गुरुवार, 1 अक्तूबर 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार राशि सिंह की दो लघुकथाएं ----- 'भ्रांत धारणा ' और 'यथावत'


(1)   'भ्रांत धारणा '
आज अदिति बुरी तरह से दर्द से कराह रही थी , गर्भाशय की रसौली का ऑपरेशन जो हुआ था , डॉक्टर तो ऑपरेशन के बाद बस सुबह शाम हाल चाल पूछने आते थे बाकि पूरे दिन दवाई देने से लेकर ....साफ सफाई तक का काम सफेद कोट पहने छोटी उम्र से लेकर बड़ी उम्र तक की लड़कियां और महिलाएं नर्स ही कर रही थी .
​उनकी जिंदगी के झंझावत भी कम नहीं होते फिर भी कितनी खुशी खुशी काम करती हैं यदि इनको भगवान का दूसरा रूप कहिए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी .
​"आप उधर करवट लीजिए आपका पैड चेंज करना है l"मधुर आवाज उसके कानों में गूंजी तो अदिति उसकी ओर देखने लगी  .
​"बेटा खाना खा लेना ....दाल बनाई है ....अब पढ़ाई कर लो मन नहीं लग रहा तो क्या हुआ ?"उसने फोन पर मीठी सी दाँट लगाते हुए कहा .
​"आपका बच्चा था क्या ?"अदिति ने जिज्ञासावश पूछ लिया .
​"जी...बच्ची थी  l"उसने हंसते हुए कहा .
​"घर  पर किसके पास रहती है ?"
​"कोई नहीं है ....l"
​"आपके पति ....?"
​"वह भाग गया l"
​"कहाँ ?"
​"दूसरी औरत के पास l"उसने फटाफट सफाई करते हुए कहा अदिति मन ही मन सकुचा रही थी .
​"कितना मीठा बोलती हैं सारी सिस्टर्स यहां l"
​"हाँ मैडम जिंदगी ने सबको इतने कड़वे अनुभव दे रखे हैं कि और किसी से क्या कड़वा बोलें l"उसने फिर से मुस्कराते हुए कहा .
​"जब जरूरत हो तो फोन करवा दीजिए ...मैं आ जाऊंगी l"कहती हुई वह रूम से बाहर निकल गई और अदिति का मन भर आया .
​नर्सों क़ो लेकर अदिति के मन में हमेशा के लिए एक धारणा बन गई थी जब उसकी दीदी के बेटा हुआ और वह अस्पताल में गई थी कितनी खुशी खुशी ये नर्सें अपने काम कर रही थीं जिनको करने में एक आम इंसान क़ो बड़ी शर्म आए ......वक्षस्थल से लेकर योनि तक की सफाई छी   .."कोई भी नौकरी कर लो मगर यह नहीं करनी चाहिए l"अदिति ने मन ही मन सोचा .
​लेकिन कभी मन में आया ही नहीं था कि इस काम के लिए कितना बड़ा जिगरा चाहिए .
​"क्या हुआ ?"पति ने अदिति के कांधे पर हाथ रखा तो अदिति की तंद्रा भंग हुई और वह मन में ग्लानि लिए फिर से लेट गई .
(2)    यथावत

पार्क  के चारों और बड़े बड़े छाँवदार  वृक्ष  लगे हुए थे ,जिनपर  बैठे पक्षिओं  का कलरव  मन को पुलकित  कर सकता था ,मगर कोई सुने  तब न !,वहीं छोटी छोटी  फूलो की क्यारियां  और हवा  के झौंके  के साथ हिलते  मुस्कराते फूल वातावरण की ताजगी  में चार चाँद लगा रहे थे l 

घनी आबादी  के बीच बना यह पार्क  जैसे ऑक्सीजन  का इकलौता  साधन  था मोहल्ले  वालों को l 

झूलों  पर बच्चे झूल  रहे थे l कई जोड़े  तेज कदमों  से चलकर  शरीर पर जमी चर्बी  को सुखाने  का काम कर रहे थे और चर्बी मुस्करा रही थी कि काम धाम  किसी को है नहीं ,खाने को घर की दाल रोटी काटने को दौड़ती  है सड़क पर लगे ठेलों  पर मख्खिओं  की भांति शाम होते ही भिनभिनाने  लगते हैं ,और मुझ  बेचारी(हवा) को देखकर रोते हैं कि कहीं से भी निकल लेती हूँ. 

जहां -तहाँ  पडी बैंचों  पर कई महिलायें  आधुनिक  वस्त्रों  में लिपटी  ,लिपी  -पुती  गर्दन मटका  -,मटका कर चेहरे पर बनावटी  मुस्कान लिए बतिया   रहीं थीं l 

मशगूल थीं सब चुगलखोरी  करने में कोई सास की तो कोई बहु की ,कोई पति की  ,कोई पड़ोसी  की कोई कामवाली   की l 

बेचारी हवा को सब कुछ सुनना पड़ रहा था l सब कुछ बदल गया है मगर नारी  का स्वभाव   यथावत  है हर क्षेत्र में बेहतरी  मगर अपनी विरासत  (चुगलखोरी )को भला कैसे छोड़ दें  तन्हा ?

✍️राशि सिंह 

मुरादाबाद उत्तर प्रदेश 


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