वाट्स एप पर संचालित समूह 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' द्वारा 4 व 5 जून 2020 को 'एक दिन एक साहित्यकार' की श्रृंखला के अन्तर्गत ग़ज़लकार राहुल शर्मा की दस गजलों पर ऑन लाइन साहित्यिक चर्चा की गई। सबसे पहले राहुल शर्मा द्वारा अपनी निम्न दस ग़ज़लें पटल पर प्रस्तुत की गयीं-
*(1)*
यकीं लाज़िम है रिश्तों में वफादारी ज़रूरी है
मगर ए दिल मोहब्बत में भी खुद्दारी ज़रूरी है
मियाँ सादाबयानी झूठ सी है दौरे-हाज़िर में
भले सच बोलिए लेकिन अदाक़ारी ज़रूरी है
हमेशा आलिमों से ही नहीं मिलते सबक सारे
कभी कुछ ज़ाहिलों से भी मग़ज़मारी ज़रूरी है
परायों का भी दुनिया साथ देती है भलाई में
अगर अपना ग़लत भी हो तरफ़दारी ज़रूरी है
सियासत के घने जंगल में ज़िंदा रहना है तो फिर
तआल्लुक लोमड़ी से गिद्ध से यारी ज़रूरी है
जहां केवल समर्पण ही समर्पण हो वहाँ "राहुल"
न चालाकी मुनासिब है न हुशियारी ज़रूरी है
*(2)*
हम दोनों में से क्या मद हैं
सचमुच हैं या फिर शायद हैं
हमसे मत इतराया कीजे
रजधानी जी हम सरहद हैं
पनपो तो इनसे दूर रहो
पौधों संभलो ये बरगद हैं
दोनों की तुलना बेमानी
तुम ऊंचाई हो वो क़द हैं
ये लोकतंत्र का हासिल है
छोटे हैं लोग बडे़ पद हैं
किस दुनिया के दस्तूर हैं ये
हम लोगों पर क्यूँ आयद हैं
*(3)*
भेजा है क्या सवाल छुपाकर जबाब में
पैवस्त है महीन सा कांटा गुलाब में
इस ज़िंदगी ने मूल भी वापस नहीं किया
हमने तो सूद जोड़ रखा था हिसाब में
पाया जो ठोकरों से वही ठीक था सबक
आया न काम कुछ जो लिखा था किताब में
नाकामियां, उदासियां, तन्हाई, ज़िल्लतें
क्या क्या मिलाके पी गए हम भी शराब में
जीवन की भागदौड़ ने छोड़ा कहाँ है वक़्त
आराम से मिलेंगे कभी आओ ख्वाब में
*(4)*
कुछ अंधेरा हैं कुछ उजास हैं हम
दोस्त कड़वी सी एक मिठास हैं हम
दर्द को दिल में दी शरण हमने
आंसुओं का नया विकास हैं हम
बस हमें टूटने नहीं देना
कितनी आंखों की एक आस हैं हम
सौंपना मत हमें बदन अपना
चिथड़ा चिथड़ा हुए लिबास हैं हम
एक पर्दा तो कायनात उठा
हैं हकीक़त कि फिर क़यास हैं हम
जाने कब किसके रूबरू निकलें
दिल के भीतर दबी भड़ास हैं हम
प्यास जिसने बुझाई है सबकी
अनबुझी उस नदी की प्यास हैं हम
*(5)*
वो लोग और थे कि गिरे और संभल गए
हम ख्वाहिशों की भीड़ के नीचे कुचल गए
खाली थी मेरी जेब परेशान तो मैं था
ये क्या हुआ कि आपके तेवर बदल गए
सूरज को एहतियात बरतने की राय दो
कुछ लोग सुब्ह ओस की बूंदों से जल गए
वो झूठ थे कि जिनको रटाना पड़ा तमाम
सच हैं कि अपनेआप ज़ुबां से निकल गए
जब ये लगा कि वक़्त मेरी मुट्ठियों में है
लम्हे तमाम रेत के जैसे फिसल गए
दुनिया तेरे निज़ाम की गफलत अजीब है
