"ये नदी कितनी गहरी होगी"नाव में बैठी प्रियतमा ने प्रियतम से पूछा।
"तुम्हारे हृदय से अधिक गहरी नहीं"प्रियतम ने उत्तर दिया।
प्रियतमा हॅस पड़ी,उस शान्त रात्रि में प्रियतम ने भी उसका साथ दिया दोनों के हॅसी के स्वर मिलकर एक हो गये थे।
हॅसते हॅसते नाव पार जा लगी प्रियतम ने नाव की पतवार सॅभाल कर एक ओर रख दी हाथ पकड़कर प्रियतमा को उतारा
"कल फिर आओगी" प्रियतम ने पूछा
"हाँ आऊंगी, नहीं आयी तो खो नहीं जाऊँगी"कहीं दूर क्षितिज की अनन्त गहराईयो मे देखती हुई प्रियतमा ने कहा और चली गई।प्रियतम देखता रहा उसे जाते हुए और फिर वह भी लौट गया पुनः शाम की प्रतीक्षा में
यही क्रम चलता रहा प्रियतमा आती प्रियतम के संग नौका विहार करती और सवेरा होते ही दोनों लौट जाते अपने अपने मार्ग पर ।
'संध्या का समय था प्रियतम नौका लेकर तैयार खड़ा था विहार के लिए कि प्रियतमा आती दिखाई दी,उसका मन प्रसन्नता से भर गया।
'आओ चले' पास आने पर उसने प्रियतमा से पूछा।
'हाँ चलो' प्रियतमा ने कहा, मुझे जीवन की उस अनन्त यात्रा पर ले चलो जहाँ से मैं फिर लौट न सकूँ।
"प्रियतम क्या तुम मुझे वहाँ ले चलोगे" प्रियतमा ने उसके कान के पास मुँह लाकर धीरे से पूछा।
"मेरी जीवन-यात्रा तुम्हारे संग पूर्ण हो यह मैं भी चाहता हूँ पर तुम एक ब्राह्मण -कुमारी हो और मैं साधारण माँझी, हमारा संग समाज को कभी स्वीकार्य नहीं होगा"प्रियतम ने निगाहें झुकाकर उत्तर दिया।
प्रियतमा ने उसका हाथ पकड़ लिया नदी की शान्त धारा मे पड़ते तारों की छाया शत-शत दीपो के समान झिलमिला उठी चाँद भी लहरों के साथ खेलने लगा,नाव धीरे-धीरे बीच में पहुँच गयी।
"प्रियतम आओ जीवन-यात्रा पूर्ण करें"कहते हुए प्रियतमा ने प्रियतम का हाथ पकड़कर नदी में छलाँग लगा प्रियतम कुछ समझ न पाया और दोनों नदी की अनन्त गहराईयो मे विलीन हो गये और उनकी जीवन-नौका आज भी इस समाज रूपी नदी में बहती जा रही है अनन्त की ओर हौले -हौले -हौले -हौले।
✍️रचना शास्त्री
बहुत बहुत सुन्दर, जेसे गागर में सागर बहुत ही शान्दार....
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