!कहते आप जो, बुद्धि सदा है ज्येष्ठ।
कर्म सकामी क्यों करूँ, युद्ध नहीं कुलश्रेष्ठ।।1
व्यामिश्रित उपदेश से, बुद्धि भ्रमित व्यामोह।।
मन का संशय दूर हो, दूर करें अवरोह।।2
श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा
अर्जुन तुम निष्पाप हो, दो जीवन उपहार।
एक ज्ञान का योग है, दूज भक्ति मनुहार।।3
कर्म जरूरी है सखा, मिटे न फल का योग।
सिद्धि नहीं संन्यास से, कर्म नहीं संयोग।।4
आत्म सदा सक्रिय रहे, कर्म करे हर याम।
शुभ-शुभ करते कर्म जो, मिलें सुखद परिणाम।।5
करे दिखावा भक्ति का,औ' विषयों का ध्यान।
अधम भक्ति ऐसी समझ, करती मिथ्यापान।। 6
कर्मयोग कर्मेंद्रि से, अनासक्त हो भाव।
कर्म करें कर्मेंद्रियां , पावन श्रेष्ठ स्वभाव।।7
कर्म करे शास्त्रज्ञ विधि, कर ले शुभ-शुभ कर्म।
कर्म मनुज जो ना करें , उसको कहें अकर्म।।8
कर्मों का मत त्याग कर, मनासक्ति को छोड़।
प्रभु को श्रेयस मानकर,भक्ति-भाव उर मोड़।।9
ब्रह्मा कहते कल्प में, करना सब जन यज्ञ।
इच्छित फल तुमको मिले, जीवन हो धर्मज्ञ।।10
यज्ञ मनुज जो भी करें, रहते देव प्रसन्न।
इच्छित फल दें देवता, रहें सदा संपन्न।।11
बिन माँगे, दें देवता, वस्तु, अन्न सब भोग।
हवन सदा करते रहो, नहीं सताएं रोग।।12
जो खाते यज्ञ कर, अन्न मनुज वे श्रेष्ठ।
पाप-शाप सब छूटते, है जीवन गति कुलश्रेष्ठ ।।13
जनोत्पत्ति है यज्ञ से,यज्ञ वृष्टि का हेत
कर्मों से ही यज्ञ हों,मिलता सुख अभिप्रेत ।।14
जन्म-कर्म ही वेद है, ईश्वर वेद विधान।
सर्वव्याप परमात्मा,रहते यज्ञ प्रधान।।15
सृष्टि चक्र इस लोक में, कर्म वेद अनुसार।
कर्म करें सुख भोग को, है वह पापाचार।।16
करें आत्मा प्रेम जो, रहें आत्म संतुष्ट।
यही उचित कर्तव्य है, कभी न हों वे रुष्ट ।।17
आत्म ज्ञान में लीन जो, रहे सदा निष्पाप।
ऐसे मानव लोक में, कभी न पाएँ ताप।। 18
अनासक्त हो, कर्म कर, रख लें शील स्वभाव।
ईश्वर को अति प्रिय लगे , अंतर्मन- सद्भाव।।19
जनकादिक ज्ञानी पुरुष, अनासक्ति कृत कर्म।
परम् सिद्धि पाए सभी, किए लोक हित धर्म।।20
श्रेष्ठ मनुज जैसा करें, करते वैसा लोग।
देते सभी प्रमाण हैं, लोक और परलोक।।21
अर्जुन सुन लो बात तुम, मैं ही सबका ईश।
फिर भी करता कर्म मैं, होकर के जगदीश।।22
मैं जैसा हूँ कर रहा, देख करें बर्ताव।
जन्मा हूँ कल्याण हित, बाँटूँ सुंदर भाव।। 23
नहीं करूँ यदि कर्म मैं, लोग भ्रष्ट हो जाँय।
कर्म करूँ कल्याण के, भक्त सदा सुख पाँय।। 24
हे अर्जुन तू कर्म कर, अनासक्त ले भाव।
ज्ञानी जन ज्यों लोक में, बाँट रहे सद्भाव।।25
ज्ञानी जन करते रहे, सदा लोक कल्याण।
वैसे ही तू कर्म कर, कर्म बिना निष्प्राण।। 26
सभी काम हैं प्रकृति के, अहम करे प्रतिकार।
कर्ता मानव बन रहा, मन में ले कुविचार।। 27
त्रिगुणी माया ज्ञान की, ज्ञानी को दे सीख।
ऐसा ज्ञानी जगत में, बाहर-भीतर दीख।। 28
त्रयी प्रकृति के गुणों से, होते जो आसक्त।
मर्म न प्रभु का जानते, जानें ज्ञानी भक्त।। 29
अर्जुन तू सुन ध्यान से, मुझमें चित लवलीन।
कर्म समर्पण भाव से,करो ईश्वराधीन।।30
दोष बुद्धि से जो रहित, वे ही मेरे भक्त।
मुझको पाते हैं वही, जो श्रद्धा संपृक्त।।31
दोष दृष्टि जो जन रखें, उसे मूर्ख तू जान।
ऐसे मनुजों का कभी, नहीं हुआ कल्यान।। 32
हर प्राणी ही प्रकृति के, रहता सदा अधीन।
करता कर्म स्वभाव वश, हठ हो जाता क्षीण।। 33
रखो इंद्रियों को प्रिये, अपने सदा अधीन।
ये ही अपनी शत्रु हैं, पथ से करें विहीन।। 34
करो आचरण धर्मयुत, चिंतन धर्माचार।
धर्म स्वयं का श्रेष्ठ है, खुले मुक्ति का द्वार।। 3
अर्जुन उवाच
अर्जुन कहते कृष्ण से, मनुज करे क्यों पाप।
बिन चाहे फिर भी विवश , झेल रहा संताप।। 36
श्री भगवान उवाच
हे अर्जुन प्रिय वचन सुन, रजोगुणी है काम।
भोग, क्रोध ही दे रहे, इसको बैरी नाम।। 37
धुआँ अग्नि को ढाँकता, रज दर्पण ढँक जाय।
गर्भ ढँका ज्यों जेर से, काम, ज्ञान भरमाय।। 38
काम, अग्नि सादृश्य है, जिसमें सब जल जाँय।
विषय वासना शत्रु है, ज्ञान ध्यान बिलगाँय।।39
मनोबुद्धि सब इन्द्रियाँ, यही काम स्थान।
ज्ञान ढकें ये स्वयं का , देते दुख औ' त्राण।। 40
रखो इन्द्रियों को सदा , हे प्रिय निज आधीन।
ज्ञान, बुद्धि, बल फिर बढ़े, जीवन हो स्वाधीन।। 41
तन से इन्द्री श्रेष्ठ हैं, इन्द्री से मन श्रेष्ठ।
मन से बुधिबल श्रेष्ठ है, आत्म बुद्धि से श्रेष्ठ।। 42
सदा आत्म की बात सुन, विषय वासना मार।
मन को रख वश में सदा, है जीवन का सार।। 43
इस प्रकार श्रीमद्भगवतगीता के तृतीय अध्याय " कर्मयोग" का भक्तिवेदांत तात्पर्य पूर्ण हुआ।
चौथा अध्याय
श्री कृष्ण भगवान ने अपने सखा अर्जुन से अष्टांग योग का दिव्य ज्ञान कुछ इस तरह दिया
प्रथम बार सूरज सुने, यह अविनाशी योग।
सूरज से मनु और फिर,बना इच्छु- संजोग।। 1
योग रीत ये चल रही, सदा-सदा से जान।
लोप हुआ कुछ काल तक, तुम्हें पुनः यह ज्ञान।। 2
वर्णन जो तुझसे किया, यही पुरातन योग।
तू मेरा प्रिय भक्त है, अति उत्तम संयोग।। 3
अर्जुन उवाच
जन्म हुआ प्रभु आपका, इसी काल में साथ।
सूर्य जन्म प्राचीन है, कैसे मानूँ बात।। 4
तेरे-मेरे जन्म तो, हुए अनेकों बार।
मुझे विदित,अनभिज्ञ तुम,प्रियवर पाण्डु कुमार।।5
जन्म नहीं प्राकृत मेरा, नहीं मनुज सादृश्य।
मैं अविनाशी अजन्मा, शक्ति-योग प्राकट्य।। 6
धर्म हानि जब- जब बढ़ी, बढ़ता गया अधर्म।
तब-तब माया-योग से, रचा नया ही धर्म।। 7
साधु जनों का सर्वदा,किया परम् उद्धार।
दुष्टों के ही नाश को, प्रकटा बारम्बार।। 8
मुझे अलौकिक मानकर, जो जानें सुख पाँय
मैं हूँ अविनाशी अमर, भक्त सदा तर जाँय। 9
राग-द्वेष,भय-क्रोध से, हो जाता है मुक्त।
साधक मेरी भक्ति का,भाव समर्पण युक्त।।
सब ही मेरी शरण में, सबके भाव विभिन्न।
फल देता अनुरूप में, कभी न होता खिन्न।। 11
करते कर्म सकाम जो, मिलें शीघ्र परिणाम।
देवों को वे पूजते, मुझे न करें प्रणाम।। 12
तीन गुणों की यह प्रकृति, सत, रज, तम आयाम।
वर्णाश्रम मैंने रचे, मैं सृष्टा सब धाम।। 13
कर्म करूँ जो भी यहाँ, पड़ता नहीं प्रभाव।
कर्म फलों से मैं विरत, सत्य जान ये भाव।। 14
दिव्य आत्मा संत जन, हुए पुरातन काल।
कर तू उनका अनुसरण,नित्य बनाकर ढाल।। 15
समझ न पाते मोहवश,बुधि जन कर्माकर्म।
कर्म बताऊँ शुभ तुझे, ये ही मानव धर्म।। 16
कर्म कौन हैं शुभ यहाँ, ये मुश्किल है काम।
कर्म, विकर्म, अकर्म का, जान सुखद परिणाम।। 17
कर्म सदा परहित करें, ये ही मानव धर्म।
लाभ-हानि में सम रहें, नहीं करें दुष्कर्म।। 18
इन्द्रिय-सुख की कामना, रखें न मन में ध्यान।
ऐसे ज्ञानी जगत में, होते बड़े महान।। 19
कर्म फलों के फेर में, पड़ें न ज्ञानी लोग।
ऐसे मानव जगत में, रहते सदा निरोग।। 20
माया के रह बीच में,स्वामि- भाव का त्याग।
कर्म गात निर्वाह को, गाए मेरा राग।। 21
अपने में संतुष्ट जो, द्वेष कपट से दूर।
लाभ-हानि में सम रहे, ऐसे मानव शूर।। 22
आत्मसात जिसने किया,अनासक्ति का भाव।
ऐसा ज्ञानी को मिले, हरि पद पंकज-ठाँव।। 23
जो मुझमें लवलीन है, पाए भगवत धाम।
यज्ञ यही है सात्विकी, भजें ईश का नाम।। 24
देव यज्ञ कुछ कर रहे, पूजें देवी-देव।
ज्ञानी-ध्यानी पूजते, ब्रह्म परम् महदेव।। 25
इन्द्रिय संयम हम करें, भजें प्रभू का नाम।
राग-द्वेष से विरत जो, करें भस्म सब काम।। 26
चेष्टा जो इन्द्री करें, करें ब्रह्म का ज्ञान।
प्राणों के व्यापार का, योगी करते ध्यान।। 27
कुछ योगी परहित करें, कुछ करते तप यज्ञ।
करें योग अष्टांग कुछ, कुछ हैं ग्रंथ- गुणज्ञ।। 28
प्राण वायु का हवि करें, करते प्राणायाम।।
प्राण गती वश में रखें, लेवें प्रभु का नाम।। 29
प्राणों को ही प्राण में, योगी करते ध्यान।
पाप-शाप सारे मिटें , यज्ञ करें कल्यान।। 30
फलाभूत यज्ञादि से, करें ईश कल्यान।
यज्ञ न करते जो मनुज, भोगें कष्ट महान।। 31
वर्णन वेदों में हुआ, कतिपय यज्ञ- प्रकार।
तन, मन इन्द्री ही करें, निष्कामी उपचार।। 32
सब यज्ञों में श्रेष्ठतर, ज्ञान यज्ञ है ज्येष्ठ।
ज्ञान करे विज्ञान को, बने आत्मा श्रेष्ठ। 33
ज्ञानी पुरुषों को सदा, कर दण्डवत प्रणाम।
जान, ज्ञान के मर्म को, दें उपदेश महान।। 34
जब तुम जानो मर्म को, नहीं करोगे मोह।
ज्ञान बुद्धि चेतन करे, हटे हृदय अवरोह।। 35
सदा ज्ञान ही श्रेष्ठ है, करता नौका पार।
पापी भी सब तर गए, उत्तम हुए विचार।। 36
जैसे जलकर अग्नि में, ईंधन होता भस्म।
वैसे ही ये ज्ञान भी, करे पाप को भस्म।। 37
ज्ञान जगत में श्रेष्ठ है, इससे बड़ा न कोय।
पावन होता वह मनुज,खोट रहे ना कोय।। 38
ज्ञान ही करता स्व विजय, हो वही जितेंद्रिय।
ज्ञान बढ़ाए भक्ति को, जीवन बने अनिन्द्रिय।। 39
जो प्रभु भक्ति नहीं करें , रहें संशयाधीन।
लोक और परलोक में, रहें सदा ही दीन।। 40
कर ले बुद्धि समत्व तू, लगा मुझी में ध्यान।
अर्पित प्रभु को जो करें, उनका हो कल्याण।। 41
ज्ञान बढ़ा अर्जुन सखा, बुद्धि करो संशुद्ध।
संशय भ्रम को काट तू, करो धर्म का युद्ध।। 42
इस प्रकार श्रीमद्भगवतगीता के चतुर्थ अध्याय " दिव्य ज्ञान" का भक्तिवेदांत तात्पर्य पूर्ण हुआ।
पाँचवां अध्याय
अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से प्रश्न इस तरह पूछा
केशव मुझे बताइए, क्या उत्तम, क्या श्रेष्ठ ?