खोटे तमाम सिक्के सरेआम चल गए
हासिल नहीं है शायरी पैदायशी हमें
आँसू हमारे शेरों की सूरत में ढल गए
*(6)*
अपने बारे में कुछ इस तरह बताती है मुझे
एक सबक ज़िंदगी हर रोज सिखाती है मुझे
ख्वाब होते तो निगाहों में संजो लेता मै
तुम हक़ीक़त हो यही बात डराती है मुझे
एक अनजान डगर खींच रही है मुझको
कोई खामोश सदा पास बुलाती है मुझे
मै किसी हुक्म की तामील समझता हूँ उसे
वो किसी फ़र्ज़ के मानिंद निभाती है मुझे
एक दो वार तेरे और भी सह सकता हूँ
जान बाकी है अभी साँस भी आती है मुझे
*(7)*
ख़ुद को ही ढूंढने में कहीं मुब्तला हैं हम
यारो हमें तलाश करो गुमशुदा हैं हम
मौका मिला तो हाथ से जाने नहीं दिया
कितना गुरूर था कि बड़े पारसा हैं हम
सर चढ़ के बोलती हैं हमारी अलामतें
दूरी बनाए रखिए जुनूं हैं नशा हैं हम
सारी सजाएँ काट लीं अब फैसला तो दे
सचमुच कसूरवार हैं या बेख़ता हैं हम
मानो तो ठीक और न मानो है तब भी ठीक
हुक्मे अमल नहीं हैं फकत मशविरा हैं हम
कुछ दूर तक तो साथ हमारे भी चल के देख
मंज़िल भी हैं पड़ाव भी हैं रास्ता हैं हम
*(8)*
अपने बारे में समझा गईं रोटियाँ
आख़िरी सच हैं बतला गईं रोटियाँ
भूख ने मार डाले बहुत फिक्रो फन
जाने कितने हुनर खा गयीं रोटियाँ
ज़र्द चेहरे पे कौंधी चमक कह उठी
आ गईं रोटियाँ आ गईं रोटियाँ
किससे कब कैसी क़ीमत वसूली कहो
मैंने पूछा तो शर्मा गयीं रोटियाँ
पेट की आग ठंडी न बेशक हुई
पर सियासत तो गर्मा गयीं रोटियाँ
आख़िरश भूख ईमान पर छा गयी
हर हिदायत को ठुकरा गयीं रोटियाँ
जब भरे पेट वालों के हिस्से पड़ीं
अपनी हालत पे झुंझला गईं रोटियाँ
*(9)*
दोनों की हो रही है गुजर जिन्दगी के साथ
हम तीरगी के साथ हैं वो रोशनी के साथ
करती है एक मौत कई ज़िंदगी खराब
मरते हैं लोग कितने ही एक आदमी के साथ
आंखों में अश्क भर के मुझे रोकने की ज़िद
ये क्या मज़ाक है मेरी आवारगी के साथ
मंज़िल कहाँ है वैसे भी मालूम है नहीं
उसपे भी चल दिए हैं किसी अजनबी के साथ
तेरे लिए जो शौक है मेरे लिए गुनाह
तू मालो ज़र के साथ है मै मुफलिसी के साथ
एक दूसरे से आंख बचा कर निकल गए
वो भी किसी के साथ था मै भी किसी के साथ
*(10)*
कोशिशें औरों की बेशक दिल तो बहलाती रहीं
रौनकें जिससे थीं उसके साथ ही जाती रहीं
साथ मिलकर काम करने का मज़ा कुछ यूँ रहा
तालियाँ साझा रहीं और गालियाँ ज़ाती रहीं
चैन सारा पी गयी मेरा ज़रूरत की नदी
और हिस्से का सुकूं दो रोटियाँ खाती रहीं
ज़िल्लतें, रुसवाईयां, बदनामियां और तोहमतें
जिनसे बचते थे वही सब सामने आती रहीं
झोंपड़ी हर आपदा के सामने जूझी, लडी़
कोठियां तो बस ज़बानी फिक्र फरमाती रहीं
ज़ोर कोई हल नहीं है जल्द बाज़ी है फिज़ूल
गिरहें नादां उंगलियों को सब्र सिखलाती रहीं
