कंक्रीट के जंगल में
गुम हो गई हरियाली है
आसमान में भी अब
नहीं छाती बदरी काली है
पवन भी नहीं करती शोर
वन में नहीं नाचता है मोर
नहीं गूंजते हैं घरों में
अब सावन के गीत
खत्म हो गई है अब
झूलों पर पेंग बढ़ाने की रीत
नहीं होता अब हास परिहास
दिखता नहीं कहीं
सावन का उल्लास
सजनी भी भूल गई
करना सोलह श्रृंगार
औपचारिकता बनकर
रह गए सारे त्यौहार
आइये थोड़ा सोचिए
और थोड़ा विचारिये
हम क्या थे और
अब क्या हो गए हैं
जिंदगी की भाग दौड़ में
इतना व्यस्त हो गए हैं
गीत -मल्हारों के राग भूल
डीजे के शोर में मस्त हो गए हैं
यह एक कड़वा सच है
परंपराओं से दूर हम
होते जा रहे हैं
आधुनिकता की भीड़ में
बस खोते जा रहे हैं
डॉ मनोज रस्तोगी
8, जीलाल स्ट्रीट
मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मोबाइल फोन 9456687822
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बहुत प्रयास किया
भावनाओं की सुईं से
शब्दों की तुरपाई
कर सकूं
हाँ , मैने
शब्द-शब्द को
एक साथ रखने का
प्रयास भी किया
ताकि वे शब्द
कविता बन जायें
पर ,
मेरी अभिव्यक्ति
की तुरपाई,
हर बार उधड़ जाती है ।
मैं भी कवि बन सकूँ,
यह अभिलाषा
दिल ही दिल में
रह जाती है ।।
अशोक विश्नोई
मुरादाबाद
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कभी गरजते कभी बरसते,
रंग दिखाते हैं बादल।
संग पवन के उड़ जाते हैं,
खूब छकाते हैं बादल।।
दूर गगन से करें इशारे,
पर्वत पर आराम करें।
लुका छिपी का खेल खेलकर,
मौसम को बदनाम करें।
विरह डगर में अगन हृदय की,
और बढ़ाते हैं बादल।।
नैनों से जब जब बरसे हैं,
देख भिगोते यादों को।
चमका कर ये चपल दामिनी,
याद दिलाते वादों को।
सावन की रिमझिम बूंदों का,
गीत सुनाते हैं बादल।।
कहीं कृषक की आस बने तो,
कहीं मिलन विस्वास बने।
चातक की भी प्यास बुझाते,
कभी सकल आकाश बने।
सदियों से इस तृषित धरा का,
द्वार सजाते हैं बादल।।
डॉ पूनम बंसल
मुरादाबाद
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काम पूरा करो या आधा करो.
काम का शोर पर ज्यादा करो.
अच्छे लगते हो असल किरदार में.
तुम ओढ़ा न कोई लबादा करो.
मांग भर दूंगा सितारों से तेरी.
लिया न हमसे झूठा वादा करो.
सियासत खेल है शतरंजी चालों का.
बचाओ दामन और आगे प्यादा करो.
दौर परेशानी का है सम्हाल कर चलना
खान-पान, रहन-सहन अपना सादा करो.
क्योंकि तुम हाकिम और मैं अदना.
गलतियां सब मुझ ही पे लादा करो.
