मैंने एक पिता को तन्हा घुटकर रोते देखा है ।
बच्चों की खुशियों की खातिर पांव घिसटते देखा है ।।
खेतों में खलिहानों में और घने बाजारों में ।
अपने बच्चों के सपनों का बोझा ढोते देखा है ।।
विपदा और संकट में भी जो खड़ा-खड़ा मुस्काता है ।
मैंने एक पिता को अक्सर परबत चढ़ते देखा है ।।
संघर्षों से हार न माने भूख प्यास से ना घबराए ।
जीवन पथ पर ऐसे राही को शान से चलते देखा है ।।
बच्चों की उपलब्धि पर वो फूले नहीं समाता है ।
बच्चों की मानिंद मचलते और उछलते देखा है ।।
सपने पूरे होने पर जो इठलाता इतराता है ।
बादल की मानिंद पिता को रोज़ बरसते देखा है ।।
त्याग तपस्या और साधना सब उस से मजबूर हुए ।
हमने मुजाहिद को सपनों में खूब उलझते देखा है ।।
✍️ मुजाहिद चौधरी, हसनपुर, अमरोहा
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