कर्मों से संन्यास या, फिर निष्कामी ज्येष्ठ।। 1
भगवान श्रीकृष्ण उवाच
तन, मन, इन्द्रिय कर्म का, कर्तापन तू त्याग।
कर्म करो निष्काम ही, यही श्रेष्ठ है मार्ग।। 2
द्वेष, आकांक्षा छोड़ दे, यही पूर्ण संन्यास।
राग-द्वेष के द्वंद्व का, न हो देह में वास।। 3
कर्म योग निष्काम यदि,वही योग संन्यास।
ज्ञानी जन ऐसा कहें, जीवन भरे प्रकाश।। 4
ज्ञान योग भी योग है, कर्म योग भी योग।
ये दोनों ही श्रेष्ठ हैं, करें इष्ट से योग।। 5
श्रेष्ठ भक्ति भगवत भजन, जो करते निष्काम।
कर्तापन को त्याग कर, मिलता मेरा धाम।। 6
पुरुष इन्द्रियातीत जो,, ईश भक्ति में लीन ।
कर्मयोग निष्काम कर, बनता श्रेष्ठ नवीन।। 7
सांख्य योग का जो गुरू, सत्व-तत्व में लीन।
अवलोकन स्पर्श कर,सुने ईश आधीन।। 8
भोजन पाय व गमन कर, सोत, बोल बतलाय।
हर इन्द्री से कर्म कर, नहीं स्वयं दर्शाय।। 9
पुरुष देह-अभिमान के, कर्म न हों निष्काम।
त्यागें देहासक्ति जो, वे ही कमल समान।। 10
कर्मयोग निष्काम से, तन-मन होता शुद्ध।
नरासक्ति जो त्यागते , बुद्धि शुद्धि हो बुद्ध।। 11
अर्पण सारे कर्मफल , करें ईश को भेंट।
कर्मयोग निष्काम ही, विधि-लेखा दें मेंट।। 12
करे प्रकृति आधीन जो, मन कर्मों का त्याग।
तन नौ द्वारी बिन करे, सुखमय भरे प्रकाश।। 13
(नो द्वार-दो आँखें, दो कान, दो नाक के नथुने, एक मुख, गुदा और उपस्थ)
तन का स्वामी आत्मा, करे कर्म ना कोय।
ग्रहण करें गुण प्रकृति के, माखन रहे बिलोय।। 14
पाप-पुण्य जो हम करें, नहिं प्रभु का है दोष।
भ्रमित रही ये आत्मा,ढका ज्ञान का कोष।। 15
बढ़े ज्ञान जब आत्मा, होय, अविद्या नाश।
जैसे सूरज तम हरे, उदया होय प्रकाश।। 16
मन बुधि श्रद्धा आस्था, शरणागत भगवान।
ज्ञान द्वार कल्मष धुले, खुलें मुक्ति प्रतिमान।। 17
पावन हो जब आत्मा, आता है समभाव।
सज्जन, दुर्जन, गाय इति, मिटे भेद का भाव।। 18
मन एकाकी सम हुआ, वह जीते सब बंध।
ब्रह्म ज्ञान जो पा गए,फैली पुण्य सुगंध।। 19
सुख-दुख में स्थिर रहे, नहीं किसी की चाह।
मोह, भ्रमादिक से विरत,गहे ब्रह्म की राह।। 20
इन्द्रिय आकर्षण नही, चरण-शरण हरि लीन।
आनन्दित हो आत्मा, कभी न हो गमगीन।। 21
दुख-सुख भोगें इन्द्रियाँ, ज्ञानी है निर्लिप्त।
आदि-अंत है भोग का, कभी न हो संलिप्त।। 22
सहनशील हैं जो मनुज, काम-क्रोध से दूर।
जीवन उसका ही सुखी, चढ़ें न पेड़ खजूर।। 23
सुख का अनुभव वे करें, जो अन्तर् में लीन।
योगी है अंतर्मुखी, ब्रह्म भाव लवलीन।। 24
संशय,भ्रम से हैं परे, करे आत्म से प्यार।
सदा जीव कल्याण में, दें जीवन उपहार।। 25
माया, इच्छा से परे, रहें क्रोध से दूर।
रहें आत्म में लीन जो,मिलती मुक्ति जरूर।। 26
भौंहों के ही मध्य में, करें दृष्टि का ध्यान।
स्वत्व प्राण व्यापार को, वश में कर ले ज्ञान।। 27
इन्दिय बुधि आधीन हो, रखे मोक्ष का लक्ष्य।
ऐसा योगी जगत में, ज्ञानी आत्मिक दक्ष।। 28
मैं परमेश्वर सृष्टि का, मैं देवों का मूल।
जो समझें इस भाव से, बने आत्म निर्मूल।। 29
इस प्रकार श्रीमद्भगवतगीता का "ध्यान योग" भक्तिवेदांत का पांचवा अध्याय समाप्त।
अध्याय छह
श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को ध्यान योग के गूढ़ रहस्य को समझाया
संन्यासी-योगी वही, करता जो कर्तव्य।
पाने की ना चाह है, करे धर्म औ" यज्ञ।। 1
योगी सच्चा है वही, त्यागे इन्द्रिय भोग।
शेष रहे ना लालसा,करे भक्तिमय योग।। 2
करता साधक भक्ति का, जो अष्टांगी योग।
योग सिद्ध ऐसा पुरुष, करें न भौतिक भोग।। 3
योगारूढ़ी है वही, करे भोग का त्याग।
कर्म सकामी ना करे, चित्त-भक्ति अनुराग।। 4
अपने मन का मित्र भी, कभी शत्रु बन जाय।
मन को जो वश में करे, वही सिद्धि को पाय।। 5
मन को जीते जो मनुज, मित्र श्रेष्ठ बन जाय।
जो मन के वश में हुआ, दुख को गले लगाय।। 6
मन के जीते जीत है, मन के हारे हार।
सुख-दुख, यश-अपयश सभी, मन खेल ही उपहार।। 7
ज्ञान और अनुभूति से, हो योगी संतुष्ट।
निर्विकार समभाव से,दे न किसी को कष्ट।। 8
शत्रु-मित्र सबके लिए, रखे प्रेम का भाव।
ऐसा योगी श्रेष्ठ है, रखे सदा समभाव।। 9
योगी मन वश में रखे, आत्म ईश में लीन।
मुक्त लालसा से रहे, तन-मन ईशाधीन।। 10
सदा योग अभ्यास का , पावन हो स्थान।
हो मन इंद्रिय से परे, रमे ईश में ध्यान।। 11
पावन आसन बैठकर, करे योग अभ्यास।
मेरा ही चिंतन करे, मन हो मेरे पास।। 12
तन-ग्रीवा-सिर साधकर, करे योग अभ्यास।
दृष्टि नासिका पर रखे , मन में दृढ़ विश्वास।। 13
नित्य करे अभ्यास को, भय-संशय से दूर।
योगी विषय विमुक्त हो, प्रेम ईश भरपूर।। 14
सभी कर्म, मन-देह भी, प्रभु में हों आसक्त।
ऐसा योगी अंततः, हो जाता है मुक्त।। 15
योगी है वो ही सफल, रखे नियम आहार।
जागे, सोए नियमतः, पिए प्रेम का सार।। 16
खान-पान या जागरण, निद्रा उचित विहार।
बढ़े योग अभ्यास से , मिटते कष्ट अपार।। 17
मनसा-वाचा-कर्मणा, करे योग अभ्यास।
मिट जाती सब लालसा, मिलता योग प्रकाश।। 18
योगी मन वश में रखे, आत्मतत्व में ध्यान।
दीपक जैसे बिन हवा, जलता सीना तान।। 19
योगाभ्यासी मन बने, संयम करे शरीर।
योग सिद्ध ऐसा मनुज, कहें समाधि सुवीर।। 20
मिले सिद्धि जब इस तरह, मन से स्वे मिल जाय।
दिव्य बनें सब इन्द्रियाँ, दिव्य सुखों को पाय।। 21
सिद्ध पुरुष को लाभ या,हानि न किंचित् भास
है सन्तोषी धन बड़ा, मन ही मन पूरित उल्लास। 22
सिद्धि मिले जब मनुज को, करें न विचलित कष्ट।
सभी दुखों से दूर हो, खुलें ज्ञान के पृष्ठ।। 23
श्रद्धायुत संकल्प से, करें योग अभ्यास।
इच्छाओं को त्याग दें, करें आत्म में वास।। 24
सन्मति से विश्वास से , रहे समाधी लीन।
स्थित मन हो आत्मा, पावन बने नवीन।। 25
अस्थिर चंचल वृत्ति मन, कसता रहे लगाम।
मन को वश में रख सदा, सिद्ध होयँ सब काम।। 26
मन स्थिर मुझमें करें, जो भी पुरुष महान।
दिव्य सुखों की सिद्धि हो, करते प्रभु कल्यान।। 27
आत्म संयमी निग्रही, करते योगाभ्यास।
सब पापों से मुक्त हो, आए आत्म प्रकाश।। 28
सिद्धि योगि वो ही मनुज, सबमें मुझको पाँय।
घट-घट वासी हूँ, समझ सबमें प्रेम जतांय।। 29
जो देखें सबमें मुझे, मैं रहता सर्वस्य।
प्रकट हुआ मैं देखता, सब भक्तों के दृश्य।। 30
योगी वे ही सिद्ध हैं, करे मुझी में ध्यान।
करे समर्पण स्वयं को, करे भक्त गुणगान।। 31
योगी सच्चा है वही, सुख-दुख में मुस्काय।
हर प्राणी के भाव को, कर समान दुलराय।। 32
अर्जुन उवाच
अस्थिर चंचल मन जहाँ, कठिन बहुत है योग।
नहीं समझ पाया सखे, पल-छिन माँगे भोग।। 33
मन चंचल हठ से भरा, रहा बड़ा बलवान।
वायु वेग-सा भागता, भागे तीर समान।। 34
श्री भगवान उवाच-
कृष्ण कहें कौन्तेय से, ये मन भागे वेग।
होय विरत अभ्यास से, होयँ शांत संवेग।। 35
मन चंचल जिसका रहे, लक्ष्य कभी ना पाय।
मन का संयम ध्रुव अटल, विजित होय मुस्काय।। 36
अर्जुन उवाच
कृष्ण सुनो मेरी व्यथा, असफल योगी कौन।
भौतिकता के जाल में, टूटे मन का मौन।। 37
ब्रह्म प्राप्ति के मार्ग से , भटकें जो इंसान।
उसकी गति मुझसे कहो, मेरे सखे महान।। 38
कृष्ण सुनो तुम प्रार्थना, संशय कर दो दूर।
योगि भोग में यदि रमें, क्या मिल जाता धूर।। 39
श्री भगवान उवाच
परहित योगी जो करें , सिद्ध लोक-परलोक।
प्रथा पुत्र मेरी सुनो, जीवन बने अशोक।। 40
असफल योगी भोगता, कुछ दिन भौतिक भोग।
अच्छे कुल में जन्म ले ,व्यर्थ न जाता योग।। 41
दीर्घकाल तक योग से, यदि वह असफल होय।
जन्म मिले वैभव कुली, योग सदा फल बोय।। 42
पूर्वजन्म की चेतना, है दैवी संयोग।
करें साधना ईश की, नित्य भक्तिमय योग।। 43
प्रारब्धों के ज्ञान से, योग स्वतः आ जाय।
ऐसा योगी ही सफल, मुझे सर्वदा भाय।। 44
कल्मषादि से शुद्ध हो, ऐसा ज्ञानी भक्त।
जनम-जनम अभ्यास से, जन्म-मरण से मुक्त।। 45
योगी-तापस से बढ़ा, ज्ञानी से भी श्रेष्ठ
योगी सबसे उच्च है, आदरणीय यथेष्ठ। 46
उत्तम योगी है वही, रखे हृदय में प्रीत।
करे समर्पण स्वयं को, श्रेष्ठ योग की रीत।। 47
इस प्रकार श्रीमद्भगवतगीता छठे अध्याय " ध्यान योग " का भक्तिवेदांत का तात्पर्य पूर्ण हुआ।
सातवाँ अध्याय
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सरल शब्दों में इस तरह भगवद ज्ञान दिया।
पृथापुत्र मेरी सुनो,भाव भरी सौगात।
मन मुझमें आसक्त हो, करो योगमय गात।। 1