संजीव आकांक्षी
मुरादाबाद
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समा गया नभ में गीतों का
एक और नक्षत्र
दुनिया भर की पीड़ाओं का
पहले विष पीना
फिर उस विष को हर दिन हर पल
शब्दों में जीना
ख़त्म हो गया लगता स्वर्णिम
गीतों का वह सत्र
गीत ओढ़ना गीत बिछाना
गीतों को गाना
मुश्क़िल है, बेहद मुश्क़िल है
'नीरज' हो पाना
प्रेम पगे वे गीत मिलेंगे
कहीं नहीं अन्यत्र
गीतों की दुनिया का फक्कड़
नायक चला गया
प्रेम और दर्शन का बिरला
गायक चला गया
गीत नगर में गहन उदासी
यत्र-तत्र-सर्वत्र
- योगेन्द्र वर्मा 'व्योम'
मुरादाबाद
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वक्त के आगे किसी का जोर नहीं चलता
बड़े- बड़े सूरमाओं को हाथ मलते देखा है ।1
खादी पहन देश भक्त होने का दम्भ भरता,
रेशम पहने देश द्रोह की राह चलते देखा है।2
कहीं गरीब के आँगन में चूल्हा नहीं जलता
कहीं दंगो की आग में गाँव जलते देखा है।3
उम्र भर सूखा रहने पर शिकवा नहीं करता
भूखे बच्चे की आह से पेड़ फलते देखा है।4
हर पिता अपने अंदर बच्चे सा दिल रखता
आँच के अहसास से लोहा गलते देखा है।5
दिल के पत्थर होने का जो खुद दावा करता
हमने उसकी आँख में आँसू पलते देखा है।6
धन -वैभव ,रूप-रंग पर गर्व नहीं कभी करना
क्षण भंगुर धन की महिमा रूप ढलते देखा है।7
सावित्री सा विश्वास अगर मन में हो जो बसता
कितना भी हो चाहे सख्त वक्त टलते देखा है।8
मीना किसी के साथ भी बहुत नहीं घुलना
अपनो को अपनो के सपने छलते देखा है।9
डॉ मीना कौल
मुरादाबाद
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जब घिरी सावनी साँवली बदलियां
बज उठीं खन खनन काँच की चूड़ियाँ
छू पवन को चुनर भी लहरने लगी
जुल्फ चेहरे पे ऐसे बिखरने लगी
लग रहा कर रही हों चुहल बाजियाँ
नैन गोरी के जैसे शराबी हुए
शर्म से गाल भी ये गुलाबी हुए
प्रीत लेने लगी मन में अँगड़ाइयाँ
मस्त बौछार में भीगने तन लगा
डूबने कल्पनाओं में ये मन लगा
गीत में भर रही है कलम शोखियाँ
डॉ अर्चना गुप्ता
मुरादाबाद
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आज घर में कै़द हम ये सोचते हैं।
रौनके़ क्यों कर हैं कम ये सोचते हैं।।
इसमें है कुदरत की कोई बेहतरी ही,
थम गये जो हमक़दम ये सोचते हैं।।
हाल कैसा हो गया जग का ही सारे,
आँख है सबकी ही नम ये सोचते हैं।।
आदमी मगरूर था ताक़त पे अपनी,
हाय टूटा अब भरम ये सोचते हैं।।
दर्द सालों तक रहेगा याद सबको,
कैसे भूलेंगे अलम ये सोचते हैं।।
एक दिन हट जाएगी ग़म की ये बदली,
होगा उसका भी करम ये सोचते हैं।।
देख तांडव मौत का यूँ हर तरफ ही,
क्या लिखे *ममता* क़लम ये सोचते हैं।।
डाॅ ममता सिंह
मुरादाबाद
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संबंधों की मरुथली को
नेह भरी बरसात चाहिये
शूल चुभे न कभी दुख बनकर
अपनापन सौगात चाहिये ।
पीर परायी आँसू मेरे
कुछ ऐसे अहसास चाहिये ।
महके सौरभ रेत कणों में
हरी भरी इक आस चाहिये ।
चमक दिखाती इस दुनिया में
नहीं झूठी कोई शान चाहिये
मुझको तो सबके चेहरे पर
इक सच्ची मुस्कान चाहिये ।
डॉ रीता सिंह
मुरादाबाद
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तरु, नदी, गिरि पर चली तलवार को देखो,
स्वार्थ में हैं जो किए व्यवहार को देखो।
