बुधवार, 7 अक्तूबर 2020

मुरादाबाद के साहित्यकार अशोक विश्नोई की लघुकथा----स्वार्थ की हद

 


एक दिन पहले ही ननकू ने बहू को आवाज लगा कर कहा " अरी बहू, लो!यह जेवरों का डिब्बा अपने पास रख लो, मेरा क्या है? जब तक दीपक में तेल है तभी तक जल रहा हूँ। आज उजाला है, पता नहीं कब अंधेरा हो जाये।जीवन का क्या भरोसा।" 

    सुबह- सुबह ससुर ने बहू को आवाज दी," बहू!अरी बहू, दस बज गए हैं, और चाय अभी तक नहीं बनी।क्या बात है? "

     लेकिन बहू बिना कुछ कहे तीन-चार चक्कर ससुर के सामने से लगाकर चली गईं।उत्तर कुछ नहीं दिया।वृद्ध ससुर ने एक लम्बी सांस ली----उसे समझते देर नहीं लगी।उसने दीवार को ओर देखा जहाँ घड़ी टिक-टिक करती आगे बढ़ रही थी।

 ✍️अशोक विश्नोई, मुरादाबाद

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