दिव्य ज्ञान मेरा सुनो, सरल,सहज क्या बात।
व्यवहारिक यह ज्ञान ही, जीवन की सौगात।। 2
यत्नशील सिधि-बुद्धि हित, सहस मनुज में एक।
सिद्धि पाय विरला मनुज, करे एक अभिषेक।। 3
अग्नि, वायु, भू, जल, धरा; बुद्धि, मनाहंकार।
आठ तरह की प्रकृतियाँ, अपरा है संसार।। 4
पराशक्ति है जीव में, यह ईश्वर का रूप।
यही प्रकृति है भौतिकी, जीवन के अनुरूप।। 5
उभय शक्तियाँ जब मिलें, यही जन्म का मूल।
भौतिक व आध्यात्मिकी, उद्गम, प्रलय त्रिशूल।। 6
परम श्रेष्ठ मैं सत्य हूँ, मुझसे बड़ा न कोय।
सुनो धनंजय ध्यान से, सब जग मुझसे होय।। 7
मैं ही जल का स्वाद हूँ, सूरज-चन्द्र-प्रकाश।
वेद मन्त्र में ओम हूँ , ध्वनि में मैं आकाश।। 8
भू की आद्य सुगंध हूँ, ऊष्मा की मैं आग।
जीवन हूँ हर जीव का, तपस्वियों का त्याग।। 9
आदि बीज मैं जीव का, बुद्धिमान की बुद्धि।
मनुजों की सामर्थ्य मैं, तेज पुंज की शुद्धि।। 10
बल हूँ मैं बलवान का, करना सत-हित काम।
काम-विषय हो धर्म-हित, भक्ति भाव निष्काम।। 11
सत-रज-तम गुण मैं सभी, मेरी शक्ति अपार।
मैं स्वतंत्र हर काल में, सकल सृष्टि का सार।। 12
सत,रज,तम के मोह में, सारा ही संसार।
गुणातीत,अविनाश का, कब जाना यह सार।। 13
दैवी मेरी शक्ति का, कोई ओर न छोर
जो शरणागत आ गया, जीवन धन्य निहोर।। 14
मूर्ख, अधम माया तले, असुर करें व्यभिचार।
ऐसे पामर नास्तिक, पाएँ कष्ट अपार।। 15
ज्ञानी, आरत लालची, या जिज्ञासु उदार।
चारों हैं पुण्यात्मा, पाएँ नित उपहार।। 16
ज्ञानी सबसे श्रेष्ठ है, करे शुद्ध ये भक्ति।
मुझको सबसे प्रिय वही, रखे सदा अनुरक्ति।। 17
ज्ञानी सबसे प्रिय मुझे, मानूँ स्वयं समान।
करे दिव्य सेवा सदा, पाए लक्ष्य महान।। 18
जन्म-जन्म का ज्ञान पा, रहे भक्त शरणार्थ।
ऐसा दुर्लभ जो सुजन, योग्य सदा मोक्षार्थ।। 19
माया जो जन चाहते, पूजें देवी-देव।
मुक्ति-मोक्ष भी ना मिले, रचता चक्र स्वमेव।। 20
हर उर में स्थित रहूँ, मैं ही कृपा निधान।
कोई पूजें देवता, कोई भक्ति विधान।। 21
देवों का महादेव हूँ, कुछ जन पूजें देव।
जो जैसी पूजा करें, फल उपलब्ध स्वमेव।। 22
अल्प बुद्धि जिस देव को,भजते उर अवलोक।
अंत समय मिलता उन्हें, उसी देव का लोक।। 23
निराकार मैं ही सुनो,मैं ही हूँ साकार।
मैं अविनाशी, अजन्मा, घट-घट पारावार।। 24
अल्पबुद्धि हतभाग तो, भ्रमित रहें हर बार।
मैं अविनाशी, अजन्मा, धरूँ रूप साकार।। 25
वर्तमान औ भूत का, जानूँ सभी भविष्य।
सब जीवों को जानता, जाने नहीं मनुष्य।। 26
द्वन्दों के सब मोह में, पड़ा सकल संसार।
जन्म-मृत्यु का खेल ये, मोह न पाए पार।। 27
पूर्व जन्म, इस जन्म में, पुण्य करें जो कर्म।
भव-बन्धन से मुक्त हों,करें भक्ति सत्धर्म।। 28
यत्नशील जो भक्ति में, भय-बंधन से दूर।
ब्रह्म-ज्ञान,सान्निध्य मम्,पाते वे भरपूर।। 29
जो भी जन ये जानते, मैं संसृति का सार।
देव जगत संसार का , मैं करता उद्धार।। 30
इस प्रकार श्रीमद्भागवतगीता सातवाँ अध्याय," भगवद ज्ञान " का भक्तिवेदांत का तात्पर्य पूर्ण हुआ।
आठवाँ अध्याय
अर्जुन ने श्रीकृष्ण भगवान से ब्रह्म, आत्मा आदि के बारे में कुछ प्रश्न किए, जो इस प्रकार हैं-----
हे माधव क्या आत्मा, ब्रह्म-तत्व- संज्ञान।
कौन देवता, जगत क्या, कर्मयोग- पहचान।। 1
कौन अधीश्वर यज्ञ का,कैसा धरे शरीर।
कैसे जानें अंत में, माधव तुम्हें कबीर।। 2
श्रीकृष्ण भगवान ने भगवत्प्राप्ति के सरल साधन अर्जुन को इस प्रकार बताए-------
दिव्य जीव ही ब्रह्म है, मैं हूँ परमा ब्रह्म।
नित्य स्वभावी आत्मा, तन से होयँ सुकर्म।। 3
प्रकृति-देह अधिभूत हैं, मैं हूँ रूप विराट।
सूर्य-चंद्र अधिदेव गण,मैं सबका सम्राट।। 4
जो मेरा सुमिरण करे, अंत समय भज नाम।
ऐसा सज्जन पुरुष ही,पाता मेरा धाम।। 5
अंत समय जो नाम ले, त्यागे मनुज शरीर।
करे स्मरण भाव से, पाए वही शरीर।। 6
चिंतन कर मम पार्थ तू, कर धर्मोचित युद्ध।
मनोबुद्धि मुझमें करो, बने आत्मा शुद्ध।। 7
मेरा सुमिरन जो करें, और करें नित ध्यान।
ऐसे परमा भक्त का, हो जाता कल्यान।। 8
परमेश्वर सर्वज्ञ है, लघुतम और महान।
परे भौतिकी बुद्धि से, सूर्य सरिस गतिमान।। 9
निकट मृत्यु के पहुँचकर, करता प्रभु का ध्यान।
योग शक्ति अरु भक्ति से, हो जाता कल्यान।। 10
वेदों के मर्मज्ञ जो, करें ओम का जाप।
ब्रह्मज्ञान पाएँ वही, मिट जाते सब पाप।। 11
योगावस्थिति प्रज्ञ हों, इन्द्रिय वश में होंय।
मन हिरदय में जा बसे, प्राण वायु सिर होयँ।। 12
अक्षर शुभ संयोग है, ओमकार का नाम।
चिंतन योगी जो करें, पहुँचें मेरे धाम।। 13
सदा सुलभ उनके लिए, रखें प्रेम सद्भाव।
करें भक्ति मेरी सदा,सुखमय बने स्वभाव।। 14
भक्ति योग में जो रमें, ऐसे मनुज महान।
परम् सिद्धि पाएँ सदा, छूटे दुःख- जहान।। 15
सभी लोक हैं दुख भरे, जनम-मरण का जाल।
पाते मेरा धाम जो, कट जाते जंजाल।। 16
ब्रह्मा का दिन एक है, युग का एक हजार।
इसी तरह होती निशा, अद्भुत सृष्टि अपार।। 17
दिन होता आरंभ जब , रहता जीवा व्यक्त।
आती है जब रात भी ,हुआ विलय अव्यक्त।।18
ब्रह्मा का दिन पूर्ण है, जीवन का प्राकट्य।
ब्रह्मा की जब रात हो, होयँ सभी अव्यक्त।। 19
परे व्यक्त-अव्यक्त से,परा प्रकृति का सार।
प्रलय होय संसार का,रचना अपरम्पार।। 20
अविनाशी इस प्रकृति का, कभी न होता नाश।
वेद कहें इस बात को, मेरा धाम प्रकाश।। 21
परम् भक्ति से प्राप्त हों, ईश्वर श्रेष्ठ महान।
सर्वव्याप अविनाश प्रभु, करें भक्त कल्यान।। 22
भरतश्रेष्ठ मेरी सुनो, वर्णन अनगिन काल।
योगी पाते मोक्ष गति, परम् सत्य यह हाल।। 23
शुक्लपक्ष दिन सूर्य गति, उत्तरायणी होय।
तन त्यागे इस अवधि में, मुक्ति सुनिश्चित होय।। 24
सूर्य दक्षिणायन समय, कृष्णपक्ष हो काल।
चन्द्रलोक उनको मिले, तन त्यागें तत्काल।। 25
वेद कहें इस बात को, जाने के दो मार्ग।
पथ है एक प्रकाश का, दूजा पथ अँधियार।। 26
जो जाता दिनमान में,मुक्ति सुनिश्चित होय।
अंधकार परित्याग तन, पुनः आगमन होय।। 26
भक्तगणों को हैं पता, जाने के दो मार्ग।
सदा भक्ति करते रहो, होता बेड़ा पार।। 27
भक्ति मार्ग ही श्रेष्ठ है, शुभ-शुभ सब ही होय।
नित्यधाम पाएँ मेरा, जनम सार्थक होय।। 28
इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में " अक्षर ब्रह्मयोग " आठवाँ अध्याय समाप्त।
अध्याय नवम
श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को परम गुह्य ज्ञान के बारे में इस प्रकार बताया
हे अर्जुन मेरी सुनो, तुम हो प्रिय निष्पाप।
गुह्यज्ञान-अनुभूति से, मिट जाते सब पाप।। 1
सब ज्ञानों में श्रेष्ठ है, गोपनीय यह तथ्य।
करे शुद्ध मन-आत्मा, अविनाशी यह कथ्य।। 2
श्रद्धा-निष्ठा जो रखें, वे ही मुझको पायँ।
भक्ति भाव से रहित नर, जनम-मरण घिर जायँ।। 3
व्याप्त रूप अव्यक्त यह, माया का संसार।
रहें जीव मुझमें सभी, मैं ही सबका सार।। 4
जीवों का पालन करूँ, मेरी सृष्टि अपार।
मैं कण-कण में व्याप्त हूँ, यही योग का सार।। 5
प्रबल वायु रहती गगन, श्वांसों का है सार।
सब जीवों में मैं रहूँ, मेरी सृष्टि अपार।।6
अंत समय कल्पांत में, प्राणी करें प्रवेश।
कल्प होय आरंभ जब, देता नया सुवेश।। 7
सकल जगत ये सृष्टि ही, मेरे सभी अधीन।
प्रलय-सृष्टि सब मैं करूँ,देता दृष्टि नवीन।। 8
कर्म मुझे बाँधें नहीं, कर्म स्वयं आधीन।
भौतिक कर्मों से विरत, मैं हूँ श्रेष्ठ प्रवीन।। 9
मैं सबका अध्यक्ष हूँ, सब ही रहें अधीन।
प्राणी सचराचर सभी, बनें-मिटें सब लीन।। 10
मनुज रूप प्रकटा कभी, मूर्ख करें उपहास।
दिव्य स्वभावी रूप का, अर्जुन कर तू भास।। 11
मोह ग्रस्त जो जन रहें, चित आसुरी प्रभाव।
जाल मोह-माया घिरे,रखें न श्रद्धा-भाव।। 12
मोह मुक्त जो भी रहें, उन पर देव प्रभाव।
मैं अविनाशी ईश हूँ, प्रेम रखूँ सद्भाव।। 13
भक्ति भाव अर्पित करें, और करें नित ध्यान।
मेरी महिमा जो भजें, कर देता कल्यान।। 14
ज्ञान, यज्ञ-शीलन करें, भजें सदा प्रभु नाम।
विविधा रूपों में भजें, करते मुझे प्रणाम।। 15
कर्मकांड हूँ यज्ञ का, तर्पण करते लोग।
मैं ही आहुति अग्नि-घृत, मैं पितरों का भोग।। 16
मात-पिता हूँ पितामह, चेतन हूँ ब्रह्मांड।
ज्ञेय-शुद्ध ओंकार हूँ, सब वेदों का प्राण।। 17
पालक-स्वामी-धाम हूँ, शरण लक्ष्य प्रिय मित्र।
मसृष्टि -प्रलय संहार हूँ, मैंअविनाशी पित्र।। 18
