बुधवार, 22 जुलाई 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार राशि सिंह की लघुकथा -----मृगतृष्णा


​वो कभी खिलखिलाना तो छोड़िये , कभी मंद-मंद मुस्कराया भी तो नहीं . जब छोटा था तब बड़ा आदमी बनाने के लिए दिन रात पढ़ाई में जुटा रहता था। उसने अपने पिताजी को परिवार चलाने के लिए हाड तोड़ ममेहनत करते हुए जो देखा था लेकिन उस सकूं को कभी वह समझ ही नहीं पाया और न ही महसूस। उसके माता पिता थोड़े में गुजारा अवश्य करते थे मगर जिंदगी को कभी छोटी छोटी खुशियों से और सुखद क्षणों का आनंद लेने से कभी खुद को दूर नहीं किया .
​    उसके कमरे में किताबों का ढेर और उन पर स्याही से लिखे अक्षर जिनमें दुनियां भर की जानकारी थी सिवाय प्रेम और सकूं के ,उनके साथ रहने का आदी हो गया था वह. हंसना और खिलखिलाना तो वह जैसे भूल ही गया .सबसे दूरी और धीरे धीरे खुद से भी दूर हो गया . खुद को भूलकर ही मुकाम हासिल किया जाता है ,उसने ऐसा सुना था और इसके लिए उसने कभी आत्मसाक्षात्कार  ही नहीं किया . उसने कभी फूलों से बात नहीं की और न ही आकाश में मस्त परिंदों की परवाज को निहारा . न कभी लहरों की अठखेलियों पर नजर दौड़ाई और न ही कभी रात में शीतलता लुटाते चाँद की चाँदनी को देखा . वह किताबों के ढेर में खुद एक मशीन का ढ़ेरनुमा बन गया .
​उसको तरक्की मिली, दौलत शोहरत सब कुछ मिली जिसकी उसको तमन्ना थी .पहले किताबों के पेज पलटता रहता और अब नोटों को गिनने में मशगूल हो गया .धीरे धीरे अपने परिवार की मात्र जरूरत बनकर रह गया ।
​आज बहुत दिनों बाद यानी जिंदगी के अंतिम पड़ाव पर उसके मन को कुछ अजीब सी सूझी ,बैठ गया बीते कल का हिसाब किताब करने . नोटों और खुद के सिवाय कुछ भी नहीं था जी जन्दगी का वास्तविक पलड़ा नितांत अकेला और सूखा सा था पेड़ से टूटी शाख की तरह .

​राशि सिंह
​मुरादाबाद उत्तर प्रदेश



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