शहरी शोर से मुंह मोड़ ,सघन कोलाहल को छोड़ ।
चलते हुएअनजान राह में , हम चले आये हैं कहाँ ??
शाखा शाखा की अकड़ , बिसरा हर फूल की चुभन ।
शीतल छाया की चाह में , हम चले आये हैं कहाँ ??
अनंत सिंधु के उस पार तक , वीराना ही वीराना ।
निर्मल संतृप्ति की आस में , हम चले आये हैं कहाँ ??
दिल में खिले हुए थे कुछ ,यादों के महके से गुलाब ।
मादक गंध ले साथ में , हम चले आये हैं कहाँ ??
दूर - दूर तक पसरे रेत पर , खामोशियों के निशां ।
एक सृजन की अभिलाष में ,हम चले आये हैं कहाँ ??
✍️ डा. अशोक रस्तोगी, अफजलगढ़ (बिजनौर)
मात्र भाषा के शब्दों को पिरो कर, उसमे अनेक रसः का समन्वय कर ऐसा सुन्दर चित्रण कोई
जवाब देंहटाएंविद्व।न ही कर सकता है।।
साहित्य + विज्ञान = डा•अशोक
मौसाजी को नमन����