ताप-शीत में दे रहा, वर्षा करता मित्र।
मृत्यु और अमरत्व मैं, सत्य-असत का पित्र।। 19
मैं वेदों का सोमरस, करें अर्चना लोग।
मैं ही देता स्वर्ग हूँ, देवों-का-सा भोग।। 20
पुण्य कर्म जब क्षीण हों, हटे स्वर्ग का भोग।
इन्द्रिय सुख चाहे मनुज,जनम-मरण का योग।। 21
जो अनन्य भावी भजें, मेरा दिव्य स्वरूप।
इच्छा-रक्षा मैं करूँ, मैं ही सबका भूप।। 22
जो जन पूजें देव को, भक्ति पावनी छोड़।
ऐसा कर गलती करें, पर मैं लेता ओढ़।। 23
सब यज्ञों का भोक्ता, स्वामी-दिव्या भूप।
जो जन मुझे न जानते, गिर जाते वह कूप।। 24
जो जैसी पूजा करें, वैसा ही फल पायँ।
देव-भूत जो पूजते, शरण उन्हीं की जायँ।। 25
पितरों की पूजा करें, जाएँ पितरों पास।
जो मेरी पूजा करें, पाए मम उर वास।।
पत्र-पुष्प-फल प्रेम से, अर्चन करते लोग।
जल को भी स्वीकारता, प्रेमिल श्रद्धा-भोग।। 26
अर्जुन जो भी तुम करो, अर्पित करना मित्र।
दान-तपस्या जो करो, ये ही प्रीत पवित्र।। 27
जो अर्पित मुझको करें, सारे अपने कृत्य।
भव सागर से मुक्त हों, मोक्ष मिले ध्रुव सत्य ।। 28
पक्षपात या द्वेष की,करता कभी न बात।
मैं रहता समभाव हूँ, भक्ति करो दिन-रात।। 29
हो जघन्य यदि पाप भी, करें भक्ति औ' योग।
तर जाते ऐसे मनुज, मिट जाते सब शोग।। 30
शक्ति मिले मम् भक्ति से, मिले शान्ति का योग।
भक्ति करे मेरी सदा, रहता सुखी निरोग।। 31
जो आते मेरी शरण, स्त्री-वैश्या-शूद्र।
परमधाम पाते वही, कभी न रहते छूद्र।। 32
भक्त हृदय धर्मात्मा, पाएँ मेरा लोक।
प्रेम-भक्ति मम् लीन जो, मिट जाते सब शोक।। 33
नित मम चिंतन तुम करो, करो भक्ति औ' प्यार।
मुझको सब अर्पण करो, वंदन बारंबार।। 34
इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में " राजविद्याराजगुह्ययोग " नामक नवाँ अध्याय समाप्त।
दसवाँ अध्याय
श्रीभगवान ने अपने ऐश्वर्य के बारे में अर्जुन को इस प्रकार ज्ञान देकर बताया
महाबाहु मेरी सुनो, तुम हो प्रियवर मित्र।
श्रेष्ठ ज्ञान मैं दे रहा, खिलें फूल से चित्र।। 1
यश वैभव उत्पत्ति को , नहीं जानते देव।
उद्गम सबका मैं सखे, करता प्रकट स्वमेव।। 2
मैं स्वामी हर लोक का, अजर अनादि अनंत।
जो जाने इस ज्ञान को, मुक्ति पंथ गह अंत।। 3
सत्य-ज्ञान, सद्बुद्धि सब, मैं ही देता प्राण।
मोह विसंशय,मुक्त कर, हर लेता सब त्राण।। 4
यश-अपयश-तप-दान भी, मैं ही करूँ प्रदत्त।
क्षमा भाव जीवन-मरण, सुख-दुख चक्रावर्त।। 4
विविध गुणों का स्वामि मैं, मन निग्रही अनादि।
इन्द्रिय-निग्रह मैं करूँ, हर लेता भय आदि।। 5
सप्तऋषी गण, मनु सभी, अन्य महर्षी चार।
उदगम मूलाधार मैं, फैले लोक अपार।। 6
जानें मम ऐश्वर्य को, जो योगी आश्वस्त।
करते भक्ति अनन्य जो,मैं उनका विश्वस्त।। 7
सकल-सृष्टि आध्यात्म का, सबका मैं हूँ सार।
सबका ही उद्भूत मैं, सबका पालन हार।। 8
शुद्ध भक्त जो भी करे, मन में शुद्ध विचार।
बाँटें मेरे ज्ञान को, अंतःगति उद्धार।। 9
मेरी सेवा भक्ति से,करते हैं जो प्रेम।
उनको देता ज्ञान मैं, सुभग योग अरु क्षेम।। 10
कृपा विशेषी मैं करूँ, करता उर में वास।
दीप जलाऊँ ज्ञान का, फैले दिव्य प्रकाश।। 11
अर्जुन ने श्रीभगवान के बारे में कुछ इस तरह कहा---
आप परम् भगवान हैं, परमा-सत्य पवित्र।
आप अजन्मा-दिव्य हैं, आदि पुरुष हैं पित्र।। 12
आप सर्वथा हैं महत, कहते नारद सत्य।
असित, व्यास, देवल कहें, यही सत्य का तथ्य।। 13
माधव तुमने जो कहा, वही पूर्ण है सत्य।
देव-असुर अनभिज्ञ सब, ना जानें यह सत्य।। 14
सबके उदगम आप हैं, सबके स्वामी आप।
सब देवों के देव हैं, ब्रह्माण्डों के बाप।।15
सदय कहें विस्तार से, यह निज दैविक मर्म।
सर्वलोक स्वामी तुम्हीं , सबके पालक धर्म।। 16
चिंतन कैसे मैं करूँ, मुझको प्रिय बतायं।
कैसे जानूँ आपको, कैसे ह्रदय बसायं। 17
योगशक्ति-ऐश्वर्य का, वर्णन करो दुबार।
तृप्त नहीं माधव हुआ, कहिए अमृत- विचार।। 18
श्रीभगवान ने अर्जुन को अपने सूक्ष्म ऐश्वर्य के बारे में इस प्रकार वर्णन किया-----
मुख्य-मुख्य वैभव कहूँ, तुमसे अर्जुन आज।
मेरा चिर-ऎश्वर्य है, चिर सर्वत्री राज।। 19
सब जीवों के ह्रदय में, मेरा रहता वास।
आदि-अंत औ' मध्य मैं, मैं ही भरूँ प्रकाश।। 20
आदित्यों में विष्णु मैं, तेजों में रवि सन्द्र।
मरुतों मध्य मरीचि मैं,नक्षत्रों में चन्द्र।। 21
वेदों में मैं साम हूँ, देवों में हूँ इन्द्र।
इंद्रियों में मन रहूँ, जीवनशक्ति-मन्त्र।। 22
सब रुद्रों में शिव स्वयं, दानव-यक्ष कुबेर।
वसुओं में मैं अग्नि हूँ, सब पर्वत में मेरु।। 23
पुरोहितों में वृहस्पति, मैं ही कार्तिकेय।
जलाशयों में जलधि हूँ, जानो मेरा ध्येय।। 24
महर्षियों में भृगु हूँ, दिव्य-वाणि ओंकार।
यज्ञों में जप-कीर्तना, मैं हिमवान-प्रसार।। 25
वृक्षों में पीपल रहूँ , चित्ररथी -गंधर्व।
सिद्धों में मुनि कपिल हूँ, नारद- देव रिश्रर्व। 26
उच्चै:श्रवा अश्व मैं, प्रकटा सागर गर्भ।
ऐरावत गजराज मैं, राजा मानव धर्म।। 27
शस्त्रों में मैं वज्र हूँ, गऊओं में सुरीभि।
कामदेव में प्रेम हूँ, सर्पों में वासूकि।। 28
फणधारि में अनन्त हूँ, जलचरा वरुणदेव।
पितरों में मैं अर्यमा, न्यायधीश यमदेव।। 29
दैत्यों में प्रहलाद हूँ, दमनों में महाकाल।
पशुओं में मैं सिंह हूँ, खग में गरुड़ विशाल।। 30
पवित्र-धारि में वायु हूँ, शस्त्रधारि में राम।
मीनों में मैं मगर हूँ, सरि में गंगा नाम।। 31
सकल सृष्टि में आदि मैं, मध्य और हूँ अंत।
विद्या में अध्यात्म हूँ, सत्य और बलवंत।। 32
अक्षर मध्य अकार हूँ, समासों में द्वंद्व ।
मैं ही शाश्वत काल हूँ, सृष्टा ब्रह्म निद्वन्द।। 33
मैं सबभक्षी मृत्यु हूँ, मैं ही भूत-भविष्य।
सात नारि में मैं रहूँ, कीर्ति-श्री -सी हस्य।। 34
मैं और मेधा-सुस्मृति , मैं ही धृति हूँ भव्य।
मैं ही क्षमा सुनारि हूँ, मैं ही वाक सुनव्य।। 34
सामवेद वृहत्साम हूँ, ऋतुओं में मधुमास।
छन्दों में मैं गायत्री, अगहन उत्तम मास।। 35
छलियों में मैं जुआ हूँ, तेजवान में तेज।
पराक्रमी की विजयी प्रिय, बलवानों की सेज।। 36
वृष्णिवंशी वसुदेव हूँ, पांडवों में अर्जुन।
मुनियों में मैं व्यास हूँ, महान उशना- जन।। 37
अपराधी का दण्ड मैं, और न्याय की नीति।
रहस्य का मैं मौन हूँ, ज्ञान-बुद्धि की रीति।। 38
जनक बीज मैं सृष्टि का, चर-अचरा सब कोय।
नहीं रह सके मुझ बिना, सब जग मुझ में होय।। 39
अंत न दैव- विभूति का, यह अनन्त आख्यान।
विशद विभूति हैं मेरी, सार प्रिये तू जान।। 40
जो सारा ऐश्वर्य है, या जो है सौंदर्य।
मेरी अनुपम सृष्टि है, सब कुछ मेरा कर्य।। 41
विशद ज्ञान ब्रह्मांड का, अंशमात्र यह दृश्य।
सब कुछ धारण मैं करूँ, चले जगत कर्तव्य।। 42
इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में " ऐश्वर्य वर्णन" दसवाँ अध्याय समाप्त।
ग्यारहवां अध्याय
श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को दसवें अध्याय में गुह्य ज्ञान के बारे में बताया, जो अति गोपनीय है। अर्जुन ने अपनी जिज्ञासा भगवान के विराट स्वरूप के दर्शनों को लेकर कुछ इस प्रकार प्रकट की------
गुह्य ज्ञान आध्यात्मिक, कहा आपने आज।
दूर हुआ सब मोह अब, जाना प्रभु का राज।। 1
कमलनयन जगदीश प्रभु, प्रलय-सृष्टि हैं आप।
अक्षय महिमा आपकी, हर लेती सब पाप।। 2
रूप सलोना दिव्य प्रभु, पुरुषोत्तम हैं आप।
छवि विराट दिखलाइए, मिट जाएँ संताप।। 3
विश्वरूप अवतार प्रभु, योगेश्वर यदुनाथ।
दर्शन देकर कीजिए,केशव मुझे सनाथ।। 4
श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को अपने विराट स्वरूप के दर्शन कराए-------
कहा कृष्ण भगवान ने, पार्थ देख ऐश्वर्य।
देव हजारों देख तू ,लख मेरा सौंदर्य।। 5
आदित्यों को देख तू, देख देव वसु रुद्र।
कुमारादि लख अश्विनी,देख दृष्टि से भद्र।। 6
चाहो यदि तुम देखना, देखो दिव्य शरीर।
देखो भूत-भविष्य तुम, देखो धरि मन धीर।। 7
दिव्य आँख में दे रहा, देख योग ऐश्वर्य ।
भौतिक आँखों से नहीं,दिखे दिव्य सौंदर्य।। 8
धृतराष्ट्र का सारथी संजय भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद सुना और इस प्रकार भगवान के विराट रूप का वर्णन कर धृतराष्ट्र से कहा--
संजय कह धृतराष्ट्र से, कृष्ण दिखाएँ रूप।
विश्वरूप दिखला रहे, देखे देव अनूप।। 9
विश्वरूप अंतर्निहित, रूप अनादि अनंत।
