मंगलवार, 11 अगस्त 2020

वाट्सएप पर संचालित समूह "साहित्यिक मुरादाबाद" में प्रत्येक मंगलवार को बाल साहित्य गोष्ठी का आयोजन किया जाता है। मंगलवार 28 जुलाई 2020 को आयोजित गोष्ठी में शामिल साहित्यकारों दीपक गोस्वामी चिराग , वीरेंद्र सिंह बृजवासी, अशोक विद्रोही, प्रीति चौधरी, नृपेंद्र शर्मा सागर, डॉ रीता सिंह, निवेदिता सक्सेना, राजीव प्रखर, आयुषी अग्रवाल, डॉ श्वेता पूठिया, मनोरमा शर्मा, डॉ प्रीति हुंकार, रामकिशोर वर्मा, सीमा रानी और मरगूब अमरोही की रचनाएं ------

अक्कड़, बक्कड़, लाल बुझक्कड़* ।
तीन दोस्त थे, तीनों फक्कड़।
नदी किनारे उनका ग्राम।
 दिल्ली में अटका कुछ काम।

तीनों भैया चले मेल में।
तीनों ही धर गए रेल में ।
*अक्कड़* बोला, *बक्कड़* जाओ।
जाकर तीन टिकट ले आओ।
*बक्कड़* बोला कहते *'जाओ'*।
पहले रुपये तो पकड़ाओ ।

*भैंस के आगे बज गई बीन*।
रुपये निकले *साढ़े तीन*।
साढे़ तीन भी हो गये फिट।
उसमें आया *हाफ टिकिट*।

तीनों फिर से चढ़े रेल में ।
मस्त हो गए *ताश-खेल* में।
 इतने में फिर चल दी रेल।
भीड़ की हो गई *रेलम-पेल*।

तीस मिनट चल रुक गई गाड़ी।
जंगल बीच बड़ी थीं *झाड़ी*।
अक्कड़ बक्कड़ हो गए बोर।
इतने में ही मच  गया शोर।

*टी.टी.* आया, टी.टी. आया ।
*लाल बुझक्कड़* था घबराया।
खत्म हो गया सारा खेल।
अब तो सीधी होगी *जेल*।

*बक्कड़* बोला मत घबराओ।
सीट के नीचे तुम घुस जाओ।
 इतने में फिर *टी.टी* आया।
 सबने टिकट *चैक* करवाया।

बक्कड़ भी था पूरा *फिट*।
 रखा हाथ पर *हाफ टिकिट*।
टी.टी. को जब *टिकिट थमाया।
टी.टी. ने उस को धमकाया।

टी.टी बोला यह आधा है।
बक्कड़ बोला क्या ज्यादा है?
क्यों बोलो जी इसे अधूरा?
पर यह तो दिखता है पूरा।

यह तो बच्चे का लगता है ।
बच्चू! तू हमको ठगता है ।
आधा मतलब होता हाफ।
हमको भैया! कर दो माफ।

पूरे को तुम आधा कहते।
जाने कौन देश में रहते।
आधा मतलब एक बटा दो ।
जल्दी पूरा टिकिट दिखा दो।

एक बटा दो' क्या बतलाओ।
पूरी बात हमें समझाओ।
ऊपर एक नीचे दो रहते।
बटा बीच के डेस(-) को कहते।

बक्कड़ बोला इतनी बात।
इस पर ही करते उत्पात।
ऊपर मैं और बीच बटा है।
नीचे भी दो लोग डटा है।

तन कर फिर बोला यों बक्कड़।
निकलो अक्कड़,लाल बुझक्कड़।
पूरा टिकट जब एक बटा दो।
हम तीनों भी एक बटा दो ।

टी.टी. के सब गिरे विकिट।
हिट हो गया पर हाफ टिकट।
...
दीपक गोस्वामी 'चिराग'
शिव बाबा सदन, कृष्णा कुंज
बहजोई 24410
उ. प्र.
मो.9548812618
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एक   दिवस  चूहे   राजा  ने
बनवाई              बिरियानी
घी  में भूनी  प्याज़ साथ  में
नमक       मिर्च    मनमानी
उबले चावल डाल  मिलाया
पकने       लायक      पानी
करके  ढक्कन बंद  देरतक
पकने      दी       बिरियानी
खुशबू  से  अंदाज़ लगाकर
बोली              चुहियारानी
पक जाने पर  तश्तरियों  में
परसी       तब    बिरियानी
इसे  देख बिल्ली  मौसी  के
मुख      में     आया   पानी
चूहों  ने  आपस   में  सोचा
सही        नहीं       नादानी
इस  बिरियानी के चक्करमें
पड़े     न    जान     गवानी
उल्टे पैर  छुपे  जा  बिल  में
छोड़ी       दावत       खानी
मौका  देख स्वयं  बिल्ली  ने
चट  कर    दी     बिरियानी।
       
वीरेन्द्र सिंह ब्रजवासी
मुरादाबाद/उ,प्र,
9719275453
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देखो देखो बर्षा आई
       सब बच्चों के मन को भाई
कल तक गर्मी सता रही थी
          खूब पसीना बहा रही थी
चलने लगी पवन पुरवइया
         सावन आया आओ भैया
तीजों का संदेशा लाई
          देखो देखो बरसा आई
बड़े ज़ोर से गरज रहा है
    बादल रिमझिम बरस रहा है
भीग रहे हैं खेत बाग बन
          भीग रहे सारे घर आंगन
मौसम ने ली है अंगड़ाई
            देखो देखो बरसा आई
काली काली घटा घिरी हैं
       सूर्य किरण भी डरी डरी हैं
दिन में अंधियारी छाई है
              गर्मी से राहत पाई है
कोयल ने भी कूक लगाई
            देखो देखो वर्षा आई
घूम रही बच्चों की टोली
      भीग भीग कर करें ठिठोली
छाता लेकर दौड़ लगाते
       कागज की सब नाव चलाते
जमकर खूब पकौड़ी खाई
             देखो देखो बर्षा आई
सब बच्चो के मन को भाई

अशोक विद्रोही
 82 188 25 541
 412 प्रकाश नगर मुरादाबाद
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जीवन में रुकना
कुछ ऐसे भी हो जाता है।

जिसका पता स्वयं
हमें भी नहीं चल पाता है।

हम उठते हैं हर रोज़
पर डगर एक पर चलते हैं।

नयी राह पर चलने से
हम हमेशा ही बचते हैं।

 आराम हमें जो भाते हैं
 वही नकारा हमें बनाते हैं।

 बचकर हर काम से जो
चालाक ख़ुद को समझते हैं।

 धोखे उनके, एक दिन
उनको ही खा जाते हैं।

नही चखते मेहनत को जो
आलस्य से तन भरते हैं।

बस बैठकर महफ़िल में
निंदा सबकी करते हैं।

ज़िंदगी की दौड़ में
वही पीछे रह जाते है

जो दोष अपनी हार का
क़िस्मत पर लगाते है

सितारे इस जग में
ऐसे ही नही चमकते है

मेहनत की बगिया में ही
सफलता के पुष्प उगते हैं।

बंजर ज़मीन पर जब
पसीने के मेघ बरसते हैं।

उस धरा पर ही फिर
अंकुरित बीज पनपते हैं।

त्याग ,समर्पण की अग्नि में
जो जन  जीवन में तपते हैं।

सोना बन वही एक दिन
इस दुनिया में चमकते हैं।


प्रीति चौधरी, शिक्षिका
राजकीय बालिका इण्टर कॉलेज,
हसनपुर, जनपद अमरोहा
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रक्षाबंधन

