शहर की गरीब बस्ती में इंस्पेक्टर रियाज़ की ड्यूटी अपनी टीम के साथ लगी हुई थी।पूरी मौहल्ले में सड़क पर कोई इंसान लाक डाउन के कारण दूर तक नज़र नहीं आ रहा था।इंसपेक्टर साहब एक मकान की आड़ में छाया ढूँढते हुऐ खड़े हो गये। तभी,उनके पाँव के पास किसी घर की छत से अचानक एक मुड़ा तुड़ा कागज़ का गोला आकर पड़ा। थोड़ी दूर खड़े सिपाही रतनलाल ने तुरंत फुर्ती से उसे उठाया। " यह क्या है रतनलाल ?"
"कुछ लिखा है सर जी इसमें..!"
"क्या लिखा है ?पढ़ो..!"
"जी सर ।"रतनलाल ज़ोर से पढ़ने लगा।उस कागज़ में कुछ यों लिखा था...
"पुलिस अंकल,
नमस्ते,
मैं कक्षा छह में सरकारी स्कूल में पढ़ता हूँ।हमारे घर में दो दिन से रोटी नहीं पकी है।मेरी माँ दूसरे घरों में काम करने जाती है।अब कोरोना के डर के मारे नहीं जा पा रही है। वैसे माँ से अब उठा भी नहीं जा रहा है,कह रही है चक्कर आ रहे हैं। बापू दिल्ली सहर में काम करने गया है ।कोई बता रहा था कि उसे वहीं पकड़ लिया होगा।कुछ दिन पहले कोई अंकल लोग हमें आटा चावल और कुछ सामान दे गये थे।सबको मिला था।मगर अब तो वो भी खत्म हो गया है...।मैने बहुत दिन से मंजन भी नहीं किया सर जी...बालों में तेल भी नहीं डला.....गैस भी खत्म हो गयी है....।
माँ कहती है कि जिसे कोरोना हो रहा है, उसे अस्पताल में फल और खाना भी मिल रहा है। दूध और अंडा भी.......!सर जी ,हमें भी बाहर जाकर कोरोना होने दो ना....!खाना तो मिलेगा ना फिर? बहुत भूख लगी है सर जी...!हमें डाक्टर साहब तो बचा ही लेगें न..!
अंतिम पंक्ति पढ़ते पढ़ते रतनलाल का गला रुंध गया था।
इंस्पेक्टर रियाज़ ने कागज़ रतनलाल के हाथ से ले लिया।कागज़ में शायद नीचे उस बच्चे ने अपना नाम लिखा था .. "भोला.".
इंस्पेक्टर साहब ने बस्ती के मकानों की ओर मुँह उठाकर देखा तो कलेजा मुँह को आ गया।..... " या ख़ुदा रहम कर !" इंसपेक्टर रियाज़ के मुँह से निकल पड़ा।लगभग हर टूटे फूटे मकान की छत और खिड़कियों पर मासूम बच्चों के निस्तेज चेहरे सूनी आँखों से सड़कों को ताकते नज़र आ रहे थे।जिनके बेतरतीब सूखे बाल,अंदर को धंसी हुई आँखे,पीले पड़ चुके ज़र्द चेहरे, गालों के उभार की दिखायी देती हुई हड्डियाँ...!उफ्फ....!" शायद अनुमान नहीं लगा पा रहे थे कि "इनमें कौन सा "भोला"है..?जिसने यह परचा फेंका है।"
✍️ मीनाक्षी ठाकुर
मिलन विहार
मुरादाबाद 244001
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें