सोमवार, 6 जुलाई 2020

मुरादाबाद की साहित्यकार मोनिका शर्मा 'मासूम' की दस गजलों पर मुरादाबाद लिटरेरी क्लब द्वारा ऑनलाइन साहित्यिक चर्चा


  वाट्स एप पर संचालित साहित्यिक समूह 'मुरादाबाद लिटरेरी क्लब' द्वारा 4-5 जुलाई 2020 को 'एक दिन एक साहित्यकार' की श्रृंखला के अन्तर्गत मुरादाबाद की युवा कवियत्री मोनिका मासूम की दस गजलों पर ऑन लाइन साहित्यिक चर्चा की गई। सबसे पहले मोनिका मासूम द्वारा निम्न दस ग़ज़लें पटल पर प्रस्तुत की गयीं-

*(1)*

फ़क़त इक रास्ता है और मैं हूँ
सफ़र दिन रात का है और मैं हूँ

है मीलों दूर तक सहरा ही सहरा
हवा का दबदबा है और मैं हूँ

मुसलसल आज़माइश पर हैं दोनों
मुक़द्दर ये मिरा है और मैं हूँ

ये जीवन है समंदर तश्नगी का
सफ़ीना रेत का है और मैं हूँ

दरारें हैं पड़ी "मासूम" दिल में
कि टूटा आईना है और मैं हूँ

*(2)*

फूल, फ़ाख़्ता, तितली, चांदनी नहीं हूंँ मैं
मखमली कोई गुड़िया मोम की नहीं हूं मैं

खुरदरे धरातल की दरदरी हकीकत हूंँ
आसमानी ख़्वाबों की तसकरी नहीं हूंँ मैं

तुमको दे दिया किसने मालिकाना हक़ मुझ पर
मिल्कियत किसी के भी बाप की नहीं हूँ मैं

तर्जुमा मोहब्बत का दर्द का रिसाला हूँ
मुस्कुराते चेहरों की दिलकशी नहीं हूं मैं

सभ्यता के पृष्ठों पर नक़्श हैं मेरे "मासूम"
फर्ज़ी दस्तावेज़ों की मुख़बिरी नहीं हूं मैं