अनगिन लोचन शीश मुख,अस्त्र-शस्त्र विजयंत।। 10
दैवी-आभूषण सुभग,दिव्य अस्त्र हथियार।
सुंदर माला वस्त्र हैं, दिव्य-सुगंध अपार।। 11
सहस सूर्य -सा तेज भी, है सम्मुख श्रीहीन
विश्वरूप परमात्मा, के सर्वथा अधीन। 12
विश्वरूप भगवान का, अर्जुन देखे रूप।
भाग हजारों विभक्ता, ब्रह्म सभी का भूप।। 13
अर्जुन हतप्रभ देखता, हुआ मोह से ग्रस्त।
नत-मस्तक करता विनय,जोड़ युगल निज हस्त।। 14
अर्जुन ने श्रीकृष्ण भगवान से कहा-
विश्वरूप में देव हैं, देखे विविधा रूप।
ब्रह्मा, शिवजी, ऋषि-मुनी, देखे नाग अनूप।। 15
अर्जुन बोला कृष्ण से, हे प्रभु विश्व स्वरूप
अंत, मध्य ना आदि तव,तन विस्तार अनूप।।16
चकाचौंध अति तेज है, जैसे सूर्य प्रकाश।
तेजोमय सर्वत्र है, मुकुट, चक्र अविनाश।। 17
परम् आद्य प्रभु ज्ञेय हैं, सकल आश्र ब्रह्माण्ड।
अव्यय और पुराण हैं,स्वयं आप भगवान।। 18
अनत भुजाएँ आपकी, सूर्य-चंद्र हैं नैन
आदि,मध्य न अंत है, तेज अग्नि-से सैन। 19
मुख में अनगिन लोक हैं, दिग्दिगंत परिव्याप्त।
रूप अलौकिक देखकर, भय से सब हैं आप्त।। 20
शरणागत हैं देवगण, दिखते अति भयभीत।
सब करते हैं प्रार्थना, ऋषिगण सहित विनीत।। 21
शिव के विविधा रूप हैं, यक्ष, असुर गंधर्व
सिध्य-साध्य,आदित्य वसु, मरुत-पित्रगण सर्व।। 22
यह विराट अवतार लख, विचलित होते लोक।
अंग भयानक देखकर, बढ़ा हृदय भय शोक।। 23
सर्वव्याप प्रभु विष्णु का, रूप अलौकिक देख।
धैर्य न धारण हो रहा, मन भी रहित विवेक।। 24
मुझ पर आप प्रसन्न हों, हे प्रियवर देवेश।
प्रलय अग्नि मुख देखकर, मन में बढ़ा कलेश।। 25
कौरव दल के योद्धा, मुख में करें प्रवेश।
दाँतों में सब पिस रहे, बचा न कोई शेष।। 26
सौ सुत सब धृतराष्ट्र के, भीष्म, द्रोण सह कर्ण।
सभी प्रमुख योद्धा मरे, देख रहा सब वर्ण।। 27
नदियाँ जातीं जिस तरह, प्रिय के गाँव समुद्र।
उसी तरह योद्धा मिले, मुख में होते बद्ध।। 28
मुख में देखूँ वेग-सा, पूरा ही संसार।
अग्निशिखा में जिस तरह, जलें पतिंगे क्षार।।29
जलते मुख में आ रहे, निगल रहे सब आप।
इस पूरे ब्रह्मांड को, करें प्रकाशित आप।। 30
कृष्ण मुझे बतलाइए, उग्र रूप में कौन।
करता हूँ मैं प्रार्थना, तोड़ें अपना मौन।। 31
श्री भगवान ने अर्जुन से कहा
सकल जगत वर्तमान का, करने आया नाश।
पाँच पाण्डव बस बचें, सबका करूँ विनाश।। 32
उठो, लड़ो, तैयार हो, यश का करना भोग।
ये योद्धा पहले मरे, तुम निमित्त संयोग।। 33
भीष्म, द्रोण, जयद्रथ सहित,समझ मरे सब पूर्व।
तत्पर होकर तुम करो,केवल कर्म अपूर्व।। 34
संजय ने धृतराष्ट्र से कहा-----
संजय कह धृतराष्ट्र से , अर्जुन काँपे वीर।
हाथ जोड़ करता विनय, जय-जय हे! यदुवीर।। 35
अर्जुन ने श्रीभगवान कृष्ण से भयभीत होकर यह वचन कहे------
जो प्रभु का सुमिरन करे, होते हर्ष विभोर।
असुर सभी भयभीत हैं, भाग रहे चहुँओर।। 36
सबके सृष्टा आप हैं, हे अनन्त देवेश।
अक्षर परमा सत्य हैं, जगत परे हैं शेष।। 37
आप सनातन पुरुष हैं, आप सदय सर्वज्ञ।
आप सभी में व्याप्त हैं, दृश्य जगत सब अज्ञ।। 38
परम् नियंता वायु के, अग्नि सलिल राकेश।
प्रपितामह, ब्रह्मा तुम्हीं, विनती सुनो ब्रजेश। 39
शक्ति असीमा आप हैं,वंदन बारंबार।
आप सर्वव्यापी प्रभो, विनती सुनो पुकार।। 40
सखा जान हठपूर्वक, विनय सुनो हरि कृष्ण।
अज्ञानी हूँ मैं प्रभो, हरो हृदय के विघ्न।। 41
मित्र समझ, अपमान कर, किए कई अपराध।
क्षमा करो मैं मंद मति, सुन लो प्रियवर साध।। 42
चर-अचरा के जनक हैं, गुरुवर पूज्य महान।
तुल्य न कोई आपके, तीनों लोक जहान।।43
सब जीवों के प्राण हैं, आप पूज्य भगवान।
क्षमा करें अपराध सब, और परम् कल्यान।। 44
दर्शन रूप विराट के, पाकर मैं भयभीत।
कृष्ण रूप दिखलाइए, हे केशव जगमीत । 45
शंख, चक्र धारण करो, गदा,पद्म युत रूप।
चतुर्भुजी छवि धाम का, दर्शन दिव्य स्वरूप।। 46
श्रीभगवान ने अर्जुन से कहा
शक्ति पुंज मेरा अमित, अर्जुन सुन प्रिय लाल।
विश्वरूप तेजोमयी , था यह दृश्य विशाल।। 47
विश्वरूप इस दृश्य को,दृष्ट न कोई पूर्व।
यज्ञ, तपस्या, दान से, भी न मिला अपूर्व।। 48
रूप भयानक देखकर, विचलित मन का मोह।
प्रियवर इसे हटा रहा, देख रूप मनमोह।। 49
संजय ने धृतराष्ट्र से कहा
रूप चतुर्भुज वास्तविक, आए श्रीभगवान।
अन्तस् में फिर आ गए, पुरुषोत्तम श्रीमान।। 5
-अर्जुन ने श्रीभगवान से कहा
मनमोहक छवि देखकर, अर्जुन हुआ प्रसन्न।
सुंदर मानव रूप से, मिटे मोह अवसन्न।। 51
जो छवि तुम अब देखते, यह है ललित ललाम।
देव तरसते हैं जिसे,पाने को अविराम।। 52
दिव्य चक्षु से देख लो, मेरी छवि अभिराम।
तप-योगों से ना मिलें, बीतें युग-जुग याम।। 53
जब अनन्य हो भक्ति तब, दर्शन हों दुर्लभ्य।
ज्ञान-भक्ति जो जान ले, मिले कृष्ण- गंतव्य। 54
शुद्ध भक्ति में जो रमें, कल्मष कर परित्यक्त।
कर्म करें मेरे लिए, मम प्रिय ऐसे भक्त।। 55
इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में " विराट रूप " ग्यारहवाँ अध्याय समाप्त।
बारहवां अध्याय
अर्जुन ने श्रीकृष्ण भगवान से भक्तियोग के बारे में जिज्ञासा प्रकट की--------
अर्जुन पूछे कृष्ण से, पूजा क्या है श्रेष्ठ।
निराकार- साकार में, कौन भक्ति है ज्येष्ठ।। 1
श्रीभगवान ने अर्जुन को भक्तियोग के बारे में विस्तार से समझाया-------
परमसिद्ध हैं वे मनुज, पूजें मम साकार।
श्रद्धा से एकाग्र चित, यही मुझे स्वीकार।। 2
वश में इन्द्रिय जो करें,भक्ति हो एकनिष्ठ।
निराकार अर्चन करें, वे भी भक्त विशिष्ट।। 3
अमित परे अनुभूति के, जो अपरिवर्तनीय।
कर्मयोग कर, हित करें, भक्ति वही महनीय।। 4
निराकार परब्रह्म की, भक्ति कठिन है काम।
दुष्कर कष्टों से भरी, नहीं शीघ्र परिणाम।। 5
कर्म सभी अर्पित करें,अडिग, अविचलित भाव।
मेरी पूजा जो करें, नहीं डूबती नाव।।
6
मुझमें चित्त लगायं जो, करें निरन्तर ध्यान।
भव सागर से छूटते, हो जाता कल्यान।। 7
चित्त लगा स्थिर करो, भजो मुझे अविराम
विमल बुद्धि अर्पित करो, बन जाते सब काम।। 8
अविचल चित्त- स्वभाव से, नहीं होय यदि ध्यान।
भक्तियोग अवलंब से, करो स्वयं कल्यान।। 9
विधि-विधान से भक्ति का, यदि न कर सको योग।
कर्मयोग कल्यान का,सर्वोत्तम उद्योग।। 10
नहीं कर सको कर्म यदि, करो सुफल का त्याग।
रहकर आत्मानंद में, करो समर्पित राग।। 11
यदि यह भी नहिं कर सको, कर अनुशीलन ज्ञान।
श्रेष्ठ ध्यान है ज्ञान से, करो तात अनुपान।। 12
कर्मफलों का त्याग ही, सदा ध्यान से श्रेष्ठ।
ऐसे त्यागी मनुज ही, बन जाते नरश्रेष्ठ।। 12
द्वेष-ईर्ष्या से रहित, हैं जीवों के मित्र।
अहंकार विरहित हृदय, वे ही सदय पवित्र।। 13
सुख-दुख में समभाव रख,हों सहिष्णु संतुष्ट।
आत्म-संयमी भक्ति से, जीवन बनता पुष्ट।। 14
दूजों को ना कष्ट दे, कभी न धीरज छोड़।
सुख-दुख में समभाव रख,मुझसे नाता जोड़।। 15
शुद्ध, दक्ष, चिंता रहित, सब कष्टों से दूर।
नहीं फलों की चाह है, मुझको प्रिय भरपूर। 16
समता हर्ष-विषाद में,है जिनकी पहचान।
ना पछताएं स्वयं से, करें न इच्छा मान। 17
नित्य शुभाशुभ कर्म में, करे वस्तु का त्याग।
मुझको सज्जन प्रिय वही, रखे न मन में राग।। 17
शत्रु-मित्र सबके लिए, जो हैं सदय समान।
सुख-दुख में भी सम रहें, वे प्रियवर मम प्रान। 18
यश-अपयश में सम रहें, सहें मान-अपमान।
सदा मौन, संतुष्ट जो, भक्त मोहिं प्रिय जान।। 19
भक्ति निष्ठ पूजे मुझे, श्रद्धा से जो व्यक्ति।
वही भक्त हैं प्रिय मुझे , मिले सिद्धि बल शक्ति।। 20
इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में " भक्तियोग " बारहवाँ अध्याय समाप्त
अध्याय तेहरवां
अर्जुन ने श्रीकृष्ण भगवान से पूछा--
क्या है प्रकृति मनुष्य प्रभु,ज्ञेय और क्या ज्ञान?
क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ क्या, बोलो कृपानिधान।। 1
श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को प्रकृति, पुरुष, चेतना के बारे में इस तरह ज्ञान दिया-----
हे अर्जुन मेरी सुनो, कर्मक्षेत्र यह देह।
यह जानेगा जो मनुज, करे न इससे नेह।।2
ज्ञाता हूँ सबका सखे,मेरे सभी शरीर।
ज्ञाता को जो जान ले, वही भक्त मतिधीर।। 3
कर्मक्षेत्र का सार सुन,प्रियवर जगत हिताय।
परिवर्तन-उत्पत्ति का, कारण सहित उपाय।। 4
वेद ग्रंथ ऋषि-मुनि कहें, क्या हैं कार्यकलाप?