रोशनी क़ायम रहेगी बस दियों की शक्ल में
आंधियां सूरज से अपनी शर्त मनवाती रहीं
बावरा मन बुद्धि से कहता रहा अपनी व्यथा
कल्पनाएं भावना को शब्द पहनाती रहीं
इन गजलों पर चर्चा करते हुए प्रख्यात नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ने कहा कि "राहुल शर्मा अपनी पहली ग़ज़ल से ही पाठक से जो रिश्ता बनाते हैं वह उन्हें एक प्रगतिशील शायर के रूप में सामने लाता है, उनकी ग़ज़लें पढकर लगता है कि उनके भीतर शमशेर बहादुर सिंह और दुष्यंत कुमार का ग़ज़लकार तो मौजूद है ही नागार्जुन जी का तेवर भी है "।
विख्यात व्यंग्य कवि डॉ. मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि "राहुल शर्मा की कहन में सफलता-असफलता के दर्शन के साथ ईमानदारी की तराजू पर किया गया आत्मनिरीक्षण भी मौजूद है"।
वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. अजय अनुपम ने कहा कि "राहुल जी की गजलें इंसानी तहज़ीब का आईना सामने लेकर आयी हैं"।
वरिष्ठ शायर डॉ. कृष्ण कुमार नाज़ ने कहा कि "राहुल शर्मा के शेर ज़िन्दगी की हकीकत को स्वयं में समेटे हुए होते हैं। उन्होंने जो देखा और महसूस किया वहीं अपने अशआर में ढाला है"।
नवगीत कवि योगेन्द्र वर्मा व्योम ने उनकी ग़ज़लों के बारे में कहा कि "राहुल जी की ग़ज़लें परंपरागत ग़ज़लों और आधुनिक ग़ज़लों की संधिबिंदु की ग़ज़लें हैं. इनमें एक अलग तरह की मिठास भी है और अपने समय का कसैलापन भी"।
युवा कवि राजीव 'प्रखर' ने कहा कि "भाई राहुल शर्मा जी की ग़ज़लें आम ज़िन्दगी को गहराई से छूती हुई श्रोताओं व पाठकों से सीधे बात करती हैं"।
कवि शिशुपाल मधुकर ने कहा कि "राहुल जी की गजलें परंपरा को निभाते हुए प्रगतिवाद की ओर कदम बढ़ाती दिखती हैं"।
युवा शायर अंकित गुप्ता अंक ने कहा कि "राहुल जी की गजलें आम जिंदगी की पशोपेश को बड़े ही प्रभावशाली ढंग से पाठकों के सामने रखती हैं"।
डॉ. अजीमउल हसन ने कहा कि "राहुल जी आम जनमानस के दर्द और पीड़ा को अनुभव करते हैं और उसे गजलों के रूप में प्रस्तुत कर देते हैं"।
युवा शायर मनोज मनु ने कहा कि "राहुल साहब के भीतर एक खुद्दार शायर मौजूद है जो अपनी खुद्दारी से सौदा नहीं करता और जिंदगी की बारीकियों को अपने अनोखे अंदाज में बयां करता है"।
युवा शायर फरहत अली खान ने कहा कि "राहुल जी की ग़ज़लों में कल्पनाओं का दखल कम हकीकत का कब्जा ज्यादा है"।
युवा गीतकार मयंक शर्मा ने कहा कि "आमतौर पर ग़ज़ल का कोई एक या दो शेर ही दिल को छूता है लेकिन यहां प्रस्तुत राहुल जी का एक-एक शेर शानदार है"।
ग्रुप एडमिन और संचालक ज़िया ज़मीर ने कहा कि "राहुल शर्मा ने दोनों ज़ुबानों को एक साथ एक जैसा इस्तेमाल करके अपनी शायरी में एक गाढ़ा रंग पैदा कर लिया है"।