दीप्ति की उजली किरण के साथ रहता जो,
रौशनी के पार्श्व में अँधियार को देखो।
खूब ऊँची बन गईं अट्टालिकाएं ये,
मित्र इनकी नींव औ आसार को देखो।
सब भला ही लग रहा है पार इसमें तो, आँख से कह दो ज़रा उस पार को देखो।
डूबना है शर्तिया मझधार में ऐसी,
टूटती नौका घुनी तलवार को देखो।
रूठ जाता जब कभी बच्चा मनाती है,
उर लगाए मात की मनुहार को देखो।
मयंक शर्मा
मुरादाबाद
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आ गया बरसात का मौसम सुहाना झूमकर,
देख लो सड़कों पे दरिया बह रहा है टूटकर ।
कह रहें सड़कों के गढ्ढे बचके रहना हमनवां,
डूब जाओगे सजनवा बस तनिक फिसले अगर ।
लबलबाती बिजबिजाती गंदगी की क्या ख़ता,
प्रीत कूड़े ने निभाई नालियों में डूबकर
आपकी सूरत हसीं पर लग गयी कीचड़ मुई,
कार वाले की हिमाकत से लगी तुमको नज़र।
काँपते होंठो की ख्व़ाहिश पर ज़रा सा गौर हो,
चाय पीने को मिले सँग में पकौड़े हों अगर।।
मीनाक्षी ठाकुर
मिलन विहार
मुरादाबाद
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आंसुओं को , हंसी को तरसेंगे
लोग अब ज़िंदगी को तरसेंगे
छोड़ हमने दी वो गली लेकिन
आप अब उस गली को तरसेंगे
मोनिका "मासूम "
मुरादाबाद
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दुबका बैठा इन दिनों, दहशत से उल्लास।
कैसे झूला डाल दूँ, अबके सावन मास।।
******
प्यासे को संजीवनी, घट का शीतल नीर।
दम्भी सागर देख ले, तू कितना बलवीर।।
******
झूले पर अठखेलियाँ, होठों पर मृदु गान।
इन दोनों के मेल से, है सावन में जान।।
******
नापाकी खुजला रहा, चीनी को भी खाज।
दोनों का ही हिन्द से, होगा ठोस इलाज।।
******
प्यासी धरती रह गयी, लेकर अपनी पीर।
मेघा करके चल दिए, फिर झूठी तक़रीर।।
******
प्यारी कजरी-भोजली, मधुरस गीत-बहार।
करना कभी न भूलना, सावन का श्रृंगार।।
******
('कजरी' व 'भोजली' - क्रमशः पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ के लोकप्रिय सावन-गीत।)
- राजीव 'प्रखर'
मुरादाबाद
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दिल में आग लिए शब्दों की
हर दिन कलम चलाएंगे
तोड़ श्रंखला कोरोना की
इसको मार भगाएंगे
खुशियों में थे साथ-साथ
अब दुख में न घबराएंगे
ग़म के मौसम में भी हम
खुशियों के नग़मे गाएंगे
लगता है कोरोना दुश्मन
अंत चाहता इस जग का
फैल रहा दिन प्रतिदिन जग में
आतंकी तेवर उसका
सूझबूझ से महामारी को
मिलकर आज हराएंगे
तोड़ श्रंखला कोरोना की
इसको मार भगायेंगे
फैलाओ मत द्वेष हवाएं
खुद इतनी ज़हरीली हैं
क़दम क़दम पर मौत खड़ी है
सबकी आंखें गीली हैं
कट्टर मज़हब की दीवारें
मिलकर आज गिराएंगे
तोड़ श्रंखला कोरोना की
इसको मार भगायेंगे
तेरा दुख मेरा है भाई
मेरा दुख है आज तेरा
हर संकट में साथ खड़े हम
कोई ग़ैर न कोई सगा
झुका न पाएं दर्द अनेकों
मिलकर प्यार लुटाएंगे
तोड़ श्रंखला कोरोना की
इसको मार भगायेंगे
अशोक विद्रोही
412 प्रकाश नगर
मुरादाबाद
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श्यामल केश मनोहर मुखारविंद, चंचल नेत्र तेज धरे हैं
कर्ण शोभित केश लता अति, कोमल होठों पे धीर मुस्कान भरे हैं
कर लेकर पुष्प कमल नैनन को कोटि कोटि प्रणाम करे है