रक्षाबंधन का दिन था चारों ओर रंग बिरंगी सुंदर राखियों और मिठाइयों की भरमार थी। सारे लड़के अपनी-अपनी कलाई पर बंधी रंग बिरंगी राखियां सबको दिखाते घूम रहे थे।
मुन्नू भट्ठी पर चढ़ी कढ़ाई में  चीनी और मावा एक बड़े से लकड़ी के घोटे से घोट रहा था।
"अबे जल्दी-जल्द हाथ चला कामचोर.. देखता नहीं बर्फी खत्म होने वाली है। साला त्यौहार के दिन ही ना जाने क्यों इसकी नानी मर जाती है", दुकान का मालिक राजू सेठ गुस्से से चिल्लाया।
मुन्नू जो किसी गहरी सोच में डूबा हुआ था इस आवाज से झटके से हिला और उसके हाथ मशीन की तेजी से चलने लगे। मुन्नू की आँख से निकली आँसू की एक बूँद भट्ठी की आग में टपक गयी जिसकी "छुन्न!!" की आवज मुन्नू ने साफ-साफ सुनी।
मुन्नू कोई तेरह-चौदह साल का बालक था जिसके परिवार में उसकी माँ को छोड़कर कोई नहीं था।वह घर चलाने के लिए राजू हलवाई की दुकान पर नौकरी करता था।
अभी सेठ कुछ और बोलता तभी सेठ की दस साल की बेटी सजी-धजी दुकान में आयी, उसके हाथ में एक राखी थी।
"पापा..! पापा मैं किसको राखी बाँधूं? मेरा तो कोई भाई भी नहीं है.. लाओ पापा हमेशा की तरह आपको ही राखी बांध देती हूँ", सेठ की बेटी मोनी ने कहा।
"अभी खेलो कुछ देर, देखती नहीं हो कितने ग्राहक हैं। अभी थोड़ी फुर्सत होने दो", राजू ने चिढ़ते हुए लापरवाही से कहा।
उदास मोनी इधर-उधर देखने लगी, तभी उसकी नज़र मुन्नू पर पड़ी और वह उसकी तरफ बढ़ गयी। "अरे मुन्नू..! तुम इतने उदास क्यों लग रहे हो? और तुम्हारी कलाई भी सुनी है। क्या तुम्हारी बहन से तुम्हारा झगड़ा हुआ है?" मोनी ने धीरे पूछा।
"मेरी कोई बहन नहीं है", मुन्नू ने दुख भरी धीमी आवाज में कहा। "क्या?? अरे मेरा भी कोई भाई नहीं है देखो मेरी राखी.. इसे अभी तक किसी ने नहीं बंधवाया। तुम मेरे भाई बनोगे मुन्नू?" मोनी ने मुस्कुरा कर पूछा।
जवाब में मुन्नू ने अपनी कलाई आगे कर दी और मोनी ने झटपट राखी मुन्नू के हाथ में बांध दी।
मोनी दौड़कर फिर काउंटर पर पहुँची और बोली- "देखो पापा आज से मुन्नू मेरा भाई है। मैंने उसे राखी बांध दी है। अब आप मुझे मेंरेे भाई का मुँह मीठा करवाने के लिए मिठाइयां दो।"
राजू ने सर उठाकर चौंककर मोनी को देखा और अगले ही पर जाने क्या सोचकर मुस्कुराते हुए कुछ मिठाई एक डिब्बे में रखकर दे दीं।
"लो भईया मिठाई खाओ", मोनी ने कहा और अपने हाथ से मिठाई का एक टुकड़ा मुन्नू के मुँह में डाल दिया।
इस बार फिर मुन्नू की आँख से आँसू टपका लेकिन हवा उस आँसू को उड़ा कर ले गयी।

नृपेंद्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा
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दादी कितना प्यार लुटाती
देख मुझे फूली न समाती
रोज बलैया लेकर मेरी
बड़ी खुशी से गोद उठाती ।

थपकी देती और झुलाती
लोरी गाकर मुझे सुनाती
आहट भी मैं सुन न पाऊँ
ऐसी मीठी नींद सुलाती ।

खूब खिलाती खूब पिलाती
खुली हवा में सैर कराती
काला टीका लगा भाल पर
बुरी नजर से वही बचाती ।

डॉ रीता सिंह
चन्दौसी (सम्भल)
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चलो चांद पर झूला डाले
ऊंचे ऊंचे पेंग बढ़ाकर नभ छू डाले ।
चलो चांद पर झूला डालें ।
आशाओं का उम्मीदों का
 झोला लेकर
कुछ तारे झोले में भर लें
 कुछ मुट्ठी में भर लें
नीचे आकर सबको बांटे ,
सबके घर चमकादें
तारों की चमकीली दुनियां
धरती पर चमकालें
चलो चांद पर झूला डालो।
चलो सभी हो जाओ इकट्ठे
सब मिलकर जाएंगे
 बैठ चांद के झूले पर हम
सब सावन गाएंगे
मनभावन मौसम का
हम भी थोड़ा मज़ा उठालें
चलो चांद पर झूला डाला
ऊंचे ऊंचे पेंग बढ़ाकर नभ छू डाले।

 निवेदिता सक्सेना
 मुरादाबाद
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गाते-गाते गजक बेचते,
चाचा अहमद जान।