क्षेत्र ज्ञान ज्ञाता सभी, कहते वेद प्रताप।। 5
मर्म समझ अन्तः क्रिया, यही कर्म का क्षेत्र।
मनोबुद्धि, इंद्रिय सभी, लख अव्यक्ता नेत्र।। 6
पंचमहाभूतादि सुख, दुख इच्छा विद्वेष।
अहंकार या धीरता, यही कर्म परिवेश।। 7
दम्भहीनता,नम्रता,दया अहिंसा मान।
प्रामाणिक गुरु पास जा, और सरलता जान।। 8
स्थिरता और पवित्रता, आत्मसंयमी ज्ञान।
विषयादिक परित्याग से, हो स्वधर्म- पहचान।। 9
अहंकार से रिक्त मन, जन्म-मरण सब जान।
रोग दोष अनुभूतियाँ,वृद्धावस्था भान।। 10
स्त्री, संतति, संपदा, घर, ममता परित्यक्त।
सुख-दुख में जो सम रहे, वह मेरा प्रिय भक्त।। 11
वास ठाँव एकांत में, करते इच्छा ध्यान।
जो अनन्य उर भक्ति से,उनको ज्ञानी मान।। 12
जनसमूह से दूर रह, करे आत्म का ज्ञान।
श्रेष्ठ ज्ञान वह सत्य है, बाकी धूलि समान।। 12
अर्जुन समझो ज्ञेय को, तत्व यही है ब्रह्म।
ब्रह्मा , आत्म, अनादि हैं, वही सनातन धर्म।। 13
परमात्मा सर्वज्ञ है, उसके सिर, मुख, आँख।
कण-कण में परिव्याप्त हैं, हाथ, कान औ' नाक।। 14
मूल स्रोत इन्द्रियों का, फिर भी वह है दूर।
लिप्त नहीं ,पालन करे, सबका स्वामी शूर।। 15
जड़-जंगम हर जीव से, निकट कभी है दूर।।
ईश्वर तो सर्वत्र है, दे ऊर्जा भरपूर।। 16
अविभाजित परमात्मा, सबका पालनहार।
सबको देता जन्म है, सबका मारनहार।। 17
सबका वही प्रकाश है, ज्ञेय, अगोचर ज्ञान।
भौतिक तम से है परे, सबके उर में जान।। 18
कर्म, ज्ञान औ' ज्ञेय मैं, सार और संक्षेप।
भक्त सभी समझें मुझे, नहीं करें विक्षेप।। 19
गुणातीत है यह प्रकृति ,जीव अनादि अजेय।
प्रकृति जन्य होते सभी, समझो प्रिय कौन्तेय।। 20
प्रकृति सकारण भौतिकी, कार्यों का परिणाम।
सुख-दुख का कारण जगत,वही जीव-आयाम।। 21
तीन रूप गुण-प्रकृति के,करें भोग- उपयोग।
जो जैसी करनी करें, मिलें जन्म औ' रोग।। 22
दिव्य भोक्ता आत्मा, ईश्वर परमाधीश।
साक्षी, अनुमति दे सदा, सबका न्यायाधीश।। 23
प्रकृति-गुणों को जान ले, प्रकृति और क्या जीव?
मुक्ति-मार्ग निश्चित मिले, ना हो जन्म अतीव।। 24
कोई जाने ज्ञान से, कोई करता ध्यान।
कर्म करें निष्काम कुछ, कोई भक्ति विधान।। 25
श्रवण करें मुझको भजें, संतो से कुछ सीख।
जनम-मरण से छूटते, जीवन बनता नीक।। 26
भरत वंशी श्रेष्ठ जो, चर-अचरा अस्तित्व।
ईश्वर का संयोग बस, कर्मक्षेत्र सब तत्व।। 27
आत्म तत्व जो देखता, नश्वर मध्य शरीर।
ईश अमर और आत्मा,वे ही संत कबीर।। 28
ईश्वर तो सर्वत्र है, जो भी समझें लोग।
दिव्यधाम पाएँ सदा, ये ही सच्चा योग।। 29
कर्म करें जो हम यहाँ, सब हैं प्रकृति जन्य।
सदा विलग है आत्मा, सन्त करें अनुमन्य।। 30
दृष्टा है यह आत्मा, बसती सभी शरीर।
जो सबमें प्रभु देखता, वही दिव्य सुधीर।। 31
अविनाशी यह आत्मा, है यह शाश्वत दिव्य।
दृष्टा बनकर देखती, मानव के कर्तव्य।। 32
सर्वव्याप आकाश है, नहीं किसी में लिप्त।
तन में जैसे आत्मा, रहती है निर्लिप्त।। 33
सूर्य प्रकाशित कर रहा, पूरा ही ब्रह्मांड।
उसी तरह यह आत्मा, चेतन और प्रकांड।। 34
ज्ञान चक्षु से जान लें, तन, ईश्वर का भेद।
विधि जानें वे मुक्ति की, जीवन बने सुवेद।। 35
इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में " प्रकृति, पुरुष तथा चेतना " तेहरवां अध्याय समाप्त।
चौदहवाँ अध्याय
श्रीभगवान ने इस अध्याय में मानव जीवन के लिए सर्वश्रेष्ठ ज्ञान एवं प्रकृति तीन गुणों के बारे में समझाया है---
सर्वश्रेष्ठ सब ज्ञान में , कहूँ प्रिय यह ज्ञान।
सिद्धि प्राप्त कर मुनीगण, पाए मोक्ष महान।। 1
दिव्य प्रकृति पाएँ मनुज, सुस्थिर होकर ज्ञान।
सृष्टि-प्रलय से छूटता, हो शाश्वत कल्यान।। 2
सकल भौतिकी वस्तुएँ, मूल ब्रह्म का स्रोत।
ब्रह्म करूँ गर्भस्थ में, व्यत्पत्ति का पोत।। 3
बीज प्रदाता पिता हूँ, जीव योनियाँ सार।
सम्भव भौतिक प्रकृति से, नवजीवन उपहार।। 4
तीन गुणों की प्रकृति है,सतो-रजो-तम सार।
जीव बँधा माया तले, ढोता जीवन भार।। 5
सतगुण दिव्य प्रकाश है, करे पाप से मुक्त।
ज्ञान, सुखों से बद्ध हो, रहे शांत संतृप्त।। 6
आकांक्षा, तृष्णा भरें, रजोगुणी उत्पत्ति।
बँधता माया मोह से, मन करता आसक्ति।। 7
तमोगुणी अज्ञान में, करता आलस मोह।
रहे प्रमादी नींद में, कर जीवन से द्रोह।। 8
सतोगुणी सुख से बँधें, रजगुण कर्म सकाम।
तमगुण ढकता ज्ञान को, करें विवादी काम।। 9
कभी सतोगुण जीतता, रज-तम हुआ परास्त।
विजित रजोगुण हो कभी, सत-तम होत परास्त।। 10
कभी तमोगुण जीतता, सत-रज हो परास्त।
चले निरन्तर स्पर्धा, श्रेष्ठ होयँ अपदास्थ।। 10
सतगुण की अभिव्यक्ति का, तब ही अनुभव होय।
तन के द्वारों में सभी, जले प्रकाशी लोय।। 11
रजगुण की जब वृद्धि हो, अति की हो आसक्ति।
बढ़ें अपेक्षा , लालसा, सकाम कर्म अनुरक्ति।। 12
तमगुण में जब वृद्धि हो, बढ़ जाए तम- मोह।
जड़ता, प्रमता घेरती, विरथा जीवन खोह।। 13
सतोगुणी जब मन रहे, आए अंतिम श्वास।
चले लोक सर्वोच्च में, हों महर्षि भी पास।। 14
रजोगुणी जब मन रहे, आए अंतिम श्वास।
गृहस्थ घरों में जन्म लें, जाते परिजन पास।। 15
तमोगुणी जब मन रहे, आए अंतिम श्वास।
पशुयोनी में जन्म लें, सहे आयु भर त्रास।। 15
पुण्य कर्म का फल सदा, होता सात्विक मित्र।
रजोगुणी के कर्म तो, देते दुख के चित्र।। 16
तमोगुणी के कर्म तो, हों मूर्खतापूर्ण।
प्रतिफल मिलता शीघ्र ही, गर्व होयँ सब चूर्ण।। 16
असल ज्ञान उत्पन्न हो, सतोगुणों से मित्र।
देय रजोगुण लोभ को, तामस गुणी चरित्र।। 17
सतोगुणी हर दशा में, जाते उच्चों लोक।
रजोगुणी भूलोक में, तमोगुणी यमलोक।। 18
हैं प्रकृति के तीन गुण, जानें जगे विवेक।
कर्ता कोई है नहीं, ईश दिव्य आलोक।। 19
तीन गुणों को लाँघता, वही बने नर श्रेष्ठ।
जन्म, मृत्यु छूटे जरा, जीवन बनता श्रेष्ठ।। 20
अर्जुन ने कहा------
तीन गुणों से जो परे, क्या वह लक्षण होय।
सुह्रद शील-व्यवहार हो, लाँघे तीनों जोय।। 21
श्रीभगवान ने कहा-----
तीन गुणों से जो परे, करता सबसे प्यार।
मोह और आसक्ति का, नहीं हो सके वार।। 22
सुख-दुख में वह सम रहे, करे न इच्छा कोय।
निश्चल, अविचल भाव रख, कभी न रोना रोय।। 23
भेदभाव रखता नहीं, रहता दिव्य विरक्त।
स्थित रहता स्वयं मैं, सदा रहे वह तृप्त।। 24
मान और अपमान में, रहे सदा वह एक।
सदा रहे प्रभु भक्ति में, करे कार्य सब नेक।। 25
सकल हाल में धैर्य रख, करता पूरी भक्ति।
तीनों गुण वह लाँघता, बने ब्रह्म अनुरक्त।। 26
आश्रय कर लो ब्रह्म पर, निराकार जग सार।
अविनाशी सच्चा प्रभो, देता चिर सुख- प्यार।। 27
इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में " प्रकृति के तीन गुण ब्रह्मयोग " चौदहवाँ अध्याय समाप्त।
अध्याय पन्द्रहवां
श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को पुरुषोत्तम योग के बारे में ज्ञान दिया।
श्रीभगवान ने कहा-
है शाश्वत अश्वत्थ तरु, जड़ें दिखें नभ ओर।
शाखाएँ नीचें दिखें, पतवन करें विभोर।। 1
जो जाने इस वृक्ष को, समझे वेद-पुराण।
जग चौबीसी तत्व में,बँटा हुआ प्रिय जान।। 1
शाखाएँ चहुँओर हैं, प्रकृति गुणों से पोष।
विषय टहनियाँ इन्द्रियाँ,जड़ें सकर्मी कोष।। 2
आदि, अंत आधार को, नहीं जानते लोग।
वैसे ही अश्वत्थ है, वेद सिखाए योग।। 3
मूल दृढ़ी इस वृक्ष की, काटे शस्त्र विरक्ति।
जाए ईश्वर शरण में,पाकर मेरी भक्ति।। 4
मोह, प्रतिष्ठा मान से, जो है मानव मुक्त।।
हानि-लाभ में सम रहे, ईश भजन से युक्त।। 5
परमधाम मम श्रेष्ठ है, स्वयं प्रकाशित होय।
भक्ति पंथ जिसको मिला,जनम-मरण कब होय।। 6
मेरे शाश्वत अंश हैं, सकल जगत के जीव।
मन-इन्द्रिय से लड़ रहे, माया यही अतीव।। 7
जो देहात्मन बुद्धि को, ले जाता सँग जीव।
जैसे वायु सुगंध की, उड़ती चले अतीव।। 8
आत्म-चेतना विमल है, करलें प्रभु का ध्यान।
जो जैसी करनी करें, भोगें जन्म जहान।। 9
ज्ञानचक्षु सब देखते, मन ज्ञानी की बात।
अज्ञानी माया ग्रसित, भाग रहा दिन-रात।। 10
भक्ति अटल हो ह्रदय से, हो आत्म में लीन।
ज्ञान चक्षु सब देखते, तन हो स्वच्छ नवीन।। 11
सूर्य-तेज सब हर रहा, सकल जगत अँधियार।
मैं ही सृष्टा सभी का, शशि-पावक सब सार।। 12
मेरे सारे लोक हैं, देता सबको शक्ति।
शशि बनकर मैं रस भरूँ, फूल-फलों अनुरक्ति।। 13
पाचन-पावक जीव में, भरूँ प्राण में श्वास।
अन्न पचाता मैं स्वयं, छोड़ रहा प्रश्वास।। 14
चार प्रकारी अन्न है, कहें एक को पेय।
एक दबाते दाँत से, जो चाटें अवलेह्य।। 14
एक चोष्य है चूसते, मुख में लेकर स्वाद।
वैश्वानर मैं अग्नि हूँ, सबका मैं हूँ आदि।। 14
सब जीवों के ह्रदय में, देता स्मृति- ज्ञान।
विस्मृति भी देते हमीं, हम ही वेद महान।।15
दो प्रकार के जीव
--------------------
दो प्रकार के जीव हैं,अच्युत-च्युत हैं नाम।
क्षर कहते हैं च्युत को, ये है जगत सकाम।। 16
क्षर अध्यात्मी जगत में, अक्षर ये हो जाय।
जनम-मरण से छूटता, सुख अमृत ही पाय।। 16
क्षर-अक्षर से है अलग, ईश्वर कृपानिधान।
तीन लोक में वास कर, पालक परम् महान।। 17
