गर्मी का मौसम चल रहा है । मैं सुबह पांच बजे उठा और ताजी हवा लेने के लिए टहलने निकल पड़ा । थोड़ी दूर ही चला था । मैं देखता हूं कि एक महिला अपने घर में लगे नल से पानी निकाल कर पूरे आंँगन को धोती हुई दरवाजे तक आ पहुंँची है ।
जब और थोड़ा आगे पहुंँचा तो देखा कि एक महिला के घर के पास सड़क पर लगी सरकारी पानी की टंकी से पानी बाल्टी में लेकर अपने घर के दरवाजे के सामने सड़क पर खूब धुलाई कर रही है । पानी मुफ्त का है न ।
आगे और सड़क पर मैं पहुंँचा ही था, मैं देखता हूंँ कि एक दुकानदार; जिसने दुकान अपने घर में खोल रखी है; वह नाली की सफाई पानी बहा-बहा कर कर रहा है ।
मैं सोच रहा था कि आज मुझे सब पानी बहाने वाले ही क्यों नज़र आ रहे हैं ! सरकार समाचार -पत्रों और पोस्टरों के माध्यम से जनता को कितना जागरूक कर रही है कि "जल है तो कल है" और "पानी की एक-एक बूंँद कीमती है, इसे व्यर्थ न बहाओ।" टी० वी० और रेडियो के माध्यम से भी समझाया जा रहा है कि विश्व में पीने के पानी की बहुत कमी हो रही है।
मगर लोग हैं कि सोचते हैं कि मेरे अकेले के करने से क्या पानी की बचत हो जायेगी!
मैं अपने मन-मस्तिष्क में यह सब उधेड़बुन करता हुआ आगे पहुंँचा तो देखता हूंँ कि एक युवक अपनी बाइक को पानी का पाइप लगाकर मसल-मसल कर नहला रहा है।
मैं सोच रहा था कि क्या यह सब जीवन में जरूरी नहीं है ? हां, जरूरी तो है फिर पानी की बचत कैसै हो? यह सब प्रतिदिन न करके सप्ताह में एक बार करने पर दोनों काम बन सकते हैं । सफाई भी हो जायेगी और रोज़-रोज़ पानी भी खर्च नहीं होगा ।
यह सब देखता-सोचता मैं चौराहे पर पहुंँच गया । जहांँ पर नगरपालिका का लगा हुआ बहुत सुंदर फब्बार सुबह को बंद मिला । मगर शाम को तो यह भी चलकर रंग-बिरंगी रोशनी में नहाता हुआ सड़क पर लोगों को आकर्षित करता है। भले ही इस सड़क पर नगरपालिका ने पीने के पानी की कोई व्यवस्था न की है ।
मैं जब टहलने जाता हूं तो दूध लाने के लिए छोटी बाल्टी साथ ले जाता हूं । दूध की डेयरी का दूध शुद्ध लगता है क्योंकि वह हमारे सामने दूहा हुआ होता है । और उतना ही शुद्ध होता है जिसे हम हज़म कर पायें । विशुद्ध चीजों को हज़म करने की आदत तो पेट को भी नहीं रही ।
हां, घर पर देने आने वाले दूधिये से तो अच्छा ही है । उसका तो यह भी पता नहीं रहता कि दूध मिलावटी पानी वाला है या कृत्रिम दूध है?
हां तो मैं जब डेयरी पर दूध लेने पहुंँचा तो देखा कि मालिक अभी भैंस को पानी का पाइप लगाकर स्नान करा रहे हैं । भैंसें बांँधने की जगह तो बिल्कुल चकाचक पानी से धुली हुई लग रही है ।
मेरे दिमाग में एकदम कौंधा कि अब पोखड़-तालाब तो हैं नहीं कहीं जो गाय-भैंस जाकर वहांं नहा-धो लें । इनकी भी मजबूरी है । अगर रोजाना साफ-सफाई नहीं रखेंगे तो पशु बीमार हो सकते हैं।
मैंने दूध लिया और घर को लौट पड़ा । मैं सोच रहा था कि पानी जीवन में कितना जरूरी है । कहांँ बचायें ?
पिछले दिनों की बात याद आयी । अखबार में पढ़ा था कि कहीं की सड़क बिल्कुल उधड़ गयी थी । जिस पर परिवहन चलने के कारण इतनी धूल उड़ती थी कि आसपास की फसलें धूल से अट गयीं और पास के गांँव के लोगों का जीना दूभर हो गया । तब वहां पर सरकार ने रोजाना पानी के टैंकरों से छिड़काव करवा कर धूल को न उड़ने का इंतजाम तब तक किया जब तक वह सड़क नहीं बन गयी । बैठे-बिठाए पानी का अनावश्यक खर्च बढ़ा ।पानी की बचत होने से रही ।
अब कोरोना ने पानी का खर्च और बढ़ा दिया है । पानी से हाथ धोते रहो । बाहर जाओ तो आकर नहाओ । चलो कोई बात नहीं मौसम गर्मी का है । पर घरवाली कपड़े बदलवाती है । यह अब धुलेंगे । पानी का खर्च तो बढ़ा ही साथ में बाशिंग पाउडर का खर्च भी बढ़ गया और धोने का परिश्रम अलग । अरे! साहब वाशिंग मशीन को चलाने में भी तो बिजली का खर्च बढ़ा या नहीं बढ़ा ?
यह सब सोचते हुए मेरे पैर स्वत: अपने दरवाजे तक पहुंच गये । मेरा आज का टहलना तो जैसे पानी की भेंट चढ़ गया ।
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राम किशोर वर्मा
रामपुर
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