अपनेपन से भरी हुई है,
उनकी प्यारी बोली।
चहक उठी है उन्हें देखकर,
नन्हीं-मुन्नी टोली।
साथ उन्हीं के मिलकर सबने,
छेड़ी मीठी तान।
गाते-गाते गजक बेचते,
चाचा अहमद जान।

बच्चे-बूढ़े-युवा सभी से,
मिलकर हैं मस्ताते।
पड़े ज़रूरत डाँट-डपट कर,
भी सबको समझाते।
सच पूछो तो खुद में हैं वो,
प्यारा हिन्दुस्तान।
गाते-गाते गजक बेचते,
चाचा अहमद जान।

- राजीव 'प्रखर'
मुरादाबाद
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चली लोमड़ी बन-ठन बाज़ार।
लाऊँ झोला भरकर शाक।।

आलू कैसे दिया है भाई।
दाम सुन थोड़ी हिचकाई।।

बोली मैं टिण्डा ले लूँगी।
पर दाम आधा ही दूँगी।।

बहन मैं लौकी, टिण्डा दूँगा।
दाम भी चलो मुनासिब लूँगा।।

वो बोली बैंगन के लगाना।
साथ में प्याज मुफ्त थमाना।।

झट वो लेकर भागा शाक।
लोमड़ी रगड़ती रह गई नाक।।


आयुषी अग्रवाल (स०अ०)
कम्पोजिट विद्यालय शेखूपुर खास
कुन्दरकी (मुरादाबाद)
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चन्दा को हम मामा कहते
सूरज जी को चाचा।
बारिश को हम रानी कहते
और बादल को राजा।
कहलाती है पवन सखी
और तूफान है दादा।
परकति के कण कण
से है हमसबका प्यारा नाता।
सदा दिया है इसने हमको
अपना प्यार दुलार।
अब मिलकर हम करे
इसका साज श्रृगांर।।


डा.श्वेता पूठिया
मुरादाबाद
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चलो सुनाते हैं हम तुमको ,बचपन की कुछ बातें
सूरज दादा चंदा मामा और तारों की बातें ।
रंग-बिरंगे सपने अपने और गुड़ियों की बातें
पल में माने पल में रूठे तारे गिनती रातें ।।
खुशियों की गठरी हम बांधे चलते थे इतराते
छलक-छलक जाती थीं खुशियाँ बीते दिन थे जाते ।
जिद मेले जाने की करते मचल -मचल हम जाते
पापा के समझाने पर तो रीझ बहुत हम जाते ।।
छोटी -छोटी जिद होती थीं और सच्चाई की बातें
माँ के मर्यादा के गहने और पढ़ाई की बातें ।
त्योहारों पर बनते जोड़े और मजे आ जाते
बेशुमार कपड़ो में भी हम अब अभाव गिनवाते ।।
रातों को जब हम पढ़ते माँ संग जागा करती
उनके हाथों की ऊन सलाई मानो नींद से लड़ती ।
बचपन बीता तरूणाई के बदले खेल निराले
सपने ऊँचे और हौसलों को मन में हम पाले ।।
जोशीले कदमों से तब गाये हमने अफसाने
संघर्षों से खाली हो गए भरे हुए पैमाने ।।
चलो सुनाते हैं हम तुमको .........।।

गुरूजनों की इज्जत करना उनका मान बढ़ाना
अच्छा बनके तुम इस जग में ऊँचा नाम कमाना ।।
देश की खातिर जीना मरना देश की शान बढ़ाना
आँखों में पाले जो सपने सच उनको कर जाना ।।
चलो सुनाते हैं हम तुमको .....

मनोरमा शर्मा
अमरोहा
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 बाल कथा -----चुनमुन का हेलीकॉप्टर