क्षर-अक्षर के हूँ परे, मैं हूँ सबसे श्रेष्ठ।
वेद कहें परमा पुरुष, तीन लोक कुलश्रेष्ठ।। 18
जो जन संशय त्यागकर, करते मुझसे प्रीत।
करता हूँ कल्याण मैं, चलें भक्ति की रीत।। 19
गुप्त अंश यह वेद का, अर्जुन था ये सार।
जो जानें इस ज्ञान को, होयँ जगत से पार।। 20
इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में " पुरुषोत्तम योग " पन्द्रहवां अध्याय समाप्त।
सोलहवाँ अध्याय
श्रीकृष्ण भगवान ने इस अध्याय में अर्जुन को दैवीय व आसुरी स्वभाव के बारे में ज्ञान दिया। दो प्रकार के मनुष्य भगवान ने वर्णित किए हैं, एक दैव प्रकृति के तथा दूसरे आसुरी प्रवत्ति के। उनके गुण व अवगुण भगवान ने बताए हैं-----
दैवीय मनुष्यों के गुण इस प्रकार हैं
------------
दैव तुल्य हैं जो मनुज,दैव प्रकृति सम्पन्न।
भरतपुत्र! होते नहीं, वे ईश्वर से भिन्न ।। 1
आत्म-शुद्ध आध्यात्म से,हो परिपूरित ज्ञान।
संयम अनुशीलन करे,सदा सुपावन दान।। 2
यज्ञ, तपस्या भी करें, पढें शास्त्र व वेद।
सत्य, अहिंसा भाव से, करें क्रोध पर खेद।। 2
शान्ति, क्षमा,करुणा,रखें,हो न हृदय में भेद।
लोभ विहीना ही रहें, करें दया, रख तेज।। 3
लज्जा हो , संकल्प हो, मन से रहे पवित्र।
यश की करे न कामना, धैर्य , प्रेम हो मित्र।।3
दम्भ, दर्प, अभिमान सब,हैं आसुरी स्वभाव।
क्रोधाज्ञान, कठोरता, देते सबको घाव।। 4
दिव्य गुणी देते रहे, मानव तन को मोक्ष।
वृत्ति आसुरी दानवी, माया करे अबोध।। 5
दो प्रकार के हैं मनुज, असुर,दूसरे देव।
दैवीय गुण बतला चुका, सुनलो असुर कुटेव।। 6
भगवान ने असुर स्वभाव के मनुजों के बारे में बताया है---
वृत्ति आसुरी मूढ़ नर, रखते नहीं विवेक।
हो असत्य,अपवित्रता, नहीं आचरण नेक।। 7
मिथ्या जग को मानते, ना इसका आधार।
सृष्टा से होकर विमुख,करते भोगाचार।। 8
आत्म-ज्ञान खोएँ असुर, चाहें दुर्मद राज।
बुद्धिहीन बनकर सदा, करें न उत्तम काज।। 9
मद में डूबें गर्व से , झूठ प्रतिष्ठा चाह।
मोह-ग्रस्त संतोष बिन, सबको करें तबाह।। 10
इन्द्रिय के आश्रित रहें,जानें केवल भोग।
चिन्ता करते मरण तक, रहते नहीं निरोग।। 11
इच्छाओं की चाह में, करें पाप के काम।
मुफ्त माल चाहें सदा, क्रोध करें अतिकाम।। 12
असुरों के स्वभाव के बारे में भगवान ने बताया--------
व्यक्ति आसुरी सोचता, धन भी रहे अथाह।
वृद्धि उत्तरोत्तर करूँ, बस दौलत की चाह।। 13
मन में रखते शत्रुता, करें शत्रु पर वार।
सुख सुविधा चाहें सभी, सोचें मैं संसार।। 14
करें कल्पना मैं सुखी, मैं ही सशक्तिमान।
मुझसे बड़ा न कोय है, करें सभी सम्मान।। 15
चिन्ता कर, उद्विग्न रह, बँधे मोह के जाल।
चाहें इन्द्रिय भोग सब, बढ़ें नरक के काल।। 16
श्रेष्ठ मानते स्वयं को, करते सदा घमण्ड।
विधि-विधान माने नहीं, जकड़े मोह प्रचंड।। 17
अहंकार, बल, दर्प से, करते काम या क्रोध।।
प्रभु ईर्ष्या कर रहे , सत से रहें अबोध।।18
क्रूर , नराधम जो मनुज, और बड़े ईर्ष्यालु।
प्राप्त अधोगति को हुए , ईश न होयँ कृपालु।। 19
प्राप्त अधोगति को हुए, असुर प्रवृत्ति के लोग।
बार-बार वे जन्म लें, भोगें फल का भोग।। 20
तीन नरक के द्वार, काम, क्रोध सँग लोभ।
बुद्धिमान को चाहिए, कर लें इनसे क्षोभ।। 21
नरक द्वार से जो बचें, उनका हो कल्यान।
प्राप्त परमगति को करें, बढ़े सदा सम्मान।।22
जो जन शास्त्रादेश की,नहीं मानते बात।
उन्हें मिली सुख-सिद्धि कब, मिलती तम की रात।। 23
शास्त्र पढ़ें, उनको गुनें, जानें सुविधि- विधान।
उच्च शिखर पर पहुँचते, होता है कल्यान।। 24
इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में " दैवीय और आसुरी स्वभाव ब्रह्मयोग " सोलहवाँ अध्याय समाप्त।
सत्रहवाँ अध्याय
अर्जुन ने श्रीकृष्ण भगवान से पूछा-
नियम-शास्त्र ना मानते, करते पूजा मौन।
स्थिति मुझे बताइए, सत, रज, तम में कौन।। 1
श्रीकृष्ण भगवान ने सात्विक, राजसिक, तामसिक पूजा और भोजन आदि के बारे में अर्जुन को ज्ञान दिया--
सत, रज, तम गुण तीन ही, अर्जित करती देह।
जो जैसी श्रद्धा करें, बता रहा प्रिय ध्येय।। 2
श्रद्धा जो विकसित करें, सत, रज, तम अनुरूप।
अर्जित गुण वैसे बनें, जैसे छाया- धूप।। 3
सतोगुणी पूजा करें, सब देवों की मित्र।
रजोगुणी पूजा करें, यक्ष-राक्षस पित्र।।4
तमोगुणी हैं पूजते, भूत-प्रेत की छाँव।
जो जैसी पूजा करें, वैसी मिलती ठाँव।। 4
दम्भ, अहम, अभिभूत हो, तप-व्रत सिद्ध अनर्थ।
शास्त्र रुद्ध आसक्ति से, पूजा होती व्यर्थ।। 5
ऐसे मानव मूर्ख हैं, करें तपस्या घोर।
दुखी रखें जो आत्मा, वही असुर की पोर।। 6
जो जैसा भोजन करें, उसके तीन प्रकार।
यही बात तप, दान की, यज्ञ वेद सुन सार।। 7
सात्विक भोजन क्या है
---------------------
सात्विक भोजन प्रिय उन्हें, सतोगुणी जो लोग।
वृद्धि करे सुख-स्वास्थ्य की, आयु बढ़ाता भोज।। 8
गरम, राजसी चटपटा, तिक्त नमक का भोज।
रजोगुणी को प्रिय लगे, देता जो दुख रोग।। 9
तामसिक भोजन क्या है
--------------------
पका भोज यदि हो रखा,एक पहर से जान
बासा, जूठा खाय जो, वही तामसी मान। 10
बने वस्तु अस्पृश्य से, वियोजिती जो भोज।
स्वादहीन वह तामसी, करे शोक और रोग।। 10
सात्विक यज्ञ क्या है
-------------------
सात्विक होता यज्ञ वह, जो कि शास्त्र अनुसार।
समझें खुद कर्तव्य को, फल की चाह बिसार। 11
राजसिक यज्ञ क्या है
-------------------
होता राजस यज्ञ वह, जो हो भौतिक लाभ।
गर्व, अहम से जो करें, मन में लिए प्रलाभ।। 12
तामसिक यज्ञ क्या है
--------------
तामस होता यज्ञ वह, जो हो शास्त्र विरुद्ध।
वैदिक मंत्रों के बिना, होता यज्ञ अशुद्ध।। 13
शारिरिक तपस्या क्या है
ईश, गुरू, माता-पिता, ब्राह्मण पूजें लोग।
ब्रह्मचर्य पावन सरल, यही तपस्या योग।। 14
वाणी की तपस्या क्या है
------------------
सच्चे हितकर बोलिए, मुख से मीठे शब्द।
वेद साहित्य स्वाध्याय ही, तप वाणी यह लब्ध।। 15
मन की तपस्या
-----------------
आत्म संयमी मन बने, रहे सरल संतोष।
शुद्ध बुद्धि जीवन रहे, धैर्य तपी मन घोष।। 16
सात्विक तपस्या
------------------
लाभ लालसा से रहित, करें ईश की भक्ति।
दिव्य रखें श्रद्धा सदा, यही सात्विक वृत्ति।। 17
राजसी तपस्या
------------------
दम्भ और सम्मान हित, पूजा हो सत्कार।
यही राजसी तपस्या,नहीं शाश्वत सार।। 18
तामसी तपस्या
--------------------
आत्म-उत्पीड़न के लिए, करें हानि के कार्य।
यही तामसी मूर्ख तप, करें विनिष्ट अकार्य।। 19
सात्विक दान
-----------------
करें दान कर्तव्य हित, आश न प्रत्युपकार।
काल देख व पात्रता, ये सात्विक उपकार।। 20
राजसी दान
---------------
पाने की हो भावना, हो अनिच्छु प्रतिदान।
फल की इच्छा जो रखे, यही राजसी दान।। 21
तामसी दान
------------------
अपवित्र जगह में दान हो, अनुचित हो असम्मान।
अयोग्य व्यक्ति को दान दें, यही तामसी दान।। 22
ईश्वर का आदि काल से चला आ रहा सर्वश्रेष्ठ नाम क्या है
-----------------
हरिः ॐ, तत, सत यही,मूल सृष्टि का मंत्र।
श्रेष्ठ जाप यह ब्रह्म का,यही वेद का मन्त्र।। 23
ब्रह्म प्राप्ति शास्त्रज्ञ विधि, से हो जप तप, दान।
ओमकार शुभ नाम से, सबका हो कल्यान।। 24
दान, यज्ञ, तप जो करें, 'तत' से हो सम्पन्न।
फल की इच्छा मत करें, तब हों प्रभू प्रसन्न।। 25
यज्ञ लक्ष्य हो भक्तिमय, परम् सत्य, 'सत' शब्द।
यज्ञ करें सम्पन्न जो, सर्वश्रेष्ठ सत् लब्ध ।। 26
यज्ञ,दान तप साधना, सभी कर्म प्रभु नाम।
हों प्रसन्न परमा पुरुष, 'सत' को करें प्रणाम।। 27
यज्ञ, दान, तप जो करें, बिन श्रद्धा के कोय।
असत् कर्म नश्वर सभी, व्यर्थ सभी कुछ होय।। 28
इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में " श्रद्धा के विभाग ब्रह्मयोग " सत्रहवाँ अध्याय समाप्त।
अध्याय अठारहवाँ
भगवान श्रीकृष्ण ने अपने प्रिय भक्त अर्जुन को अंतिम अध्याय में सन्यास सिद्धि के बारे में ज्ञान दिया
अर्जुन ने भगवान से पूछा--
हे माधव! बतलाइए, क्या है त्याग उद्देश्य।
क्या है जीवन त्यागमय, कह दें आप विशेष्य।। 1
श्रीकृष्ण भगवान ने विस्तार से इसका वर्णन कर कहा--
भौतिक इच्छा से परे, कर कर्मों परित्याग।
फल कर्मों का त्याग दे, यही योग सन्यास।। 2
विद्व सकामी कर्म को, कहें दोष से पूर्ण।
यज्ञ, दान, तप नित करें, यही सत्य सम्पूर्ण।। 3
भरतश्रेष्ठ! निर्णय सुनो, क्या है विषय त्याग।
शास्त्र कहें इस तथ्य को, तीन तरह परित्याग।। 4
यज्ञ, दान, तप नित करें, नहीं करें परित्याग।
सबको करते शुद्ध ये, तन-मन मिटती आग।। 5
अंतिम मत मेरा यही, करो यज्ञ, तप, दान।
अनासक्ति फल बिन करो, हैं कर्तव्य महान।। 6
नियत जरूरी कर्म को, कभी न त्यागें मित्र।
त्याग करें जो मोहवश, वही तामसी चित्र।। 7
नियत कर्म जो त्यागता, मन में भय, तन क्लेश।
रजोगुणी यह त्याग है, मिले न सुफल सुवेश।। 8
नियत कर्म कर्तव्य हैं, त्याग सात्विक जान।
त्याग सुफल आसक्ति दे, कर मेरा गुणगान।। 9
सतोगुणी है बुद्धिमय, लिप्त न शुभ गुण होय।
