सोमवार, 14 सितंबर 2020

मुरादाबाद लिटरेरी क्लब ने किया प्रख्यात साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र की जयंती पर ऑन लाइन साहित्यिक परिचर्चा का आयोजन।


वाट्स एप पर संचालित साहित्यिक समूह 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' द्वारा "विरासत जगमगाती है" शीर्षक के तहत 9 सितंबर 2020 को  साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र की जयंती पर ऑनलाइन साहित्यिक चर्चा की गई । सभी सदस्यों ने उनके व्यक्तित्व  एवं कृतित्व  पर विचार व्यक्त किये ।
चर्चा शुरू करते हुए वरिष्ठ व्यंग्य कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि भारतेन्दु ने ऐसा प्रतिभा संपन्न लेखक मंडल तैयार किया जिसने सभी गद्य विधाओं में रचनाएं करके साहित्य को समृद्ध किया। भारतेन्दु ने भाषा के रूप को तो व्यवस्थित किया ही, साथ ही अपने प्रयासों से जनता में साहित्य के प्रति अभिरुचि भी जाग्रत की। भारतेन्दु मंडल के लेखकों में बालकृष्ण भट्ट,प्रताप नारायण मिश्र, ठाकुर जगमोहन सिंह, बालमुकुंद गुप्त, बद्रीनारायण चौधरी, अंबिका दत्त व्यास और लाला श्रीनिवास दास के नाम उल्लेखनीय हैं। हिन्दी गद्य के विकास का श्रेय भारतेन्दु और उनके साहित्यिक मंडल को ही जाता है। उनके इस लेखक मंडल ने अपने लेखन में रोचक तत्व को महत्व देकर उसे जन-जन का प्रिय बना देने का ऐतिहासिक कार्य किया। यूं तो भारतेन्दु हिन्दी नाटक परंपरा के मूल स्रोत होकर उसके प्रवर्तक रूप में सामने आए।उनका 'अंधेर नगरी ' नाटक अन्य नाटकों के साथ समाज में धूम मचाए रहा।
वरिष्ठ कवि डॉ अजय अनुपम ने कहा कि विलक्षण प्रतिभा, अद्भुत कार्यक्षमता और अपार ज्ञान के भंडार,कुल पैंतीस वर्ष का जीवन मिला,उसी छोटे से काल खंड में भारत की दशा का आकलन किया, भविष्य के लिए दिशानिर्देश भी तत्कालीन शासन-व्यवस्था के अत्याचार के विरुद्ध लड़ने के लिये , भाषाई विकास को सही मार्ग पर लाने के लिए, समाज के समक्ष प्रस्तुत किये। आप सोच सकते हैं कि जो काम राजा राम मोहन राय ने किया था उसी को आगे बढ़ा कर उन्होंने राजनीतिक, सामाजिक एवं वैचारिक रूप से थके-हारे भारत को अपनी स्वतंत्रता पाने का बल प्रदान किया। वर्तमान समय के कथित बड़े लेखक उतना सोच भी नहीं सकते जितना विस्तृत और विविध लेखन परम सम्माननीय भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र कर गये।
वरिष्ठ कवि डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि भारतेंदु हरिश्चंद्र हिंदी साहित्य के अद्वितीय निर्माता और प्रेरक व्यक्तित्व थे। उनके नाम पर ही उनके युग का साहित्यिक नामकरण हुआ। उन्होंने गद्य और पद्य दोनों क्षेत्रों में हिंदी भाषियों का नेतृत्व किया। उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का प्रतिबिंब उनके समकालीन अन्य लेखकों एवं कवियों की रचनाओं में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। भारतेंदु