हमने ख़ुद को ज़िंदा, ग़म से आँख मिला कर रक्खा है
अहल-ए-दुनिया देखे तो, क्या हाल बना कर रक्खा है
नादारी की आँधी भी न, दिल का ईमाँ तोड़ सकी
हमने तसल्ली का आँगन में, शजर लगा कर रक्खा है
आक़िल-शाहों को भी उसके, दर पे झुकना पड़ता है
इस मिट्टी पर जिसने सारा, मज़मा ला कर रक्खा है
गर है तुझको शौक-ए-यारी तुरबत को भी ताज बना
गौर से देखो दरियाओं ने चाँद डुबा कर रक्खा है
कैसे कहें हम तंगहाली में, कैसे मनेगी दीवाली
फटा-पुराना सूट था जिसको, रफ़ू करा कर रक्खा है
हम देखेंगे कब तक शातिर, ई. वी. एम से जीतेंगे
हमने भी इक तुरुप का पत्ता दिल में छुपा कर रक्खा है
हमको 'राहत' देने वाले तेरे वादे झूठे थे
तूने सबको अंग्रेज़ी का, फूल बना कर रक्खा है
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मेरी रचना पोस्ट कर सम्मानित करने के लिये डॉ मनोज रस्तोगी जी का हार्दिक धन्यवाद
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