::::::: प्रस्तुति ::::::::
✍️ ज़िया ज़मीर
ग्रुप एडमिन
"मुरादाबाद लिटरेरी क्लब"
मो० 7017612289
*(1)*
यकीं लाज़िम है रिश्तों में वफादारी ज़रूरी है
मगर ए दिल मोहब्बत में भी खुद्दारी ज़रूरी है
मियाँ सादाबयानी झूठ सी है दौरे-हाज़िर में
भले सच बोलिए लेकिन अदाक़ारी ज़रूरी है
हमेशा आलिमों से ही नहीं मिलते सबक सारे
कभी कुछ ज़ाहिलों से भी मग़ज़मारी ज़रूरी है
परायों का भी दुनिया साथ देती है भलाई में
अगर अपना ग़लत भी हो तरफ़दारी ज़रूरी है
सियासत के घने जंगल में ज़िंदा रहना है तो फिर
तआल्लुक लोमड़ी से गिद्ध से यारी ज़रूरी है
जहां केवल समर्पण ही समर्पण हो वहाँ "राहुल"
न चालाकी मुनासिब है न हुशियारी ज़रूरी है
*(2)*
हम दोनों में से क्या मद हैं
सचमुच हैं या फिर शायद हैं
हमसे मत इतराया कीजे
रजधानी जी हम सरहद हैं
पनपो तो इनसे दूर रहो
पौधों संभलो ये बरगद हैं
दोनों की तुलना बेमानी
तुम ऊंचाई हो वो क़द हैं
ये लोकतंत्र का हासिल है
छोटे हैं लोग बडे़ पद हैं
किस दुनिया के दस्तूर हैं ये
हम लोगों पर क्यूँ आयद हैं
*(3)*
भेजा है क्या सवाल छुपाकर जबाब में
पैवस्त है महीन सा कांटा गुलाब में
इस ज़िंदगी ने मूल भी वापस नहीं किया
हमने तो सूद जोड़ रखा था हिसाब में
पाया जो ठोकरों से वही ठीक था सबक
आया न काम कुछ जो लिखा था किताब में
नाकामियां, उदासियां, तन्हाई, ज़िल्लतें
क्या क्या मिलाके पी गए हम भी शराब में
जीवन की भागदौड़ ने छोड़ा कहाँ है वक़्त
आराम से मिलेंगे कभी आओ ख्वाब में
*(4)*
कुछ अंधेरा हैं कुछ उजास हैं हम
दोस्त कड़वी सी एक मिठास हैं हम
दर्द को दिल में दी शरण हमने
आंसुओं का नया विकास हैं हम
बस हमें टूटने नहीं देना
कितनी आंखों की एक आस हैं हम
सौंपना मत हमें बदन अपना
चिथड़ा चिथड़ा हुए लिबास हैं हम
एक पर्दा तो कायनात उठा
हैं हकीक़त कि फिर क़यास हैं हम
जाने कब किसके रूबरू निकलें
दिल के भीतर दबी भड़ास हैं हम
प्यास जिसने बुझाई है सबकी
अनबुझी उस नदी की प्यास हैं हम
*(5)*
वो लोग और थे कि गिरे और संभल गए
हम ख्वाहिशों की भीड़ के नीचे कुचल गए
खाली थी मेरी जेब परेशान तो मैं था
ये क्या हुआ कि आपके तेवर बदल गए
सूरज को एहतियात बरतने की राय दो
कुछ लोग सुब्ह ओस की बूंदों से जल गए
वो झूठ थे कि जिनको रटाना पड़ा तमाम
सच हैं कि अपनेआप ज़ुबां से निकल गए
जब ये लगा कि वक़्त मेरी मुट्ठियों में है
लम्हे तमाम रेत के जैसे फिसल गए
दुनिया तेरे निज़ाम की गफलत अजीब है
खोटे तमाम सिक्के सरेआम चल गए
हासिल नहीं है शायरी पैदायशी हमें
आँसू हमारे शेरों की सूरत में ढल गए
*(6)*
अपने बारे में कुछ इस तरह बताती है मुझे
एक सबक ज़िंदगी हर रोज सिखाती है मुझे