*(3)*

हो पायल चुप तो बिछुआ बोलता है
नई दुल्हन का लहजा बोलता है

नहीं कहती ज़ुबां से कुछ भी लेकिन
बहू-बेटी का नख़रा बोलता है

अभी बाक़ी है अपना राब्ता कुछ
अभी रिश्ता हमारा बोलता है

कटी है उम्र सारी तजरबों में
बुज़ुर्गों का इशारा बोलता है

पतंगें बात करतीं हैं हवा से
ये आता-जाता झोंका बोलता है

कभी "मासूम" बतियाती हैं नज़रें
कभी दिलकश नज़ारा बोलता है

*(4)*

ख़याल बनके जो ग़ज़लों में ढल गया है कोई
मिरे वजूद की रंगत बदल गया है कोई

बदन सिहर उठा है लब ये थरथराए हैं
ये मुझ मे ही कहीं शायद मचल गया है कोई

वह आबशार की सूरत गिरा  पहाङों से
गमों की आंच से पत्थर पिघल गया है कोई

मैं शम्स बन के जहां आसमांँ पे उभरा हूँ
किसी को साया मिला है तो जल गया है कोई

बजा है साज़ यूं "मासूम" दिल की  धड़कन पर
हरेक सांस पे लिखकर ग़ज़ल गया  है कोई

*(5)*

है सफ़र कितना पता चलता है संगे-मील से
कोई बतलाता नहीं है रास्ता तफ़सील से

मांगती है ज़िंदगी हर मोड़ पर कोई सबूत
आप हैं ज़िंदा ये लिखवा लीजिये तहसील से

खींच कर रखिये ज़रा रिश्तों की डोरी हाथ में
टूट जाती हैं पतंगें भी ज़ियादा ढील से

उनको पत्थर मारते क्यों हो कि जो ख़ामोश हैं
बह निकलती हैं कई गंगायें ठहरी झील से

रोशनी और तीरगी का फ़र्क़ क्या "मासूम" है
रात की सूरत बदल जाती है इक क़ंदील से

*(6)*

मुझको तेरा हक़ न तेरी मेहरबानी चाहिए
शान से जीने को बस इक ज़िंदगानी चाहिए

जन्म लेने से ही पहले मारने वाले मुझे
मर गया जो तेरी आँखों में वो पानी चाहिए

मै तिरे ही बाग़ की नन्हीं कली हूँ बाग़बाँ!
मेरे हिस्से की मुझे भी बाग़बानी चाहिए

है अदब गहना मिरा, शर्मो-हया मेरा लिबास
बे-हयाई पर तुझे भी लाज आनी चाहिए

उम्र कच्ची में बहक जाएँ न बच्चों के क़दम
दौरे-नाज़ुक में ज़रा सी सावधानी चाहिए

हूँ खुले आकाश का "मासूम" पंछी मैं भी एक
मेरे पंखों को भी छत वो आसमानी चाहिए

*(7)*

उड़े पतंग वो कैसे कि जिसमे डोर नहीं
बिना घटा के कभी नाचता है मोर नहीं

तू ही मुक़ाम है मेरा तू ही मिरी मंज़िल
चुनूं मैं राह वो कैसे जो तेरी ओर नहीं

न जाने ख़्वाहिशें कितनी दबाये बैठा है
कहा ये किसने कि चलता है दिल पे ज़ोर नहीं

अदब है लाज़मी महफ़िल है ये अदीबों की
सुखन की शमअ जलाओ, मचाओ शोर नहीं

कोई नज़र तो कोई दिल चुराये बैठा है
बताओ कौन वो "मासूम" है  जो चोर नहीं

*(8)*

बेचैन धड़कनों की हरारत बयां करे
लफ़्ज़ों में कैसे कोई मोहब्बत बयां करे

दिन रात पैरवी जो ये करती है झूठ की
कैसे ज़ुबान दिल की सदाक़त बयां करे

तू मेरी जिंदगी से है वाबस्ता इस तरह
जैसे क़लम सियाही से निस्बत  बयां करे

व्हाट्सअप के एस एम एस  में वो बात है कहां
जो बात ख़त में लिक्खी नज़ाकत बयां करे

"मासूम" फिर ख़िज़ां में भी आ जाती है बहार
जब आसमां ज़मीन के बाबत बयां करे

*(9)*

उम्र भर पढ़ते रहे हम ज़िंदगानी की किताब
मौत इस पर क्यों लिखा, मिलता नहीं इसका जवाब

तोड़ कर बचपन का दिल भागी जवानी तेज़-तर
अब बुढ़ापे ने दिया धोखा, लगाता है ख़िज़ाब

तिश्नगी ही तिश्नगी तक़दीर सहरा की हुई
इसके हिस्से में कभी आई नहीं कोई चिनाब

रात भर कोहरे ने यूं पहरा अंधेरे पर दिया
आसमां पर हमने चाहा पर न पाया माहताब

चैन से सोयेंगे इक दिन बस इसी उम्मीद में
जाग कर काटी गयीं "मासूम" रातें बेहिसाब

*(10)*

जब नाम लिखा तुमने अपना अहसास के सूखे पत्तों पर
फाल्गुन ने अमृत बरसाया मधुमास के सूखे पत्तों पर

तेरे आने की आहट से कोमल किसलय जयघोष हुआ
नव आस खिली, टूटे निर्जन विश्वास के सूखे पत्तों पर

तेरी श्वासों से श्वासित हो हर श्वास सुगंधित है ऐसे
मकरंद मिलाया हो जैसे मम प्यास के सूखे पत्तों पर

आलिंगन में पाकर तेरा मन का अंगनारा झूम रहा
यों रास रचाया है तुमने बनवास के सूखे पत्तों पर

अब साथ तिरे इस जीवन का दुख भी उत्सव हो जाता है
"मासूम" सुखद आभास मिले संत्रास के सूखे पत्तों पर

इन गजलों पर चर्चा करते हुए वरिष्ठ कवि डॉ अजय अनुपम ने कहा कि "मोनिका मासूम मासूमियत के साथ गहरी बात कह देने का अंदाज लिए हुए हैं। उनकी रचनाएं आत्मविश्वास को अभिव्यक्त करती हैं।"           

 विख्यात व्यंग्य कवि डॉ मक्खन मुरादाबादी ने कहा कि "मासूम की ग़ज़लों में परंपरा से लेकर वर्तमान तक के सरोकार सिमटे हुए प्रतीत होते हैं, वो लकीर की फकीर भी नहीं है और लकीर को दरकिनार भी नहीं करती।"
 
वरिष्ठ कवि डॉ मनोज रस्तोगी ने कहा कि "मोनिका जी की ग़ज़लें अदब की महफिल में शोर नहीं मचाती हैं बल्कि सुखन की शमअ जलाती हैं । वह अपनी ग़ज़लों के जरिए पाठकों/ श्रोताओं से बतियाती हैं । उन की गजलें कभी खुरदरे धरातल की दरदरी हकीकत बयां करती हैं तो कभी लगता है कि उनकी गजलें मोहब्बत के दर्द का रिसाला हैं । उनकी ग़ज़लों में कहीं मानवीय और सामाजिक रिश्ते बोलते हैं तो कहीं उनका मासूम लहजा बोलता है । उनकी गजलों में बेचैन धड़कनों की हरारत भी है, दिल की सदाकत भी और लफ्जों की नजाकत भी। उनकी गजलें पढ़कर यह भी लगता है जैसे खिजां में बहार आ गई हो। मधुमास के सूखे पत्तों पर जैसे फाल्गुन अमृत बरसा रहा हो और जीवन का दुख भी उत्सव बन गया हो ।