प्रेम आनंद जिसके मुख पर भाव धरे है
उसके नेत्र तीक्ष्ण हृदय पर घाव करे है
वस्त्र ओढ़ लाल ले घट कर में
प्रियतमा सजन पर यूं वार करे है ll
विभांशु दुबे "विदीप्त"
गोविंद नगर, मुरादाबाद
9958149835
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सितारे जमीं पे अब आने लगे हैं,
पर ज़ख्म अब भी पुराने लगे हैं।
पीछा छुड़ाकर चले जो गए थे,
अब हम उन्हें रास आने लगे हैं।
कुछ गहरे घाव दिए थे जिन्होंने,
मेरी ग़लतियाँ वो बताने लगे हैं।
अपराध करके सुरक्षित नहीं जो,
अब तो वे ख़ुद को बचाने लगे हैं।
जिन्होंने लगाई सदा आग दिल में,
वे ही ख़ुद उसे अब बुझाने लगे हैं।
इस भीड़ में हूँ मैं अब भी अकेला,
भले लोग अपना बनाने लगे हैं।
समझो मुझे चाहे कुछ भी जहां में,
बनने में ऐसा ज़माने लगे हैं।।
अभिषेक रुहेला
ग्रा०पो०- फतेहपुर विश्नोई
मुरादाबाद
(उ०प्र)- 244504
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यह तड़प हिचकियों की बताती रही
रात तुमको मेरी याद आती रही।
कोशिशें रात भर तुमने
की होंगी पर
नींद द्वारे खड़े
मुस्कुराती रही।
देख कर मेरी तस्वीर
भरी आंख से
तुमने तकिए के नीचे
होगी रखी
छत से लेकर के
कमरे की दीवारों तक
मेरी परछाई और मै
ही होगी दिखी
हार कर बैठे तुम
कुछ कुछ भूल कर
आंधी यादों की तुमको हिलाती रही ।
नींद द्वारे खड़ी मुस्कुराती रही।
यह तड़प हिचकियों की
बताती रही ।
रात तुमको मेरी याद आती रही।।
निवेदिता सक्सेना।।
मुरादाबाद
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बहारें याद करती हैं हवाएं याद करती हैं ।
ये रिमझिम की फुहारें और सदाएं याद करती हैं ।।
ये आंसू याद करते हैं निगाहें याद करती हैं ।
दुआएं याद करती हैं सनाएं याद करती हैं ।।
ये बादल याद करता है,ये आंगन याद करता है ।
ये सावन याद करता है,घटाएं याद करती हैं ।।
ये चिलमन याद करता है ये दर्पन याद करता है ।
अंधेरे मुंतज़िर हैं और शमाएं याद करती हैं ।।
वो कातिल मुस्कुराहट सुर्ख लब सब याद आते हैं ।
मेरा बिस्तर,बदन,धड़कन, अदाएं याद करती हैं ।।
चमन,खुशबू,कली,शबनम, शफ़क़ सब याद करते हैं ।मुजाहिद को मोहब्बत और वफाएं याद करती हैं ।।
मुजाहिद चौधरी एडवोकेट
हसनपुर, अमरोहा
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नदी,पहाड़,फूल और प्यार मन को नही लुभाते
दिल दहलता देख वो सब जो मन को तड़पाते
क्या लिखूं मैं प्रीत कोई क्या गीत भला मै गाऊँ
खेत खलिहां झरने और बाग तनिक नही हर्षाते
दहक रहा है मत भेदों मे मुल्क ये मेरा सारा
गीत कजली और बरखा के बिल्कुल नही सुहाते
कुदरत भी अब हुई खफा है देख इंसानी राक्षस
नग्मे प्रीत वफाओं के जरा नही पिघलाते
हुई है बदतर पशुओं से भी आज की युवा पीढ़ी
क्या कहिये औ क्या ना कह कर हम इनको समझाते
इन्दु रानी
अमरोहा
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लाख ख़ुशियों का इक़्तिबास मिला ,
फिर भी दिल ग़म के आसपास मिला ।
एक शकुनि से पांच पांडव को,
छल, कपट ,अज्ञातवास मिला ।
सच की गर्दन प झूठ है अबतक ,
हक़ से हर इक ही ना-शनास मिला।
गर्द आलूद आईने है सभी ,
गर्द का जिस्म को लिबास मिला ।
उसने माथे पे है लिखी तकदीर ,
सूर जैसा ना सूरदास मिला ।
मेघदूतम का दे गया उपहार,
ऐसा विद्वान कालिदास मिला।