ख्वाब होते तो निगाहों में संजो लेता मै
तुम हक़ीक़त हो यही बात डराती है मुझे
एक अनजान डगर खींच रही है मुझको
कोई खामोश सदा पास बुलाती है मुझे
मै किसी हुक्म की तामील समझता हूँ उसे
वो किसी फ़र्ज़ के मानिंद निभाती है मुझे
एक दो वार तेरे और भी सह सकता हूँ
जान बाकी है अभी साँस भी आती है मुझे
*(7)*
ख़ुद को ही ढूंढने में कहीं मुब्तला हैं हम
यारो हमें तलाश करो गुमशुदा हैं हम
मौका मिला तो हाथ से जाने नहीं दिया
कितना गुरूर था कि बड़े पारसा हैं हम
सर चढ़ के बोलती हैं हमारी अलामतें
दूरी बनाए रखिए जुनूं हैं नशा हैं हम
सारी सजाएँ काट लीं अब फैसला तो दे
सचमुच कसूरवार हैं या बेख़ता हैं हम
मानो तो ठीक और न मानो है तब भी ठीक
हुक्मे अमल नहीं हैं फकत मशविरा हैं हम
कुछ दूर तक तो साथ हमारे भी चल के देख
मंज़िल भी हैं पड़ाव भी हैं रास्ता हैं हम
*(8)*
अपने बारे में समझा गईं रोटियाँ
आख़िरी सच हैं बतला गईं रोटियाँ
भूख ने मार डाले बहुत फिक्रो फन
जाने कितने हुनर खा गयीं रोटियाँ
ज़र्द चेहरे पे कौंधी चमक कह उठी
आ गईं रोटियाँ आ गईं रोटियाँ
किससे कब कैसी क़ीमत वसूली कहो
मैंने पूछा तो शर्मा गयीं रोटियाँ
पेट की आग ठंडी न बेशक हुई
पर सियासत तो गर्मा गयीं रोटियाँ
आख़िरश भूख ईमान पर छा गयी
हर हिदायत को ठुकरा गयीं रोटियाँ
जब भरे पेट वालों के हिस्से पड़ीं
अपनी हालत पे झुंझला गईं रोटियाँ
*(9)*
दोनों की हो रही है गुजर जिन्दगी के साथ
हम तीरगी के साथ हैं वो रोशनी के साथ
करती है एक मौत कई ज़िंदगी खराब
मरते हैं लोग कितने ही एक आदमी के साथ
आंखों में अश्क भर के मुझे रोकने की ज़िद
ये क्या मज़ाक है मेरी आवारगी के साथ
मंज़िल कहाँ है वैसे भी मालूम है नहीं
उसपे भी चल दिए हैं किसी अजनबी के साथ
तेरे लिए जो शौक है मेरे लिए गुनाह
तू मालो ज़र के साथ है मै मुफलिसी के साथ
एक दूसरे से आंख बचा कर निकल गए
वो भी किसी के साथ था मै भी किसी के साथ
*(10)*
कोशिशें औरों की बेशक दिल तो बहलाती रहीं
रौनकें जिससे थीं उसके साथ ही जाती रहीं
साथ मिलकर काम करने का मज़ा कुछ यूँ रहा
तालियाँ साझा रहीं और गालियाँ ज़ाती रहीं
चैन सारा पी गयी मेरा ज़रूरत की नदी
और हिस्से का सुकूं दो रोटियाँ खाती रहीं
ज़िल्लतें, रुसवाईयां, बदनामियां और तोहमतें
जिनसे बचते थे वही सब सामने आती रहीं
झोंपड़ी हर आपदा के सामने जूझी, लडी़
कोठियां तो बस ज़बानी फिक्र फरमाती रहीं
ज़ोर कोई हल नहीं है जल्द बाज़ी है फिज़ूल
गिरहें नादां उंगलियों को सब्र सिखलाती रहीं
रोशनी क़ायम रहेगी बस दियों की शक्ल में
आंधियां सूरज से अपनी शर्त मनवाती रहीं
बावरा मन बुद्धि से कहता रहा अपनी व्यथा
कल्पनाएं भावना को शब्द पहनाती रहीं