युगीन मुरादाबाद के साहित्यकारों में लाला शालिग्राम वैश्य का नाम सर्वोपरि है । उनका जन्म भारतेंदु जी से काफी समय पहले सन 1831 ईसवीं में हो चुका था । उनकी मृत्यु भी भारतेंदु जी के बाद सन 1901 ईसवी में हुई । मुरादाबाद के पंडित झब्बीलाल मिश्र (1833-1860) ,पंडित ज्वाला प्रसाद मिश्र (1862- 1916), पंडित बलदेव प्रसाद मिश्र (1869-1904) भी भारतेंदु जी के समकालीन साहित्यकार थे । इसके अतिरिक्त कन्हैयालाल मिश्र, सुभद्रा देवी, रामदेवी, पंडित जुगल किशोर बुलबुल, पंडित श्याम सुंदर त्रिपाठी, रामस्वरूप शर्मा, स्वरूप चंद्र जैन, पंडित भवानी दत्त जोशी, पन्नालाल जैन बाकलीवाल, वैद्य शंकरलाल, तथा सूफी अंबा प्रसाद भी उल्लेखनीय साहित्यकार रहे।
प्रसिध्द समीक्षक डॉ मोहम्मद आसिफ हुसैन ने कहा कि किसी साहित्यकार की मृत्यु के पश्चात उसके कार्यों और गुणों की चर्चा और उसकी महिमा का वर्णन करना एक आम बात है। लेकिन यदि उस साहित्यकार के जीवन काल में ही उसके कार्यों को सराहा जाने लगे और उसकी महिमा को स्वीकार कर लिया जाए तो उस साहित्यकार के लिए बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। यह सौभाग्य हरिश्चंद्र जी को प्राप्त हुआ। जिस समय शिवप्रसाद जी को ब्रिटिश गवर्नमेंट की तरफ से 'सितारा-ए-हिंद' की उपाधि प्रदान की गई तो उसी समय हरिश्चंद्र जी के प्रशंसकों ने उन्हें 'महताब-ए-हिंद' अर्थात भारतेंदु की उपाधि से सम्मानित किया। लोकप्रियता का इससे बड़ा कोई प्रमाण नहीं हो सकता। इस से यह भी सिद्ध होता है कि भारतेंदु जी जनमानस के हृदय में घर कर चुके थे। भारतेंदु जी भी जनमानस की भावनाओं का सम्मान करते हुए स्वयं को भारतेंदु कहलाना ज़्यादा पसंद करते थे। साथ ही साथ वह अपने मूल नाम हरिश्चंद्र पर भी गर्व करते थे और सत्यवादी हरिश्चंद्र का अनुसरण करने की हमेशा कोशिश करते थे।
कादम्बिनी वर्मा  ने कहा कि प्राचीन संस्कृतनिष्ठ और तत्कालीन नवीन अरबी फ़ारसी मिश्रित हिन्दवी के मध्य हिंदी खड़ी बोली गद्य सरीखा सुंदर सामंजस्य भारतेन्दु जी की कला का विशेष माधुर्य है। 15 वर्ष की अवस्था मे ही इनका साहित्य प्रेम जाग उठा और 18 वर्ष की अवस्था मे 'कविवचनसुधा" पत्रिका का सम्पादन किया जिसमें बड़े-बड़े विद्वानों की रचनाएं छपती थीं। कविवचन सुधा, हरिश्चंद्र मैग्ज़ीन, बालबोधिनी जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं के सम्पादक रहे भारतेन्दु जी के द्वारा अंग्रेजी की शिक्षा के लिए राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद जी की शरण लेना इनके सरल व्यक्तित्व का ही उदाहरण है। जो इन्हें इनके पिता से मिला।
युवा शायर फरहत अली ख़ान ने कहा कि जिस हिंदी को हम हिंदी जानते हैं, जिस ने हमें हमारे पसंदीदा लेखक दिए, ज़िन्दगी का हिस्सा बन चुकी रचनाएँ दीं। उस हिंदी से हमें वाक़िफ़ कराने वाले सब से पहले लोगों में से एक थे भारतेंदु। उन्होंने हिंदी को सींचा और साथ ही उसे कवि, निबंधकार और नाटककार के रूप में अपने साहित्य कर्म से एक दिशा भी दी, जिस से आगे चल कर न जाने कितनों की राह रौशन हुई। वो हिंदी गद्य में विषयों की विविधता लाए। एक साहित्यिक मैगज़ीन भी चलाई।
युवा कवि राजीव 'प्रखर' ने कहा कि 'भारतेन्दु' उपाधि से विभूषित श्री हरिश्चन्द्र हिंदी साहित्य की ऐसी विभूति हुए हैं जिन्होंने रीतिकालीन सामन्ती परम्परा का स्पष्ट विरोध करते हुए एक भिन्न विचारधारा का सूत्रपात किया। अगर यह कहा जाय कि हिंदी साहित्य में आधुनिक काल का प्रारम्भ भारतेन्दु जी से ही हुआ तो गलत न होगा। उनके रचनाकर्म का अवलोकन करने पर यह तथ्य उभर कर सामने आता है कि वह साहित्यकार होने के साथ-साथ एक युगदृष्टा भी थे। भविष्य में होने वाले सामाजिक परिवर्तनों को संभवतः उन्होंने अनुभव कर लिया था। यही कारण है कि आज भी उनकी रचनाएं प्रासंगिकता की कसौटी पर खरी उतरती प्रतीत होती हैं। 'अँधेर नगरी', 'भारत दुर्दशा', 'नील देवी', 'गीत गोविंदानंद', 'बंदर सभा', 'बकरी विलाप', 'भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है?',।
युवा कवि मयंक शर्मा ने कहा कि भारतेंदु हरिश्चंद्र को हिंदी साहित्य का आधार स्तंभ माना जाता है। वह हिंदी नवयुग के निर्माणकर्ता थे। उन्होंने अपने अल्प जीवन काल के प्रत्येक क्षण को हिंदी के लिए जिया। हिंदी साहित्य को राज दरबारों से निकालकर जनसामान्य के सम्मुख लाने का श्रेय भारतेंदु जी को ही है। काशी के संपन्न वैश्य परिवार में जन्म लेने वाले भारतेंदु जी के माता पिता उनकी अल्पायु में ही स्वर्ग सिधार गए। इसी कारण भारतेंदु जी की शिक्षा व्यवस्थित नहीं हुई किंतु अपने स्वाध्याय से ही मात्र 18 वर्ष की आयु में इन्होंने हिंदी, उर्दू, मराठी, गुजराती, बंगला, अंग्रेजी और संस्कृत का अध्ययन कर लिया। जिस आयु में सामान्य व्यक्ति साहित्य क्षेत्र में आँख खोलता है उस आयु में भारतेंदु हरिश्चंद्र साहित्य का बड़ा खजाना छोड़कर इस दुनिया से प्रयाण कर गए। अट्ठारह सौ सत्तर से उन्नीस सौ तक का समय भारतेंदु युग माना गया है।
युवा कवयित्री हेमा तिवारी भट्ट ने कहा कि अल्पायु में ही विविध विधाओं में, विविध विषयों पर न केवल प्रचुरता से बल्कि प्रभावोत्पादक और गुणवत्तापूर्ण उनके द्वारा लिखा गया।भाषा,कला,साहित्य,समाज और देश को अपने छोटे से जीवन काल में जो सौगात वह दे गये हैं,उसका सही-सही मूल्यांकन करने में हमें कई जीवन लग जायेंगे।भारतेंदु हरिश्चंद्र जी और जिग़र मुरादाबादी जैसे व्यक्तित्व युगों में इस धरती पर अवतरित होते हैं।हम गौरवान्वित हैं,धन्य हैं कि हमने उस धरती पर जन्म लिया है जहाँ ऐसी विलक्षण सार्वभौमिक प्रतिष्ठा वाले पुरूषों ने जन्म लिया और हम उन्हें अपने श्रद्धा सुमन अर्पित कर पा रहे हैं।
युवा कवि दुष्यंत कुमार ने कहा कि देश की गरीबी, पराधीनता तथा अंग्रेजी शासन अमानवीय चित्रण को अपने साहित्य का लक्ष्य बना कर प्रत्येक भारतीय की आत्मा को जगाने वाले भारतीय नवजागरण के अग्रदूत प्रसिद्ध लेखक, सम्पादक, रंगकर्मी, नाटककार, निबंधकार, कवि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (9 सितंबर 1850-6 जनवरी 1885) आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाते हैं। वे हिन्दी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे।  भारतेंदु हरिश्चंद्र जी का जन्म वाराणसी में हुआ था इनके पिता हिंदी के प्रथम नाटक 'नहुष' के रचियता गोपाल चंद्र थे। उनको काव्य-प्रतिभा अपने पिता से विरासत के रूप में मिली थी। उन्होंने पांच वर्ष की अवस्था में ही निम्नलिखित दोहा बनाकर अपने पिता को सुनाया और सुकवि होने का आशीर्वाद प्राप्त किया।
ग्रुप एडमिन और संचालक शायर ज़िया ज़मीर ने कहा कि हिंदी ज़बान का जो आज का रूप है। उसे ऐसा बनाने में जिन लोगों का योगदान है, यानी जो लोग हमारी हिंदी के यहां तक लगातार बहने का सबब हैं, उनमें भारतेंदु बाबू का नाम सबसे ज़्यादा एहम है। भारतेंदु बाबू अपने युग से आगे के साहित्यकार थे। अपने समय से आगे सोचने वाले भाषा प्रवर्तक थे। वह न केवल बड़े साहित्यकार और भाषाकार थे बल्कि उनका प्रभाव ऐसा था कि उन के प्रभाव के में आकर उस समय के कई साहित्यकारों ने हिंदी के नए और ज़्यादा खुले रूप को अपनाकर न सिर्फ़ साहित्य का सर्जन किया बल्कि हिंदी साहित्य में अपना अलग स्थान भी बनाया।  भारतेंदु बाबू का हम हिंदी से प्यार करने वालों और उर्दू से मुहब्बत करने वालों पर बड़ा एहसान है। उन्होंने हिंदी को आसान बनाया जिसके सबब उस आसान हिंदी को उर्दू ने अपनाया और उर्दू भी उसी असान हिंदी के सबब ज़्यादा हिंदुस्तानी ज़बान बन गई। क्योंकि भारतेंदु बाबू को उर्दू का भी बहुत अच्छा ज्ञान था और उर्दू में उन्होंने शायरी भी की तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारतेंदु बाबू उन बड़े नामों में से एक थे जिन्होंने हिंदी और उर्दू को क़रीब लाने में का बड़ा काम किया। भारतेंदु बाबू हम सभी का गौरव हैं।
      युवा लेखक अभिनव चौहान ने कहा कि भारतेंदु हरिश्चंद्र को महज़ 34 वर्ष का जीवन मिला। इतने कम जीवनकाल में उन्होंने हिंदी, उर्दू, थियेटर, पत्रकारिता हर क्षेत्र के लिए अपना कुछ न कुछ योगदान किया। इसलिए हिंदी में शुरू होने वाला नवजागरण काल भारतेंदु युग के नाम से जाना जाता है। पूर्व भारतेंदु काल और उत्तर भारतेंदु काल की अवधारणा भी अब नए अध्ययनों में मिलने लगी है। अपने से पूर्व और समकालीन हिंदी साहित्य में जिन दो भाषाई परंपराओं को भारतेंदु देख रहे थे, उसे पूरी तरह पलट कर रख दिया था इस व्यक्ति ने। यही वजह है कि हिंदी साहित्य की चर्चा करते ही पहला नाम किसी का आता है तो वो हैं भारतेंदु हरिश्चंद्र।

::::::  प्रस्तुति:::::
ज़िया ज़मीर
ग्रुप एडमिन
मुरादाबाद लिटरेरी क्लब
मो०8755681225

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