है समुंदर की प्यास दिल में शुभम,
फिर भी खाली हमे गिलास मिला।
शुभम कश्यप
मुरादाबाद
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हरियाली परिपूर्ण पावन माह
श्रावण मास का होता प्रारम्भ,
बरस रहा मतवाला सावन
संग भीनी भीनी फुहार लिए।
साधना अराधना का उत्सव प्रारंभ
हरियाली समेटे हरियाली तीज प्रारंभ,
अपने सुहाग के लिए पुन: नववधु सी
सजधज कर उपासना का उत्सव प्रारंभ।
प्रकृति भी होती निरी प्रसन्न
इतरा रही कैसे ठुमक ठुमक,
ओढ़के दुशाला हरियाली रूपी
मुस्करा रही खिलते पुष्पों संग।
वृक्षों की शाखाओं पर
डल चुके कितने झूले है,
मोर नाच रहे बौछारों संग
मन चितवन सुहागनों संग।
उत्सव ये महिलाओं का
आस्था सौंदर्य प्रेम का,
हो रही बेताब नारियां
मनाने को हरियाली तीज।
रचाकर मेंहदी हाथों में
दुल्हन सी सजती सुहागिनें,
उमा महेश्वर के पूजन में
रख उपवास रमती सुहागिनें।
उत्सव है यह नारियों का
हरियाली समेटे हरियाली तीज का,
अपने प्रियतम संग सुखमय जीवन
व्यतीत करने के आशीर्वाद प्राप्ति का।
इला सागर रस्तोगी
मुरादाबाद
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खो रही इंसानियत देखो किसी को क्या कहें।
बढ़ रही है बहसियत देखो किसी को क्या कहें।।
आदमी ही सींचते हैं आज बन काँटों भरे।
वो रहे शैतानियत देखो किसी को क्या कहें।।
तोड़ दी सब मर्यादायें आज सुत ने फर्ज की।
खो गई रूहानियत देखो, किसी को क्या कहें।।
सालता है डर पिता को लौटती ना घर सुता।
कब दिखे हैवानियत देखो, किसी को क्या कहें।।
फेंकते हैं आज पत्थर रक्षकों पर ही तपन।
मर गई रुमानियत देखो किसी को क्या कहें।।
✍पिंकेश चौहान 'तपन'
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लगता है फिर वही गुजरा जमाना आ गया है,
उनको देखते देखते ग़ज़ल बनाना आ गया है ।
कश्तियां कभी साहिल से तूफानों में उतारी ही नहीं,
आज तूफानों से लड़कर उबर जाना आ गया है।
कितनी ही बातों के मुआफ़िक नहीं था कभी,
आज हर तदबीर को आजमाना आ गया है।
कभी गर्दिश में था सितारा-ए-मुस्तकविल अपना,
आज हर मजलिस पर छा जाना आ गया है।*
वक्त की मार से बेनूर हो जाता था कभी,
अब वक्त की हर शह को मात देना आ गया है।
उम्र बीत जाती है फ़िकर ,हिजरत और तिजारत में,
लगता है अब हर किरदार निभाना आ गया है।।
अमित कुमार सिंह
7C/61 बुद्धिविहार
मुरादाबाद
मोबाइल-9412523624
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जाना था जिसको जहां, वो पहुंच गया उस धाम,
यूपी की पुलिस ने, नही किया कुछ काम,
किया नही कुछ काम,कार अपनी पलटाई
कई पुलिस-नेताओं की तुमने यूँ लाज बचाई,
कह रहे लोग विकास कई 'राज' दबा गया फंसाना
जिंदा रहता तो कह जाता जाने-जाना,
यूँ ये तरीका मारने का समझ न आया,
ये करके तुमने बस नेताओ को बचाया,
ईशांत शर्मा
मुरादाबाद
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मैं भारत माँ का बेटा हूँ , अमन और चैन चाहता हूँ।
वतन है गुलिस्तां मेरा, मैं इस मे खिलना चाहता हूँ ।।
अमन और चैन के दुश्मनों की सदा मौत चाहता हूँ।
मै दंगे और फसादों को जड़ो से काटना चाहूँ।
मैं धर्मों और ईमानो को कभी न बाँटना चाहूँ ।
मैं भारत माँ का बेटा हूँ, अमन और चैन चाहता हूँ।।
वतन है गुलिस्तां मेरा , मैं इस मे खिलना चाहता हूँ।।