लॉक डाउन में बच्चों ने खूब मनमानी की ।न स्कूल ,न होमवर्क ,बस उछल कूद और शैतानी । मम्मी के मोबाइल पर ऑनलाइन क्लास लेते समय बस अमेजॉन पर जाकर एक चाइना मेड किड हेलीकॉप्टर आर्डर कर दिया । दो दिन बाद गेट पर हेलीकॉप्टर आ गया ।दो हजार रूपये का यह हेलीकॉप्टर असली की तरह उड़ता था । चुनमुन की इन शैतानियों में नाना नानी को जो रस मिलता है,उसकी  सानी नही ।साहब  जी ,उसे खूब उड़ाते । खाना पीना सब छूट गया ।बस हेलीकॉप्टर चार्जिंग पर लगता और खूब पूरे घर के चक्कर लगाता ।बच्चे क्या ?अब तो बूढ़े भी मस्त थे बच्चों में।
तीन दिन बाद शाम को हेलीकॉप्टर फिर उड़ा ,बहुत ऊँचा, बहुत दूर ,और उड़ा उड़ता ही चला गया फिर तो रिमोट से भी नही रुका।उस पूरी रात ननिहाल के सब जन बस एक ही बात कहते कि चुनमुन का हेलीकॉप्टर देखा कहीं ?  पर कुछ भी पता नही चला।रात में किसी ने खाना भी नही खाया ,आज खाने का लॉक डाउन ।
किसी तरह सुबह हुई ,सब काम में लगे पर किसी काम मे मन न लगा तो नानी बोली ,"चलो चुनमुन बाहर घुमा लें तुमको ,.पर चुनमुन की एक ही रात रट ,हेलीकॉप्टर लाओ ........कहीं से भी । बेबस नानी सड़क पर चली कुछ दूर तो भीड़ जुटी थी ,जिसको देखो ,यही कहे ,जाने का बला थी जो घोड़ी के ऊपर गिरी रात ।घोड़ी बाला रामरतन तो बेहोश हो गया था ,सुबह उठा चिल्ला रहा था ,अरे.......... बचाओ ....जराय दियो ,काऊ ने अरे.......आग गिरी रे ....। नानी बोली ,"का बात हो गई भाया? बड़ी भीड़ जुटी है ? अरे भाभी ,तुम्हें न पता ?जाने का चीज रात में अस्पताल मे गिरी ,डर के मारे कोई पास में भी न गयो बस रामरतन की बात सुनके घिगी सी बंध गई मेरी भी ,कम्मो काकी बोली ।"
लाल बत्ती वामे अबहुँ जल रही है ।नानी को सब समझते देर न लगी ,बोली मेरे संग चलो ,कहाँ है? काकी और कुछ बच्चों का झुंड नानी के पीछे । अरे .......यहाँ गिरा जे इतनी दूर ,जाको ही तो ढूंढ रहे हैं रात से ।पोते का खिलौना है कोई बला नाइ है ।आखिर हेलीकॉप्टर मिल गया पर जो रात में घटा, उस घोड़ी वाले  के साथ उसे सुनकर हँसी रोके नहीं रुकती ।

डॉ प्रीति हुँकार
मुरादाबाद
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वर्षा आयी वर्षा आयी
मेरे मन को है ललचायी ।
तन पर बहुत घमोरी होती
खुजली भी ऊपर से होती ।
वर्षा में जब मैं भीगूंगा
चैन घमोरी से ही लूंगा ।
छत की नाली बंद करूंगा
छत को पानी से भर लुंगा ।
कागज की फिर नाव चलाऊं
हंँसूं साथ में तैरूं गाऊं ।
भाई-बहिन नहीं है कोई
मैं करता जो मन में होई।
बिजली जब बादल में चमके
मम्मी मेरे ऊपर भड़के ।
मम्मी फिर नीचे ले जाती
वर्षा रानी याद सताती ।
 
राम किशोर वर्मा
रामपुर
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लेके सबको संग आज हम तो चल पड़े
      मन में है उमंग आज हम तो चल पड़े

साथी सारे साथ हों तो बस कमाल हो
     हाथों में जब हाथ हो तो बस धमाल हो
"एक राग" को पकड़ के "साज" चल पड़े
       "सारे सुर" करके "एक आवाज" चल पड़े

मंजिलें भी एक हैं और रास्ते भी एक
         हौंसले बुलंद हैं और इरादे हैं नेक
"होनहार कल के" कर आगाज़ चल पड़े
            लेके कामयाबी का ख्वाब चल पड़े

हमको कोई राह रोक सकती है भला
       हमको कोई बाधा टोक सकती है भला
"रणबाँकुरे हैं हम तो" नाद कर चले
       सारे वीरानों को हम आबाद कर चले

" एक दिन" हम सबको "एक" करके मानेंगे
       "एक दिन" हम सबको "नेक" करके मानेंगे
प्यार की मशाल हाथ लेके चल पड़े
        मस्त अपनी चाल आज हम तो चल पड़े

लेके सबको संग आज हम तो चल पड़े
        मन में है उमंग आज हम तो चल पड़े ।।।।

 सीमा वर्मा
बुद्धि विहार
मुरादाबाद
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