"कब तुम्हारा... वो सम्बोधन ..मेरे जीवन की पहचान बन गया, मझे पता ही नही चला ।वह सम्मेलन जहाँ तुम्हारी कविता की शीतल बरखा मुझे अनजाने ही भिगो कर चली गई । अनजाने में ही सही ,पर तुमने ही मेरे अन्तर्मन में कविता का बीज वो दिया था ।कालेज में तुमको सम्मानित होते देख मेरा हृदय मयूर नर्तन करने लगता । किसी साहित्यिक परिचर्चा के सन्दर्भ में तुम्हारा क्षण भर का साथ असीम आनंद की अनभूति कराता ।फिर...... एक दिन ...उस मंच पर ,तुम और मैं ,एक साथ ।मुझको इंगित करके किसी गुरुजन ने कहा,"लङका बहुत आगे तक जाएगा ,पर किसी सहपाठी लङकी से आज कल इसके मेलजोल दिख रहे हैं, मेरा अच्छा शिष्य है ,.....इससे थोड़ा ....यह कहते कहते गुरुजी रुक गए।वो शब्द बहुत कुछ कह गए। अभी प्रेम का उदय कब अस्ताचल की ओर उन्मुख हुआ ,यह मैं ही जानती हूँ।यह निर्णय मेरा था ।तुमको ऊँचाई यों पर पहचान दिलाने के लिये यह उचित निर्णय लेना अपरिहार्य था । इस अपराध के लिए क्षमा की याचना तुमसे करूँ भी तो कैसे ?अवनि मन ही मनअपने उस बीस वर्ष पूर्व के युवा रूप और अतुलनीय व्यक्तित्व की सराहना करने लगी ।
✍️डॉ प्रीति हुँकार, मुरादाबाद
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