उस वक्त
वह माईग्रेन के जैसा नहीं था
वह रोज़मर्रा बहती नदी से
धूसर सवालों
की तरह नहीं टकराता था
वह बस मेरा ही एक भाग था
उसमें न मस्तिष्क था और
न दर्द था
उन खुशनुमा दिनों में
कैंपस के पास
मामूली सी झाड़ियों के बीच से
फुदकते हुए
एक टांग वाली गौरैया हाथ से
ब्रेड छीनती थी
और मैं कॉफी, दोस्तों
और बेचैन आवाज़ों में
सोमवार को ढ़ूँढती थी....
उन दिनों
दिल्ली, देश और हवा
वैसे ही दिखते थे जैसे मैंने
किताबों में देखे थे
कागज़ की खुशबू में
वे खूबसूरत थे
वे रोचक थे
तब समझी
...कागजों में सब खूबसूरत होता है...
उन दिनों
वह माईग्रेन नहीं था
क्योंकि शायद
तब सवाल स्पष्ट नहीं थे
उन बारीक महीन सवालों से
खेलते हुए
उनके किनारे बड़े होने तक
वे विरोध पर थोपी हुई सरलता
में गिरकर
खो चुके थे...
✍️ अस्मिता पाठक
मुरादाबाद 244001
वह माईग्रेन के जैसा नहीं था
वह रोज़मर्रा बहती नदी से
धूसर सवालों
की तरह नहीं टकराता था
वह बस मेरा ही एक भाग था
उसमें न मस्तिष्क था और
न दर्द था
उन खुशनुमा दिनों में
कैंपस के पास
मामूली सी झाड़ियों के बीच से
फुदकते हुए
एक टांग वाली गौरैया हाथ से
ब्रेड छीनती थी
और मैं कॉफी, दोस्तों
और बेचैन आवाज़ों में
सोमवार को ढ़ूँढती थी....
उन दिनों
दिल्ली, देश और हवा
वैसे ही दिखते थे जैसे मैंने
किताबों में देखे थे
कागज़ की खुशबू में
वे खूबसूरत थे
वे रोचक थे
तब समझी
...कागजों में सब खूबसूरत होता है...
उन दिनों
वह माईग्रेन नहीं था
क्योंकि शायद
तब सवाल स्पष्ट नहीं थे
उन बारीक महीन सवालों से
खेलते हुए
उनके किनारे बड़े होने तक
वे विरोध पर थोपी हुई सरलता
में गिरकर
खो चुके थे...
✍️ अस्मिता पाठक
मुरादाबाद 244001
बहुत सुंदर अस्मिता बेटा। तुम्हारी इस खूबी का तो कभी पता ही नही चल पाया ।बहुत सुंदर रचना है आगे भी लिखते रहो ।
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