प्रसिद्ध गीतकार योगेंद्र वर्मा व्योम में कहा कि "मोनिका जी की ग़ज़लों को पढ़ते हुए महसूस होता है कि ये ग़ज़लें गढ़ी हुई या मढ़ी हुई नहीं हैं। इन ग़ज़लों के अधिकतर अश्’आर पाठक के मन-मस्तिष्क पर अपनी आहट से ऐसी अमिट छाप छोड़ जाते हैं जिनकी अनुगूँज काफी समय तक मन को झकझोरती रहती है।"

समीक्षक डॉ मोहम्मद आसिफ हुसैन ने कहा कि "मोनिका जी की ग़ज़लों की  विशेषता सादगी है, जो बड़ी मश्क के बाद पैदा होती  है लेकिन मोनिका जी कलम में अभी से मौजूद है, जो उनके फित्री (नैसर्गिक) शायर होने की अलामत है।"
   
   युवा शायर मनोज मनु ने कहा कि "अपने तखल्लुस से बहुत हद तक मेल खाती शख्सियत और चेहरे की मल्लिका मोनिका  जी के ज्यादातर शेर भी साफ गो हैं और एक अच्छी बात यह जैसा कि अदब मैं उस्ताद और शागिर्द के बीच शागिर्द के कलाम में जो उस्ताद का अक्स नजर आता है  उसूलन उसकी झलक भी कहीं-कहीं मिलती है,... "

युवा कवि राजीव प्रखर ने कहा कि "मोनिका जी ग़ज़ल लेखन में तो सिद्धहस्त हैं ही, गीतिका व दोहों में भी उन्होंने मजबूती से पैर जमाए हैं। पटल पर आज प्रस्तुत की गई उनकी रचनाएं‌ उनकी इस अकूत प्रतिभा को स्पष्ट दर्शा रही हैं। उनका  रचना-कर्म हिंदी एवं उर्दू दोनों के मध्य एक मजबूत सेतु सिद्ध हुआ है।"

 युवा गीतकार मयंक शर्मा ने कहा कि "मोनिका जी की ग़ज़ल की कहन अल्फाज़ का चयन और अंदाज ए बयां उन्हें औरों से अलग करता है।    हर बार बेहतर से बेहतर करने की चाह ही उनके लिए भावी साहित्यिक इमारत की नींव तैयार कर रही है।"

समीक्षक डॉ अज़ीमुल हसन ने कहा कि "मोनिका मासूम जी को हिंदी भाषा के साथ साथ उर्दू भाषा पर भी अच्छी पकड़ है। ग़ज़लों में श्रृंगार रस की चाशनी भी है और खुद्दारी का एहसास भी। अपने तखल्लुस मासूम से भी आपने बखूबी काम लिया है।"

युवा शायर फरहत अली ख़ान ने कहा कि "मोनिका जी ने ग़ज़ल के मैदान में अच्छी तरक़्क़ी की है। इन के बयान में आम-फ़हमी है, रवानी है। फ़िक्र में गहरायी    भी मिलती है। उर्दू-हिंदी दोनों ही के अल्फ़ाज़ का अच्छा इस्तेमाल करती हैं।"
   
युवा कवियत्री हेमा तिवारी भट्ट ने कहा कि "मोनिका मासूम मेरी प्रिय मित्र हैं और उनकी ग़ज़लों में ग़ज़लियत भरपूर है। कहने के तरीके, सोच का स्तर,उनके द्वारा प्रयुक्त अद्वितीय बिंब, लयात्मकता व प्रवाह आदि भी महत्वपूर्ण कारक हैं।

   ग्रुप एडमिन और संचालक शायर ज़िया ज़मीर ने कहा कि "मोनिका मासूम मुरादाबाद के शेरी उफ़ुक़ पर चमकने वाला एक ताज़ा नाम है जिसने बहुत जल्द अपनी तरफ मुतवज्जो किया है। मोनिका मासूम के पास रवानी भी है और अल्फाज़ को बिना दरार पड़े जोड़ने की सलाहियत भी मौजूद है।"


::::प्रस्तुति::::::

✍️ ज़िया ज़मीर
ग्रुप एडमिन
"मुरादाबाद लिटरेरी क्लब"
 मुरादाबाद 244001
उत्तर प्रदेश, भारत
मो० 7017612289

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