ना मंदिर और ना मस्जिद के लिए स्थान चाहता हूँ।
मैं सपनों से भरा हंसी हिंदुस्तान चाहता हूँ।
सभी के ख्बाब हो पुरे , सभी के दर्द हो आधे।
सभी खुशहाल हो बस यही मेरी तमन्ना है।
मैं अपने देश की खातिर जीना और मारना चाहता हूँ।।
मैं भारत माँ का बेटा हूँ, अमन और चैन चाहता हूँ।
वतन है गुलिस्तां मेरा मैं इसमें खिलना चाहता हूँ ।।
आवरण अग्रवाल " श्रेष्ठ "
मुरादाबाद
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सावन की झम झम झड़ी लगी, मैं पिया मिलन को जाय रही।
बैरन बिजुरी तड़ तड़ तड़ कर, पग पग पर मोहे डराय रही।
मोहे लगी लगन पिया साँवरे की, मैं पिया से प्रीत निभाय रही।
कोई और नहीं सुध रही मुझे, निज तन मन सभी भुलाये रही।
सावन मनभावन मास सखी, मुझे पिय की याद सताय रही।
बाहर की बिजली की क्या कहूँ, मेरे भीतर तड़ित समाय रही।
कोई बाधा राह ना रोक सके, मैं अविनाशी की बाँह गही।
मेरे प्रीतम जग के स्वामी हैं, मैं अंश जीव कहलाये रही।
ये जन्म मरण सब मिथ्या है, मैं मोक्ष परम पद धाय रही।
मुझे लोक लाज की कहाँ पड़ी, मैं तो निज धाम को जाय रही।
मेरे सतगुरु की हुई दया, जो पाई मैंने राह सही।
सब मोह बन्ध मेरे छूटे, मन में आनन्द मनाय रही।।
नृपेंद्र शर्मा "सागर"
ठाकुरद्वारा मुरादाबाद
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ग़द्दारी का खूब हुई,
इस झूठे संसार में
अपने डण्ठल कुल्हाड़ी मारी
जब नोंक नुकीली धार ने ।।1।।
अपनों ने जब किया दगा
अपने ही परिवार में..
मौत ने ही कफ़न ओढ़ लिया
इंसानों के बाजार में..।।2।।
जय चंद का नाम जपूँ
या जपूँ मैं माला उसकी
हर कोई लूट रहा हवा को
बता, यह कहाँ और किसकी?।।3।।
-प्रशान्त मिश्र
मुरादाबाद
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तुझे प्यार करने को जी चाहता है
बाहों में भरने को जी चाहता है
नहीं आज बस में है जज़्बात मेरे
हद से गुजरने को जी चाहता है
तुझे प्यार करने ------------
बाहो में भरने ---------------
तेरे गेंसुओ की घटाओं में हर दम
हर पल ठहरने को दिल चाहता है
मिटा दीजिए कोष भर कि ये दूरी
तुम्हींपर बिखरने को जी चाहता है
तुझे प्यार करने -----------
बाहों में भरने को ---------
सावन का महीना है बाँहो झूला है
यू ही मुखा़तिब रहों जाने जाँ तुम
नहीं कोई सुनता मेरी यहाँ बादल
बहुँतकुछ सुनाने को जी चाहता है
तुझे प्यार करने को --------
बाँहो में भरने को -----------
डा एम पी बादल जायसी
मुरादाबाद
-----------------------------
अभी गर्दिशों से मैं हारा नहीं हूं
मैं जुगनू हूं टूटा सितारा नहीं हूं
दिया हूं करूंगा घरों में उजाला
जला दूं घरों को वो शरारा नहीं हूं
अमीरी थी जब तक तो था तुम्हारा
कंगाल हूं मैं अब तुम्हारा नहीं हूं
गलत सोच है मुझको बुजदिल समझना
हूं जख्मी मगर मै हारा नहीं हूं
मै रोकू भी तो जज़्बात कैसे किसी के
मैं दरिया का कोई किनारा नहीं हूं
ख़ामोश सागर सा है स्वभाव मेरा
बहकुं वो नदियां की धारा नहीं हूं
हसीनो से नजर मिलाऊ भी कैसे
शादीशुदा हूं मैं कुवारा नहीं हूं
भरूंगा मै दामन में खुशियां तुम्हारे
मै रहीं गमों का पिटारा नहीं हूं
प्रवीण राही
मुरादाबाद
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