नहीं अशुभ से भी घृणा, करें न संशय कोय।। 10
करें त्याग जो कर्मफल,वही त्याग की मूर्ति।
कर्मों का कब त्याग हो,चले युगों से रीति।। 11
मृत्यु बाद फल भोगते,नहीं करें जो त्याग।
इच्छ-अनिच्छित कर्मफल,या मिश्रित अनुभाग।।12
सन्यासी हैं जो मनुज,नहीं कर्मफल ढोंय।
सुख-दुख भी कब भोगते,नहीं दुखों से रोंय।।12
सकल कर्म की पूर्ति हो,सुनो वेद अनुसार।
कारण प्रियवर पाँच हैं,सुनो कर्म का सार।।13
कर्म क्षेत्र यह देह है,कर्ता यही शरीर।
इन्द्रिय,चेष्टाएँ अनत,प्रभू पंच हैं मीर।।14
मन,वाणी या देह से,करते जैसा कर्म।
पाँच यही कारण रहे,सकल कर्म-दुष्कर्म।।15
कारण पाँच न मानते,माने कर्ता स्वयं।
बुद्धिमान वे जन नहीं,परख न पाएँ अहम।।16
अहंकार करता नहीं,खोल बुद्धि के द्वार।
उससे यदि कोई मरे,बँधे न पापा भार।।17
ज्ञान ज्ञेय ज्ञाता सभी,कर्म प्रेरणा होंय।
इन्द्रिय,कर्ता कर्म सब,कर्म संघटक होंय।18
बँधी प्रकृति त्रय गुणों में,त्रय-त्रय भेदा होय।
ज्ञान,कर्म कर्ता सभी,वर्णन करता तोय।।19
वही प्रकृति है सात्विक,ज्ञान वही है श्रेष्ठ।
जो देखे सबमें प्रभू,वही भक्तजन ज्येष्ठ।।20
प्रकृति राजसी है वही, देखे भिन्न प्रकार।
सबमें करे विभेद वह,निराधार निस्सार।। 21
वही तामसी प्रकृति है, करे कार्य जो भ्रष्ट।
सत को माने जो असत, होता ज्ञान निकृष्ट।। 22
कर्म सात्विक है वही, जिसमें द्वेष न होय।
कर्मफला आसक्ति से, रहे दूर नर जोय।। 23
रजोगुणी वह कार्य है, इच्छा पूरी होय।
अहंकार मिथ्या पले,भोग फलों को रोय।। 24
कर्म वही जो तामसी, करते शास्त्र विरुद्ध।
दुख पहुँचा , हिंसा करें, तन-मन करें अशुद्ध।। 25
सात्विक कर्ता है वही, करे नीति के कर्म।
उत्साहित संकल्प मन, नहीं डिगे सत् धर्म।। 26
वह कर्ता है राजसी, जिसके ईर्ष्या, लोभ।
मोह, भोग आसक्ति से,मिला अंततः क्षोभ।। 27
चलता राहें तामसी, कर्ता शास्त्र विरुद्ध।
पटु कपटी, भोगी , हठी, आलस- मोहाबद्ध।। 28
भगवान ने प्रकृति के गुणों के बारे में वर्णन किया
-----------------
तीन गुणों से युक्त है,त्रयी प्रकृति का रूप।
सुनो बुद्धि, धृति,दृष्टि से, देखो चित्र अनूप।। 29
सतोगुणी बुद्धि क्या है
----------------
सतोगुणी है बुद्धि वह, जो मन रखे विवेक।
क्या अच्छा है, क्या बुरा, कार्य कराए नेक।। 30
राजसी बुद्धि क्या है
--------------
बुद्धि राजसी सर्वथा, क्या जाने शुभ कर्म।
संशय में है डोलती, भेद न धर्म-अधर्म।। 31
तामसिक बुद्धि क्या है
------------
बुद्धि तामसिक कर सके, भेद न धर्म-अधर्म।
वशीभूत तम,मोह के, करती सदा अकर्म।। 32
सात्विक धृति क्या है
---------------
धृति सात्विकी बस वही, करें योग अभ्यास।
इन्द्रिय,मन वश प्राण कर, करें बुद्धि के पास।। 33
राजसिक धृति क्या है
---------------
सत्य राजसिक धृति वही, रहे कर्मफल लिप्त।
काम, धर्म, धन बीच में, रहे सदा संलिप्त।। 34
तामसिक धृति क्या है
--------------
तमोगुणी है धृति वही , जो लिपटी भय, शोक।
परे नहीं दुख, मोह से, करे न मन पर रोक।। 35
तीन प्रकार के सुख (धृति) क्या हैं
------------------
भरतश्रेष्ठ !मुझसे सुनो, त्रय सुख का गुणगान।
योग-भोग कर जीव सब, करें स्वयं कल्यान।। 36
सात्विक सुख क्या है
---------------
सुख भी सात्विकी है वही , पूर्व लगे विष बेल।
करे आत्म साक्षात जो, यह अमृत सम खेल।। 37
रजोगुणी सुख क्या है
------------------
रजोगुणी धृति है वही, पूर्व अमृत की बेल।
इन्द्रिय विषय मिलाप से, अंत लगे विष खेल।। 38
तामसिक सुख क्या है
---------------
तमोगुणी धृति है वही, रहे आत्म विपरीत।
सुप्त मोह आलस्य में, सुप्त हो, पूर्व,अंत अति तीत।। 39
मनुष्य प्रकृति के तीन गुणों अर्थात सत, रज,तम में बद्ध है
--------------------
बद्ध जीव सब प्रकृति के, मनुज, देव सँग स्वर्ग।
तीन गुणों में लिप्त हैं, फल भोगे सब कर्म।। 40
ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य सब, या हों कर्मा शूद्र।
बँन्धे प्रकृति के गुणों में, भाव कर्म के सूत्र।। 41
ब्राह्मण कर्म क्या हैं
--------------------
आत्मसंयमी, शांति प्रिय, तप, सत रहे पवित्र।
ज्ञान, धर्म, विज्ञानमय, कर्म ब्राह्मण मित्र।। 42
क्षत्रिय कर्म क्या हैं
--------------
शक्ति, वीरता, दक्षता, युद्ध में रखें धैर्य।
हो उदार नेतृत्वमय, हो क्षत्री बल-धैर्य।।43
वैश्य का कर्म क्या है
---------------------
गौ रक्षा, व्यापार कर, करता कृषि के कार्य।
मूल कर्म यह वैश्य का, करे न आलस आर्य।। 44
शूद्र कर्म क्या है
--------------
जो सबकी सेवा करे, यही शूद्र का कर्म।
श्रम करता जो लगन से, यही मानवी धर्म।। 44
कर्म करना ही सबसे श्रेष्ठ है
----------------
अपने कर्म स्वभाव का,करते पालन लोग।
कर्म न छोटा या बड़ा, सिद्धि कर्म का योग।। 45
कर्म-भक्ति नियमित करें, उदगम सबका एक।
सबका ईश्वर एक है, करें कर्म सब नेक।। 46
नियत कर्म सब ही करें, जो हो वृत्ति स्वभाव।
करें लगन संकल्प से, यही श्रेष्ठतम भाव।। 47
जो जिसका कर्तव्य है, करें सभी वह काम।
धैर्य रखें उद्योग से, मिलें सुखद परिणाम।। 48
अनासक्त मन,संयमी, करे न भौतिक भोग।
कर्मफलों से मुक्त हो, यही सिद्धि फल-योग।। 49
परम् सिद्ध जो ब्रह्म है, सर्वोत्तम वह ज्ञान।
कहता हूँ संक्षेप से, कुंतीपुत्र महान।। 50
संसार में अध्यात्म सर्वोच्च गुह्य ज्ञान क्या है और मनुष्य का कर्तव्य क्या है ? भगवान ने अर्जुन को निम्नलिखित बीस दोहों में बताया है। साथ ही बताया कि भक्त का कैसे कल्याण होता है। गीता का स्वाध्याय और प्रचार करने क्या लाभ हैं
--------------------
विषयेन्द्रिय को त्यागकर, करें बुद्धि जो शुद्ध।
मन वश करते धैर्य से, हो जाते वे बुद्ध।। 51
राग-द्वेष से मुक्त हों, करें वास एकांत।
मन-वाणी संयम करें, योगी जन हो शांत।।51
अल्पाहारी, पूर्णतः,विरत, करें न मिथ अहंकार।
काम, क्रोधि, लोभी न हों, रहें सदा निर्विकार।। 52
करें आत्म दर्शन नहीं,पालें स्वामी भाव।
मिथ्या शक्ति,प्रमाद से, भक्ति-सत्य बिखराव। 53
दिव्य भक्ति में जो मनुज, हो जाता है लीन।
परब्रह्म को प्राप्त कर,पाता दृष्टि नवीन।। 54
श्रेष्ठ भक्ति के मार्ग से, मिल जाते भगवान।
पाता नर बैकुंठ गति,और परम कल्यान।। 55
शुद्ध भक्ति जो भी करें, संग करें सब कार्य।
पाएँ वे मेरी कृपा, विमल आचरण धार्य।।56
सकल कार्य अर्पण करो,रखो सदा हित प्यार।
शरणागत का मैं सदा, करता हूँ उद्धार।। 57
श्रद्धा भावी भक्ति से, होता बेड़ा पार।
मिथ्यावादी जो अहम्,पाले मिलती हार।। 58
युद्ध करो अर्जुन सखा, करो स्वभावी कर्म।
भाव अवज्ञा का सदा,नष्ट करे सब धर्म।। 59
मोह जाल प्रिय छोड़कर, करो धर्म का युद्ध।
पहचानो निज कर्म को, कहते शास्त्र, प्रबुद्ध।। 60
जीव-जीव में ईश है,कण-कण अंशाधार।
माया में संलिप्त है, यह पूरा संसार।। 61
भारत!गह मेरी शरण, मिले शांति का धाम।
परमधाम पाओ प्रिये, तुम मेरा अभिराम।। 62
गुह्य ज्ञान मैंने कहा, मनन करो कुलश्रेष्ठ।
जो भी इच्छा फिर करो, जीवन होगा श्रेष्ठ।। 63
सुनो मित्र भारत महत, गूढ़ मर्म का ज्ञान।
यही परम् आदेश है,यही परम कल्यान।। 64
मम चिंतन, पूजन करो,वंदन बारंबार।
पाओगे मुझको अटल, मेरा कथन विचार।। 65
सकल धर्म परित्याग कर,करो!शरण स्वीकार।
सब पापों से मुक्त कर,करता मैं उद्धार।।-66
गुह्य ज्ञान वे कब सुनें,कब संयम अपनायँ।
एकनिष्ठ बिन भक्ति के,द्वेष करें मर जायँ।।-67
इस रहस्य को भक्ति के,जो सबको बतलाय।
शुद्ध भक्ति को प्राप्त हो,लौट शरण मम आय।।-68
वही भक्त अति प्रिय मुझे,मम करता गुणगान।
जो प्रचार मेरा करे,मुझको देव समान।।-69
मैं प्रियवर घोषित करूँ,सुन लें मम संवाद।
करें भक्ति वे बुद्धि से,जीवन बने प्रसाद।।-70
श्रद्धा से गीता सुने,होता वह निष्पाप।
पा जाता शुभ लोक को,पाए पुण्य प्रताप।।-71
प्रथा पुत्र मेरी सुनो,जो पढ़ता यह शास्त्र।
मोह मिटे अज्ञान भी,बनता मम प्रिय पात्र।।-72
भगवान श्रीकृष्ण का सम्पूर्ण ज्ञान पाकर अर्जुन का माया-मोह का आवरण उसके मन-मस्तिष्क से पूरी तरह हट गया था, तब वह युद्ध करने के लिए तैयार हुआ और भगवान से कहा------
अर्जुन कहता कृष्ण से,दूर हुआ मम मोह।
ज्ञानार्जन से बुद्धि पा,मिटा विभ्रम-अवरोह।।-73
कृष्णार्जुन संवाद से,हुआ हृदय-रोमांच।
सच में अद्भुत वार्ता,मन हो गया शुभांत।।-74
व्यास कृपा मुझ पर हुई,सुना परम गुह ज्ञान।
योगेश्वर श्रीकृष्ण ने,जीवन किया महान।।-75
हे राजन!संवाद सुन,मन आह्लादित होय।
अति पावन यह वार्ता,दूर करे सब कोय।।-76
श्रीकृष्ण भगवान के,अद्भुत देखे रूप।
हर्ष भरे आश्चर्य से,जीवन हुआ अनूप।।-77
योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं,जहाँ पार्थ से वीर।
वहीं विजय ऐश्वर्य है,शक्ति,नीति सँग धीर।।-78
इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में " संन्यास सिद्धि योग " अठारहवाँ अध्याय समाप्त।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें