वो मक्रो-झूठ का शैदा है क्या किया जाए,
हमारा सत्य से रिश्ता है क्या किया जाए।
यकीं है मंज़िले - मक़सूद पाँव छू लेती,
कड़े सफ़र से वो डरता है क्या किया जाए।
जो गुलसिताँ की हिफ़ाज़त की बात करता है,
उसी का आग से रिश्ता है क्या किया जाए।
यकीं है ईद का होली से मेल हो जाता,
दिलों में ख़ौफ़-सा बैठा है क्या किया जाए।
सदैव रहता है जो शख़्स मेरी ऑंखों में,
वो मेरे नाम से जलता है क्या किया जाए।
लगें हैं ढेर हरिक सिम्त नंगी लाशों के,
लहू ग़रीब का सस्ता है क्या किया जाए ।
✍️ ओंकार सिंह विवेक, रामपुर
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