इन गजलों पर चर्चा करते हुए प्रख्यात नवगीतकार माहेश्वर तिवारी ने कहा कि "राहुल शर्मा अपनी पहली ग़ज़ल से ही पाठक से जो रिश्ता बनाते हैं वह उन्हें एक प्रगतिशील शायर के रूप में सामने लाता है, उनकी ग़ज़लें पढकर लगता है कि उनके भीतर शमशेर बहादुर सिंह और दुष्यंत कुमार का ग़ज़लकार तो मौजूद है ही नागार्जुन जी का तेवर भी है "।
विख्यात व्यंग्य कवि डॉ. मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि "राहुल शर्मा की कहन में सफलता-असफलता के दर्शन के साथ ईमानदारी की तराजू पर किया गया आत्मनिरीक्षण भी मौजूद है"।
वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. अजय अनुपम ने कहा कि "राहुल जी की गजलें इंसानी तहज़ीब का आईना सामने लेकर आयी हैं"।
वरिष्ठ शायर डॉ. कृष्ण कुमार नाज़ ने कहा कि "राहुल शर्मा के शेर ज़िन्दगी की हकीकत को स्वयं में समेटे हुए होते हैं। उन्होंने जो देखा और महसूस किया वहीं अपने अशआर में ढाला है"।
नवगीत कवि योगेन्द्र वर्मा व्योम ने उनकी ग़ज़लों के बारे में कहा कि "राहुल जी की ग़ज़लें परंपरागत ग़ज़लों और आधुनिक ग़ज़लों की संधिबिंदु की ग़ज़लें हैं. इनमें एक अलग तरह की मिठास भी है और अपने समय का कसैलापन भी"।
युवा कवि राजीव 'प्रखर' ने कहा कि "भाई राहुल शर्मा जी की ग़ज़लें आम ज़िन्दगी को गहराई से छूती हुई श्रोताओं व पाठकों से सीधे बात करती हैं"।
कवि शिशुपाल मधुकर ने कहा कि "राहुल जी की गजलें परंपरा को निभाते हुए प्रगतिवाद की ओर कदम बढ़ाती दिखती हैं"।
युवा शायर अंकित गुप्ता अंक ने कहा कि "राहुल जी की गजलें आम जिंदगी की पशोपेश को बड़े ही प्रभावशाली ढंग से पाठकों के सामने रखती हैं"।
डॉ. अजीमउल हसन ने कहा कि "राहुल जी आम जनमानस के दर्द और पीड़ा को अनुभव करते हैं और उसे गजलों के रूप में प्रस्तुत कर देते हैं"।
युवा शायर मनोज मनु ने कहा कि "राहुल साहब के भीतर एक खुद्दार शायर मौजूद है जो अपनी खुद्दारी से सौदा नहीं करता और जिंदगी की बारीकियों को अपने अनोखे अंदाज में बयां करता है"।
युवा शायर फरहत अली खान ने कहा कि "राहुल जी की ग़ज़लों में कल्पनाओं का दखल कम हकीकत का कब्जा ज्यादा है"।
युवा गीतकार मयंक शर्मा ने कहा कि "आमतौर पर ग़ज़ल का कोई एक या दो शेर ही दिल को छूता है लेकिन यहां प्रस्तुत राहुल जी का एक-एक शेर शानदार है"।
ग्रुप एडमिन और संचालक ज़िया ज़मीर ने कहा कि "राहुल शर्मा ने दोनों ज़ुबानों को एक साथ एक जैसा इस्तेमाल करके अपनी शायरी में एक गाढ़ा रंग पैदा कर लिया है"।
::::::: प्रस्तुति ::::::::
✍️ ज़िया ज़मीर
ग्रुप एडमिन
"मुरादाबाद लिटरेरी क्लब"
मो० 7017612289
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